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यदि आलाकमान कांग्रेस पिता—पुत्र को एक ही संभाग से टिकट नहीं देने का कायदा तय कर लेता है तो फिर कहा जा रहा है कि सीएम गहलोत पाली सीट से भी चुनाव लड़ सकते हैं। यदि सरकार रिपीट होती है तो गहलोत इस सीट को छोड़ेंगे। उप चुनाव होगा तो इस सीट से वैभव को आसानी से विधानसभा भेजा जा सकता है।
जयपुर | राजनीति संभावनाओं का खेल है और संभावनाएं यह बन रही है कि मुख्यमंत्री इस बार दो जगह से चुनाव लड़ ले। क्या मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इस बार सरदारपुरा विधानसभा के साथ—साथ एक और सीट से चुनाव लड़ सकते हैं।
सरदारपुरा सीट पर गहलोत पिछला चुनाव 45 हजार 597 वोट से जीते, लेकिन उसके कुछ माह बाद हुए लोकसभा चुनाव में उनके ही बेटे वैभव को यहां के निवासियों ने करीब साढ़े अठारह हजार वोटों से पीछे छोड़ा।
कांग्रेस ने अपने विधानसभा क्षेत्र सरदारपुरा में गहलोत के बूथ पर बहुत खराब प्रदर्शन किया, जहां भाजपा को कांग्रेस के 266 के मुकाबले 605 वोट मिले। यह आलोचना का विषय भी बना। अब चूंकि बीजेपी एक परिवार से एक टिकट का ऐलान कर चुकी है तो क्या कांग्रेस यह रिस्क लेगी।
खासकर के वह भी तब जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राहुल गांधी के बीच रिश्तों की राजनीतिक खटास वैभव गहलोत के टिकट को लेकर ही हुई थी। हालांकि वैभव के लिए तैयारी फलोदी सीट से भी चल रही है।
विश्नोई बाहुल्य वाले सांचौर को जिला घोषित किया जाना और फिर जिला उद्घाटन की पट्टिका में वैभव का नाम लिख दिया जाना भी चर्चाएं जगा रहा है। चर्चाएं तो वैभव की पत्नी श्रीमती हिमांशी गहलोत की भी चल रही है कि उन्हें डीडवाना से विधानसभा चुनाव में उतारा जाए। तमाम तरह के कयास, बातें उड़ती हैं और इन्हीं उड़ानों पर तय होती हैं राजनीतिक चर्चाएं।
गहलोत की दो सीटों पर उम्मीदवारी की गणित यह है कि कहा जा रहा है कि सरकार रिपीट कराने के लिए कांग्रेस हर संभव कोशिश कर रही है और इसी कोशिश का एक हिस्सा है मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दो जगह से चुनाव लड़ने का प्लान।
यदि आलाकमान कांग्रेस पिता—पुत्र को एक ही संभाग से टिकट नहीं देने का कायदा तय कर लेता है तो फिर कहा जा रहा है कि सीएम गहलोत पाली सीट से भी चुनाव लड़ सकते हैं। यदि सरकार रिपीट होती है तो गहलोत इस सीट को छोड़ेंगे। उप चुनाव होगा तो इस सीट से वैभव को आसानी से विधानसभा भेजा जा सकता है।
इसके लिए एक्सरसाइज शुरू हुई है। क्या है वह एक्सरसाइज और पाली का मूड कैसा है इस पर आज तफ्सील से बात करेंगे। वैसे यह डिपेंड करता है हालात और कांग्रेस के आलाकमान के कायदों पर। हालांकि कांग्रेस आलाकमान के कायदों का हश्र राजस्थान में किसी से छिपा नहीं है। फिर भी गहलोत खेमे के लिए दो बड़ी एक्सरसाइज चल रही है, पहली सरकार रिपीट और दूसरी वैभव का राजनीतिक वैभव उज्ज्वल करना। बात पाली सीट पर संभावनाएं, मूड और इतिहास—वर्तमान की करेंगे, कि कांग्रेस आठ बार से लगातार हार रही इस सीट को कैसे कब्जे कर सकती है।
