Highlights
- वह परेशानी जिससे बड़ी उम्र की कामकाजी महिलाएं तक डील नहीं कर पातीं,ये मासूम बच्चियां सयानेपन से छिपा ले जाती हैं
- स्कूलों में मिलने वाले पैड्स की गुणवत्ता इतनी घटिया होती है कि उनके सहारे एक घंटा निकालना मुश्किल होता है,पूरे दिन की कौन कहे? कोरोनाकाल से तो ये भी मिलने बंद हो गए
- सतत गीलेपन के संपर्क में आने से स्किन छिल जाती है,दो कदम चल पाना मुश्किल होता है। ऐसे में कल्पना कीजिए ढाणियों से कई किलोमीटर दूर पैदल स्कूल आने जाने वाली बच्चियों की
- एक दिन में एक पैड की छोड़िए, तीन पैड भी कम पड़ते हैं और माहवारी के दिन अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं
इन दिनों एक आला दर्जे की अफसर साहिबा ने सिनेटरी पैड को इतना पॉपुलर कर ही दिया है तो सोचा इस पर धरातल से बात की जाए।यह बात सिर्फ और सिर्फ गांव की बच्चियों व सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली बच्चियों की है क्योंकि यह मेरा भोगा और देखा हुआ यथार्थ है।
औसत दस से ग्यारह की उम्र में बच्चियों को माहवारी शुरू हो जाती है और तब वे छठवीं या सातवीं कक्षा में पढ़ रही होती हैं।आप इन कक्षाओं में पढ़ने वाली बच्चियों से मिलेंगे तो सहसा यकीन नहीं कर पाएंगे कि घेर कुर्ते पहनकर चिड़ियाओं की तरह फुदकने वाली ये बच्चियां हर माह माहवारी जैसी परेशानी को झेल रहीं हैं। (फॉर गॉड सैक अब यह मत कह दीजिए कि यह तो ईश्वर का वरदान है स्त्री के लिए। कम से कम गांव की बच्चियों के लिए तो अगले दस वर्ष तक यह यंत्रणा के अतिरिक्त कुछ नहीं।)
वह परेशानी जिससे बड़ी उम्र की कामकाजी महिलाएं तक डील नहीं कर पातीं,ये मासूम बच्चियां सयानेपन से छिपा ले जाती हैं। पर ये छिपाव जब समझे बूझे लोगों की उपेक्षा और व्यंग्य का साधन बन जाए तो चर्चा कर लेना श्रेयस्कर है। तो चलिए बात को बिंदुवार समझते हैं
- सबसे पहले बात करते हैं इन बच्चियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि की जहां से वे पंख खोलकर उड़ने के सपने देखती हैं।
एक सामान्य ग्रामीण मुश्किल से प्रतिमाह दस बारह हजार की जुगाड़ू कमाई कर पाता है जिसमें पूरे परिवार का निर्वाह होता है। बड़े साहब तो इन रुपयों से एक अच्छा डिनर भी नहीं कर पाते होंगे। - बाजार में उपलब्ध गुणवत्तायुक्त सेनेटरी नेपकिन की कीमत तीस से चालीस रुपए है जिसमें छः पैड आते हैं।यह संख्या इस गणित पर आधारित है कि माहवारी के औसत दिन छः हैं और प्रतिदिन के हिसाब से यह संख्या पर्याप्त है। इससे इतर वास्तविकता यह है कि माहवारी के शुरुआती वर्षों में ब्लीडिंग इतनी अधिक रहती है कि एक दिन में एक पैड की छोड़िए, तीन पैड भी कम पड़ते हैं और माहवारी के दिन अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं।
- इस हिसाब से एक बच्ची हर पच्चीसवें दिन साठ से नब्बे रुपए का खर्चा करवाती है। अधिकांश घरों में लड़कियां एक से अधिक संख्या में होती हैं। भारत के किसी गांव में न यह राशि इतनी कम है और न लड़कियां इतनी अनमोल कि इतना खर्च हर माह किया जाए।
- स्कूलों में मिलने वाले पैड्स की गुणवत्ता इतनी घटिया होती है कि उनके सहारे एक घंटा निकालना मुश्किल होता है,पूरे दिन की कौन कहे? कोरोनाकाल से तो ये भी मिलने बंद हो गए।
- माहवारी के दौरान पेट दर्द,उल्टी,चक्कर और कमजोरी से अधिकांश महिलाएं दो चार होती हैं। घर से दूर आठ से दस घंटे गुजारने वाली बच्चियों में इसकी कल्पना कीजिए।
- सतत गीलेपन के संपर्क में आने से स्किन छिल जाती है,दो कदम चल पाना मुश्किल होता है। ऐसे में कल्पना कीजिए ढाणियों से कई किलोमीटर दूर पैदल स्कूल आने जाने वाली बच्चियों की।
- कार्यस्थल पर पैड लेना,बदलना और फेंकना बड़ी उम्र की महिलाओं तक के लिए बिग टास्क है,बच्चियों की कल्पना खुद कीजिए।
- स्कूल में महिला अध्यापक होने से बच्चियों की समस्या कम हो जाती है,यह महज एक भ्रम है।बहुत कम अध्यापिकाएं बालिकाओं को साथ बिठाकर उनकी काउंसलिंग करती हैं।
- हां, विभागीय अनिवार्यताओं के चलते उन्हें कुछ आयोजन या सभाएं करनी होती है जिसमें बोलने के लिए भी सबसे उम्रदराज शिक्षक को चुना जाता है।
- पुरुष शिक्षक इन सब बातों से पूर्णतः निर्लिम्प्त रहते हैं,उन्हें इससे कोई लेना देना नहीं। कुछ नवयुवक चर्चा करने की हिम्मत जुटा भी ले तो पुराने वाले इस कदर आंखें तरेरते हैं मानो कोई अपराध हो रहा हो।
- निदान अधिकांश बालिकाओं के लिए आज भी कपड़ा ही उपाय है। साफ सुथरे कपड़े में कोई बुराई भी नहीं पर यह घर में रहने वाली महिलाओं के ही अनुकूल है।
- माहवारी का अवसाद माहवारी के पांच-सात दिन पहले ही शुरू हो जाता है।बस में,क्लास में,प्ले ग्राउंड में बस एक ही चिंता, बच्चियों का पूरा ध्यान हर वक्त 'दाग न लग जाए',इसी पर लगा रहता है। इस दौरान पढ़ाई में मन कैसे ही लगता होगा और नहीं लगने पर शिक्षकों की डांट डपट और झिड़कियों का अंबार लगे सो अलग।
- जिस विषय पर मां बेटी भी संवाद करने से कतराती हैं, बच्चियों ने आला अधिकारियों से संवाद किया, न केवल संवाद बल्कि जोर देकर अपनी बात रखी उसके लिए उन्हें बधाई।
- प्रतिमाह दस-बारह दिन अवसाद और पीड़ा में गुजारने के बाद भी लड़कियां पढ़ती हैं,बढ़ती हैं और बोलती हैं तो उनको सुनिए! उनकी आवाज को दबाइए मत।
- - नीलू शेखावत