नीलू की कलम से: अपनी रेल

अपनी रेल
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रेल नाम जब भी आपके जेहन में आता है तो एक दनदनाती, खड़खड़ाती और पवन वेग से उड़ती मशीन जेहन में आती है पर कोटा जोधपुर (रेल) इससे बिल्कुल विपरीत

एक लंबी सीटी,रक्चक रक्चक चक्के हिले और हाश्श... मैं तो थक गई। कुछ ऐसे ही चलती है अपनी कोटा जोधपुर

बहन बेटियों के लिए कोटा जोधपुर मां जैसी तो बीनणियों के लिए सास जैसी और बच्चों के लिए तो दादी-नानी जैसी, किसीके भी साथ रहो,मिलना तो स्नेह ही है

गांव के बच्चों की ख्वाहिश 'नानी के जाऊंला दही बाट्यो खाऊंला' का खयाल कौन करेगा? सिर्फ अपनी कोटा जोधपुर

एक जमाना था जब स्त्रियां (खासकर राजपूत स्त्रियां) विवाह के बाद मायका देखने को तरस जातीं थीं।आने-जाने के साधन सीमित थे और रिश्तेदारियां इतनी दूर कि कोई साधारण परिवार उस यात्रा के खर्च, सुरक्षा और जिम्मेदारी को वहन ही नहीं कर पाता था।

अपरिहार्य यात्राओं के लिए राज्य से अनुमति लेनी पड़ती। राज्य सुविधा और सुरक्षा देता तो यह सुनिश्चित भी करता कि यात्रा कौन,कब और कैसे करेगा। बार, तिथ और नक्षत्रों को ध्यान में रखकर योजना बनती।

ऐसी स्थिति में स्त्रियां बमुश्किल ही पीहर के रूंख देख पाती।

रेल चलने से पहले या तो सुबह जाकर शाम को लौटने वाला झूंत्या ननिहाल जा सकता था या घोड़े दौड़ाने वाले राजकुंवर। शेष तो बस मामा की बाट जोहते जीवन भर।आज भी जब कोई बच्चा अपनी दादी-नानी से दिन में कहानी सुनाने की जिद्द करता है तो वे कहते हैं- 'दिन में कहानी सुनोगे तो मामा मार्ग भूल जायेगा।"

आज स्थितियां परिवर्तित हो चुकी पर मामा का 'मार्ग न भूल जाना' कितना महत्त्व रखता होगा,समझ सकते हैं!

मेरे इलाके में पहली रेल कब और कैसे चली इसका तो कोई ब्यौरा नहीं मेरे पास पर मेरी पिछली तीन पीढ़ी की स्त्रियों को अपने पीहर से जोड़ने में  रेलगाड़ी वरदान सिद्ध हुई है। खासकर कोटा जोधपुर रेल (गाड़ी)।

गाड़ियां ‌और भी चलती थीं एक मुरधर, दूजी सुबह की इंटर, तीसरी शाम की इंटर और 'अध्यो' भी (नाम पर मत जाइए, रेल्वे ने इसका नाम 'जयपुर बीकानेर मेल' रखा हुआ है पर शुरुआत में कम डिब्बों के साथ चलने कारण इसका यह नामकरण हुआ जनता द्वारा)।

पर यह सब गाड़ियां 'ऊंचे लोग ऊंची पसंद' वाली थीं। मुरधर शाही गाड़ी,इंटर व्यवसायी लोगों की, 'अध्यो' अलबत्ता मजदूरों और कर्मचारियों को पनाह दे देती। पर गांव की स्त्रियां इनमें से क्या थीं? न शाही, न व्यवसायी और न ही मजदूर! जो कुछ नहीं होता उनका कौन होता है?

हारे का सहारा बाबा श्याम!
नहीं, कभी कभी सिर्फ कोटा जोधपुर रेल।

रेल नाम जब भी आपके जेहन में आता है तो एक दनदनाती, खड़खड़ाती और पवन वेग से उड़ती मशीन जेहन में आती है पर कोटा जोधपुर (रेल) इससे बिल्कुल विपरीत।

जितने धीर,शांत और परिपक्व बहु व बेटियों को लेने जाने वाले ससुर और जेठ होते हैं उतनी ही शांत,धीर-गंभीर यह रेल है ,कोई हड़बड़ाहट-फड़फड़ाहट नहीं,आहिस्ते आहिस्ते सब बहन-बेटियों को अपनी गोद में बिठाती,मार्ग में मिली हर गाड़ी को रास्ता देकर आगे बढ़ती  हुई।

यातायात के अभाव वाले दिनों कोई ऊंट छकड़ों की मंथर गति में झूलते हुए तो कोई इक्की-दुक्की बसों के फाटकों पर बैठकर इस शरणागतवत्सला तक पहुंचते और यह उनके भौतिक पिंडों के साथ उनके उत्साह,उदासी और उमंगादि भावों को भी एक साथ लिये निर्लिप्त भाव से बहती।

