नीलू की कलम से: गांव वाले टाबरों की फ्रस्ट्रेशन

गांव वाले टाबरों की फ्रस्ट्रेशन
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Highlights

तब इन सबकी एक बड़ी सी बीदड़ी बांधकर आप लोगों के लिए  भेजी जाती ताकि आप इनसे वंचित न रह जाओ

यहां तक कि दाल दलिया और गेहूं बाजरी तक हम आपके बंगले पर पहुंचाते रहे हैं

कुल मिलाकर हमें इतना जलील कर दिया जाता है कि बहुत बड़े अपराध बोध का शिकार होकर हम वहां से निकल ही पड़ते हैं

निकलते वक्त यथा शक्ति कपड़े- पैसे देना भी नहीं भूलते.

"गांव अब वैसे नहीं रहे"

"गांवों के लोग भी अब मतलबी हो गए"

शहरी रिश्तेदारों से अक्सर यह शिकायत सुनने को मिलती रही है। कई बार मन हुआ कि उन्हें असल बात बता दूं पर गांव के संस्कार किसी के मुंह पर कड़वा बोलने से रोक देते हैं।

आज फिर किसी शहरी ने घुमा फिराकर यही बात बोल दी तो सोचा एक संदेश जनहितार्थ जारी कर ही दिया जाए।

तो शहर वाले अंकल आंटी, बुआ मौसी!

दरअस्ल बात यह है कि एक वक्त था जब हमारे गांवों की औरतों की मगोड़ी चूंटते चूंटते चिमटियां अकड़ जाती थी,पापड़ बेलते बेलते हथेलियों के गुद्दे सूने हो जाते थे, केर सांगरी की सूखेड़ी करने में कई- कई दिन लग जाते थे.

तब इन सबकी एक बड़ी सी बीदड़ी बांधकर आप लोगों के लिए  भेजी जाती ताकि आप इनसे वंचित न रह जाओ। यहां तक कि दाल दलिया और गेहूं बाजरी तक हम आपके बंगले पर पहुंचाते रहे हैं।

जब भी कोई गांव से शहर आता है आपकी दस फरमाइश हो जाती है-"यह भेज देना,वह भेज देना।"

मजे की बात यह है कि इन सब चीजों का कोई मूल्य नहीं होता आपकी नजरों में।

मगर जैसे ही हम गांव वाले आपके घर (जो घर कम घुरंडी ज्यादा होता है) में पैर रखते हैं तो आपका मीटर चालू जो जाता है_पाव दूध ज्यादा लग गया,सब्जी में दो मिर्च ज्यादा,खाने में चार रोटी का आटा ज्यादा,बिस्तर तो आपके यहां लिमिटेड होते ही हैं.

कुल मिलाकर हमें इतना जलील कर दिया जाता है कि बहुत बड़े अपराध बोध का शिकार होकर हम वहां से निकल ही पड़ते हैं। निकलते वक्त यथा शक्ति कपड़े- पैसे देना भी नहीं भूलते.

आपने दो चार दिन हमें इमली चबाने जैसा मुंह बनाकर रोटियां जो खिलाई। आपके शहर की आबोहवा और आपके घरों की दीवारें हमारी आवाज को वैक्यूम की तरह सोख लेती हैं।

हम एक- एक शब्द तोलकर बोलते हैं,किसी भी चीज को छूने से कतराते हैं, कहीं हमारा गंवारपन न टपक पड़े तिस पर तुम्हारे पड़ौसी- परिचित चिड़ियाघर के जानवरों की तरह हमें घूरते हैं.

फिर  तुम्हारी यह टिप्पणी-" गांव से आया है" उनको सांत्वना देती है।

दूसरी तरफ आप। जब भी अपने चरण कमल गांव में धरते हो,कई दिन पहले ही हमारे घरों में भूचाल आ जाता है।

घर के बच्चों का दूध- दही कम हो जाता है,आपके लिए घी जो इकट्ठा करना है,गेंहू पिसवाये जाते हैं, बाजरी की काली रोटी को तो आप म्यूजियम की वस्तु की तरह देखते हैं।

हम भले कढ़ी, रायते, राबड़ी में जीवन गुजार दें,आपके लिए बाजार से सब्जियां लाई जाती हैं।

इन सबके बाद भी आप और आपके बच्चों के नखरे। गांव को इस तरह देखते हैं मानो किसी दूसरे ही ग्रह का टुकड़ा हो।

"चूल्हे से धुंआ कैसे निकलता है?"

"घट्टी से आता कैसे निकलता है?"

"गाय से दूध कैसे निकलता है?"- इतने बेहूदे सवालों का जवाब भी हम बड़े आराम से देते हैं।

बात बेबात हिंदी अंग्रेजी छांटकर हमारे ही घर में हमारे घरवालों से हमें 'गंवार' कहलवा देने वाले आपके बच्चों के भी हम आगे पीछे घूमते हैं, हेत- व्यवहारियों से मिलवाते हैं,कुछ दिन और रुक जाने का हठ भी करते।

हम सर्वस्व देकर भी गंवार रह गए और आप इंच टेप सा रिश्ता निभाकर भी नागर,चतुर और सभ्य बन गए।

पर अब थोड़ा बदलाव आ गया है हम में। अब हम शहर का नाम सुनते ही पगलाते नहीं हैं, गांवों में स्कूल खुल गए हैं,हिंदी अंग्रेजी 'मोटी माजी' नहीं लगती,बहुत जरूरी नहीं हो तो आपके घर रुकने से भी परहेज करने लगे हैं.

दो पैसे ज्यादा देकर बाहर रुक लेंगे, वैसे आपको भी कुछ न कुछ नजराना तो पेश करते ही थे। हमारे गांव से जाने वाली कोथळियां भी थोड़ी हल्की होने लगी है क्योंकि आपका गणित अब थोड़ा बहुत हम भी समझने लगे हैं।

तब भी हम आप जैसे कभी नहीं हो पाएंगे। हमें मेहमानों को देखकर खुशी होती है। हमें खाने से अधिक खिलाने में मजा आता है,हम अभी भी 'पान सारू फूल' देने में भरोसा करते हैं।

आप अपने स्वार्थ का चश्मा हटाकर देखिए। गांव बदले नहीं है,सावधान हो गए हैं। जब भी मन करे, पधारो। आपका स्वागत है।

नीलू शेखावत

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