भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू आज तक मिथकों के नेता है। नेहरू के बारे में अक्सर सच्चाई से ज्यादा चर्चा तो उनको लेकर प्रचलित मिथकों के बारे में होती है। इन मिथकों को लेकर देश में एक लंबी बहस भी है, जिस पर नेताओं सहित देश का बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग लगातार अपनी प्रतिक्रिया देता रहा है।
नेहरू को गुजरे एक अरसा हो गया।लेकिन इतने समय बाद भी भारतीय राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा अगर किसी शख्सियत की होती है, तो वे नेहरू ही हैं। 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद इन चर्चाओं ने और ज्यादा तेजी पकड़ी और अब तो आलम यह है कि किसी भी बड़े मुद्दे पर नेहरू अनायास ही चर्चा का केंद्र बन जाते हैं। कश्मीर से लेकर UNO में चीन को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के मसले की जब भी देश में बात होती है, तब नेहरू हमेशा बहस में होते है। नेहरू को लेकर ताजी चर्चा UNO में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता को लेकर है। जब गृहमंत्री अमित शाह ने इसको लेकर नेहरू को जिम्मेदार बता दिया।
सुरक्षा परिषद में भारत को सीट के मसले पर कभी कभार गुस्सा इसलिए भी फूट पड़ता है कि हमारे पड़ोसी चीन के पास यह सीट है और जब भी UNO में भारत के हितों की बात आती है तो चीन द्वारा भारत के खिलाफ वोटो का प्रयोग कर लिया जाता है। दूसरा यह भी कि भारत खुद भी लंबे समय से सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट की दावेदारी कर रहा है, लेकिन चीन हर बार इस दावेदारी में अड़ंगा लगा देता है।
हालही में चीन के साथ तनातनी का माहौल है। अरुणाचल प्रदेश से चीन की लगती तवांग सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों की झड़प की सूचना आने के बाद विपक्ष सरकार पर हमलावर है तो अमित शाह ने इस पूरे मामले की स्टेयरिंग नेहरू की तरफ घुमा दी है। शाह ने कहा कि नेहरू ने सुरक्षा परिषद में भारत को मिलने वाली स्थाई सीट चीन से अपने प्रेम के कारण उसे दे दी। यह पहला मामला नही है, जब भाजपा नेताओं ने नेहरू पर इस तरह का आरोप लगाया है। इससे पहले भी मार्च 2019 में अरुण जेटली ने सुरक्षा परिषद के मुद्दे पर नेहरू को कठघरे में खड़ा कर दिया था। अरुण जेटली के इस आरोप की वजह में 2 अगस्त 1955 को नेहरू द्वारा मुख्यमंत्रियों को लिखी चिट्ठी थी। दावा किया गया की इस चिट्ठी में नेहरू ने लिखा - अमरीका ने अनौपचारिक रूप से कहा है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में जगह लेनी चाहिए न कि सुरक्षा परिषद में। जबकि अमरीका ने सुरक्षा परिषद में जगह के लिए भारत की तरफदारी करी। लेकिन नेहरू ने इसे स्वीकार नही किया और कहा की चीन को सुरक्षा परिषद में जगह ना मिलना उसके साथ नाइंसाफी होगी। अरुण जेटली ही नही उसके बाद रविशंकर प्रसाद और विदेश मंत्री एस जयशंकर तक भी इस बहस को हवा दे चुके है। लेकिन हर विषय को देखने और समझने के दो दृष्टिकोण जरूर होते है और जबतक दूसरे दृष्टिकोण की ठीक से पड़ताल ना कर की जाए तब तक किसी भी निर्णय तक पहुंचना ठीक नही है।
आज दूसरे तथ्यो के सहारे दूसरे दृष्टिकोण के करीब पहुंचने की कोशिश भी करते है जो इस सच्चाई को जानने का एक जरिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मसले पर दूसरा दृष्टिकोण कहता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ 1945 में बना और इससे जुड़े संघ तब आकर ले ही रहे थे। इसके इसके उलट भारत तो आजाद ही 1947 में हुआ था। यानी कि 1945 में जब सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बनाए जा रहे थे तब भारत आजाद ही नही हुआ था। भारत आजाद होने के बाद भारत सहित अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की सुरक्षा परिषद में दावेदारी को लेकर कुछ बाते जरूर हुई लेकिन खुद नेहरू ने 27 अगस्त 1955 को संसद में बयान देकर सब तरह की अपवाहो की जुबान सिल दी थी।नेहरू ने खुद संसद में बताया कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट का कभी कोई अनौपचारिक प्रस्ताव नही मिला है। नेहरू ने यह भी कहा कि सुरक्षा परिषद का गठन यूएन चार्टर के तहत हुआ था और इसके नए सदस्य शामिल करने के लिए सबसे पहले तो चार्टर में संशोधन करना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल ही बेकार है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य की सीट ऑफर की गई थी और भारत ने उसे ठुकरा दिया।
इस मिथक को अक्सर इस तरह बताया जाता है कि जो सीट सुरक्षा परिषद में भारत को मिलने जा रही थी वह नेहरू ने चीन को दे दी। जबकि इसके उलट भारत सुरक्षा परिषद में चीन की स्थाई सदस्यता का समर्थक जरूर था।लेकिन लेकिन तब यह सीट ताइवान के पास थी और भारत चीन के उस समय के रिश्तों और पड़ोसी देश की नीति के चलते भारत ने चीन का समर्थन किया। चीन का समर्थन करना भी नेहरू के लिए बाद में विवादो का कारण बना और उन पर आरोप लगाए जाते है कि नेहरू ने यह सब चीन के नेता माओ को खुश करने के लिए ऐसा किया। एक दूसरे कारण से भी नेहरू को कठघरे में खड़ा किया जाता है कि नेहरू ने आदर्शवाद का जामा पहनकर यह कदम उठा लिया। लेकिन जो तर्क नेहरू का बचाव करते है उनकी तरफ से कहा जाता है कि भारत और चीन एक लंबी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक यात्रा के साथी रहे है। साथ ही नेहरू मानते थे बड़ी शक्तियों को अपने मित्रो से दूर नही जाना चाहिए बल्कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में शामिल किया जाना चाहिए।नेहरू मानते थे कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी के साथ गलत व्यवहार किया गया उसके एवज में जर्मनी और असंतुष्ट देश यूएसआर के करीब आ गया। दूसरा यह भी कि नेहरू भारत के साथ - साथ एशिया महाद्वीप के नेता भी थे और एशियाई देशों के हितों की वकालत वे हर मंच पर मजबूती के साथ करते थे।
वरिष्ठ पत्रकार पीयूष बबेले की चर्चित किताब "नेहरू सत्य और मिथक" नेहरू से जुड़े तमाम मिथकों को सिलसिलेवार तरीके से जवाब देती है और नेहरू को काले सफेद घेरो से बाहर निकालने का काम बड़ी हिम्मत से करती है। कश्मीर का मसला हो या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ का बबेले इस किताब में नेहरू पर एक व्यापक और साफ सुथरा दृष्टिकोण भारतीय समाज के सामने रखते है। पीयूष दावा करते है कि उन्होंने पांच सौ किताबो का अध्ययन करने के बाद चार सौ पेज का यह दस्तावेज तैयार किया है जो नेहरू से जुड़े हर मिथक और सच का प्रामाणिक दस्तावेज है।
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