उत्साह उन बेटियों का जो अपने मायके की ओर मुख करते ही हवा में नया स्पर्श अनुभव करतीं,मायके का कांकड़ और खेत-खलिहान देखकर अपने नेत्र धन्य करतीं,अपने मायके की भाषा सुनकर कानों में मिश्री-सी घुलती अनुभव करतीं। इधर उदासी उन कुलवधुओं की जिनसे मायके के हवा,पानी और लोग पल प्रतिपल पीछे छूट रहे हैं,हर स्टेशन का पानी उनके लिए खारे से खारा होता जा रहा है , लोग और उनकी भाषा अतरंगे लग रहे हैं और खिड़की से बाहर के खेत बियावान। टपकते आंसुओं को जेठ और ससुर झीनी चूनर में से साफ देख पाते हैं पर मर्यादा में सांत्वना के लिए इतना ही बोल पाते हैं उसके पास बैठी किसी स्त्री से -"हमारी बीनणी से पूछो पानी पिएगी क्या?"

इन उभय भावों से निर्लिप्त बच्चे जिनके लिए संसार कौतुक मात्र है,खिड़कियों से हिरण और रोजड़ों को देखकर किलकारियां कर रहे हैं,नारंगी वाली गोलियां दिलाने की जिद्द कर रहे हैं,कनफट्टे गैरिकधारियों को देखकर बड़ों की गोद में दुबक रहे हैं  और रेल किसी संयुक्त परिवार के मुखिया की तरह विरुद्धों को सामंजस्य करती हुई चली जा रही है।

सिर पर लोहे के बड़े बड़े बक्से रख कर पटरी किनारे दौड़ते पुरुषों और गहनों से लकदक , घूंघट में हांफती स्त्रियों को अभय देती हुई कि डरो नहीं! तुम सबको लेकर जाऊंगी। समत्व ऐसा कि गांव और शहर में कोई भेद नहीं।छोटे से छोटे स्टेशन पर कोटा जोधपुर रुकेगी। शहरों के पास सौ साधन,गांव ढाणी की सवारी की सुध कौन लेगा? यही कोटा जोधपुर!

गांव के बच्चों की ख्वाहिश 'नानी के जाऊंला दही बाट्यो खाऊंला' का खयाल कौन करेगा? सिर्फ अपनी कोटा जोधपुर!

एक लंबी सीटी,रक्चक रक्चक चक्के हिले और हाश्श... मैं तो थक गई। कुछ ऐसे ही चलती है अपनी कोटा जोधपुर।

इसकी हर बोगी घर जैसी सुगंध वाली। किसी कपड़े के थैले से पकी काकड़ी की खुश्बू आ रही तो किसी थैले से पके बेरों की। लहसुन की चटनी और अचार की गंध से तो जैसे पूरी कोटा जोधपुर ही लिपटी हुई हो।

बहन बेटियों के लिए कोटा जोधपुर मां जैसी तो बीनणियों के लिए सास जैसी और बच्चों के लिए तो दादी-नानी जैसी, किसीके भी साथ रहो,मिलना तो स्नेह ही है।

बिछड़े कुटुंब कोटा जोधपुर में मिलते हैं। बुआ भतीजी,मामी नांणदी कहीं न कहीं टकरा ही जाती हैं और फिर पूरा कुनबा इकट्ठा होता है।जो दो सवारी चढ़ती है वह उतरते समय बीस लोगों के कुनबे संग उतरती है और बीस को हाथ हिलाकर अलविदा कहती है।

साथ वाले ओझल हो जाते हैं पर हाथ तब तक हिलता है जब तक गाड़ी के अंतिम डिब्बे की पीठ आंखों से ओझल नहीं हो जाती। एक समय बाद गाड़ी और अपनों में अभेद स्थापित हो जाता है। गाड़ी मतलब अपने और अपने मतलब कोटा जोधपुर।

रेल्वे ने कब का नाम बदलकर इसे 'भोपाल जोधपुर एक्सप्रेस' बना दिया, हाई स्पीड में यात्रा करने वाली नई पीढ़ी ने इसे 'छकड़ा' नाम दे दिया पर आमजन अब भी इसे 'कोटा जोधपुर' नाम से ही बुलाता है। प्रेम जो हो चला है न इससे,बचपन के नाम से बुलाना कैसे छोड़ दे।

सदियों से मोह रहित होने का ज्ञान सुनता आ रहा है हमारा जनमानस फिर भी न जाने क्यों वीत मोह नहीं हो पाया। माटी से मोह, निर्जीव से नेह और रेल से राग कोई रखता है भला?

- नीलू शेखावत 

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