मिथिलेश के मन से: अपने पे गुरूर आ जाता है..

अपने पे गुरूर आ जाता है..
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अगर हम भूल नहीं रहे तो 2016- 17 के वक्फे में यह स्टोरी ' राष्ट्रीय सहारा' के पटना संस्करण में छपी थी। बाद में तमाम दीगर अखबारों का उस स्टोरी पर ध्यान गया। रवीश के प्रोग्राम कवरेज का आधार तत्व है वह रिपोर्ट। वही मूल रिपोर्ट है। वही मूल स्टोरी है। जानते हैं, वह स्टोरी किसकी थी?

आसमान में चीलें मंडरा रही हैं और हम रुमानी हो रहे हैं। हम गुनगुना रहे हैं- जब तुम मुझे अपना कहते हो/ अपने पे गुरूर आ जाता है...।

चीलों की आसमान में मौजूदगी के बीच मूड का इस कदर रुमानी हो जाना.. यह थोड़ा जटिल किस्म का कंट्रास्ट है और इस कंट्रास्ट को समझना होगा। बिहार ऐसे कंट्रास्टों का अभ्यस्त है और उसे खूब ठीक से पता है कि नाव को कहां ले जाना है या तूफान  की आखिरी हद कहां है।

वह बारूद का स्वाद भी जानता है और जोहरा बाई की ठुमरी की नजाकत भी समझता है। फिसलन और चुभन जहां एक साथ मिलें और फिर जो तस्वीर उभरे, वह बिहार के अलावा आपको पूरी की पूरी कहीं और नहीं मिलेगी।  तो साहेब.. जोहरा बाई हमारा इंतज़ार कर रही है। अजीमाबाद में। अजीमाबाद यानि आज का पटना सिटी। वहां बादशाह शाहजहां की साली मलिका बानो को हमारा इंतजार है।

मलिका बानो की मजार के पास बनी एक मस्जिद के बाहर खड़े हैं रवीश कुमार और वहीं से इस मजार की महत्ता बयान कर रहे हैं।  उनका यूट्यूब चैनल इस प्रोग्राम को परोस रहा है।

रवीश को जानने- समझने वाले गदगद हैं- 'देखो गुरु, कवरेज इसे कहते हैं। जियो रवीश भाई। जुग जुग जीयो।' रवीश के हाथ में एक अखबारी कटिंग है-  'मैं शाख़े खुश्क हूं, हां- हां उसी उजड़े गुलिस्तां की'।

अगर हम भूल नहीं रहे तो 2016- 17 के वक्फे में यह स्टोरी ' राष्ट्रीय सहारा' के पटना संस्करण में छपी थी। बाद में तमाम दीगर अखबारों का उस स्टोरी पर ध्यान गया। रवीश के प्रोग्राम कवरेज का आधार तत्व है वह रिपोर्ट। वही मूल रिपोर्ट है। वही मूल स्टोरी है। जानते हैं, वह स्टोरी किसकी थी?

वह स्टोरी दर्जा सात पास एक आदमी की थी जिसे पटना सिटी के इतिहास का एनसाइक्लोपीडिया कहते हैं। पटना के तमाम बड़े और छोटे अखबारों को उस आदमी ने अपनी सेवाएं दीं लेकिन हमेशा कंट्रैक्ट पर रहा। किसी भी अखबार ने उसे अपना स्थायी कर्मचारी नहीं माना।

उस शख्स का नाम है- नवीन रस्तोगी। उम्र- अस्सी पार। हाल मुकाम- चौक, पटना सिटी। इस वय में भी नाविक जैसी फुर्ती और हिरनी जैसी सचेत आंखें हैं उस आदमी के पास। वह कहानी सुनाएगा तो लगेगा कि इतिहास को आप देख रहे हैं। वह जो घटित हो गया। वह जिसके घटित होने के खतरे अभी नहीं टले। सब कुछ।

सुबह से ही फोन घनघना रहा है- 'हम आपके मुंतजिर हैं। अजीमाबाद की गलियों, उसकी सड़कों, उसकी रेलमपेल, उसकी बेतरतीबी को आपका इंतजार है। ' यह नवीन रस्तोगी की आवाज़ है। बर्फ में भीगी और थोड़ी खरखराती हुई।

दादा को सर्दी लग गयी, लगता है। ऐसा ही एक और टेलीफोन, फिर बार बार वही टेलीफोन- 'भैया आप तैयार हो गये? आंय... हम आ रहे हैं। दादा से मिलना है। आपको याद कर रहे थे। शिद्दत से। '  यह शैलेश है। सहोदर जैसा। उम्र में हमसे कम से कम पंद्रह साल छोटा।

वह  बोलता कम है लेकिन जब बोलेगा तो खाट खड़ी कर देगा। शैलेश पहले पत्रकार हुआ करता था। बाद में अफसर हो गया। अब उसके पास गाड़ी है, पटना में एक अदद घर भी। हम उजड़ते गये, वह बसता गया। उसकी ताकत बसने में, हमारी ताकत उजड़ने में।

चीलें मंडरा रही हैं तो मंडराती रहें, हम निकलेंगे शैलेश। तुम जहां हो, जिस हाल में हो, आ जाओ।  हम गुरूर में मदमाये हुए हैं। किसी ने हमको अपना तो कहा। किसी को तो हमारा इंतजार अब भी  है।

सिटी में रविकांत मिलेगा, प्रेमकिरण मिलेंगे, तखत हरमंदिर साहेब से भेंट होगी। वहां हम सौ साल से भी ज्यादा पुरानी उस दुकान पर कचरी- घुंघनी खायेंगे जिसके प्रोडक्ट और गुणवक्ता की आज तक कापी नहीं हो पायी।

शैलेश आ गया है। वह हंस रहा है: '  हम गये कहां थे? जब हम आपको फोन कर रहे थे, तब भी हम यहीं बाहर गाड़ी में थे और गाड़ी का शीशा चढ़ा हुआ था। आप हमें देखते कैसे'? शैलेश बिल्कुल ठीक कह रहा है।

दृश्यता को धूमिल कर देता है शीशा और ठंड के दिनों में ऐसा अक्सर होता है। अब चीलें मंडरायें या बर्क गिरे, रुकना नहीं। गाड़ी फर्राटे भर रही है। हम उड़े जा रहे हैं। सिटी के पहले कहीं नहीं रुकेंगे हम।

(नोट: यह किस्सा अभी खतम नहीं हुआ। आगे भी चलेगा। कुछेक तस्वीरें भी हैं जिन्हें फेसबुक पर डालने का शऊर हम आज तक नहीं सीख पाये। डल जाएं तो समझिएगा, पट्ठे ने जग जीत लिया या कोई जुगाड़ बैठा लिया।)

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