पंचायती के लिए प्रसिद्ध है पाली। पूरे जिले में एक फीसदी से कम जनसंख्या। पाली और रोहट तहसील क्षेत्र में पन्द्रह हजार से कम वोटों के बावजूद, शहर में महज पांच प्रतिशत आबादी के बावजूद जैन समाज का ऐसा दबदबा है कि एकाध मौका छोड़ दें तो इस सीट पर जैन ही विधायक बनता है।
केवल विधायक ही नहींं बल्कि नगर परिषद की सीट भी यही वर्ग कब्जाता है। हालांकि पहले तो पाली से सांसद भी इसी समाज का रहा है, लेकिन बाद में गहलोत खेमे के सिपहसालार बद्री जाखड़ ने इस सिलसिले को तोड़ा है। इस लिहाज से जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी वाला नारा यहां सिरे से खारिज है। पाली में रहना है तो जय जिनेन्द्र कहना है आम जुबान पर यह जुमला है।
फिलहाल पाली में बीजेपी से ज्ञानचंद पारख कंटीन्यू पांचवीं बार विधायक हैं। विधानसभा में एकमात्र ऐसे विधायक हैं जो लगातार पांचवीं बार एक ही सीट से मूल चुनाव में विधायक हैं। अशोक गहलोत सरदारपुरा से और पुष्पेन्द्रसिंह राणावत जरूर बाली सीट पर लगातार पांच बार जीत चुके हैं, लेकिन दोनों ही उप चुनाव में जीते थे। पांच बार वालों में वसुन्धरा राजे हैं। परन्तु उन्होंने पहला चुनाव आठवीं विधानसभा के वक्त जीता और फिर वे केन्द्र में पांच बार सांसद रहीं।
मौजूदा विधायकों में सर्वाधिक वालों को गिनें तो राजेन्द्र राठौड़ और कालीचरण सर्राफ सात बार विधायक बने हैं। राजेन्द्र राठौड़ लगातार जीते हैं, लेकिन उन्होंने 2008 में सीट बदल ली थी। कालीचरण सर्राफ लगातार विधायक नहीं बने। 11वीं विधानसभा यानि 1998 में जौहरी बाजार सीट से तकीउद्दीन अहमद से चुनाव हार गए थे।
प्रताप सिंह सिंघवी, कैलाशचन्द्र मेघवाल, सूर्यकान्ता व्यास, कांग्रेस के हेमाराम चौधरी, बीडी कल्ला, परसादीलाल मीणा, परसराम मोरदिया, महादेव सिंह खंडेला और दयाराम परमार छह—छह बार विधायक बने हैं, लेकिन लगातार विधायक नहीं रहे हैं। खैर हम बात पाली की कर रहे हैं कि गहलोत परिवार का यहां यदि सीन बनता है तो क्या वे यहां से जीत जाएंगे?
पाली में इस बार 245 बूथ है और करीब पौने तीन लाख वोटर हैं। यह सीट कई कारणों से प्रसिद्ध है। कांग्रेस की लगातार आठ बार हार वाली सीट है। देश में इसके बाद आठ और राज्य में छह सरकारें बदल चुकी हैं। परन्तु पाली की जनता का मूड नहीं बदलता। कांग्रेस इस बार घेराबंदी के मूड में है।
पाली ने 1985 में अंतिम बार शौकत अली को टिकट दिया था। परन्तु वे करीब साढ़े सत्रह प्रतिशत वोटों के बड़े अंतर से हारे थे। पाली शहर में ही मुस्लिम वोटर्स की संख्या करीब 45 हजार है। बावजूद इसके 1985 के बाद मुस्लिम को कभी टिकट नहीं दिया गया कांग्रेस की ओर से। मुस्लिमों को राजी करने के लिए एक बार फिर से अजीज दर्द को जिलाध्यक्ष बनाया गया है, लेकिन दर्द क्या कांग्रेस की हार का दर्द दूर कर पाएंगे।
1990 में भीमराज भाटी को कांग्रेस ने टिकट दिया था तो वे पुष्पा जैन से करीब पांच हजार वोट से हारे थे। अच्छी टक्कर के बावजूद 1993 में भीमराज भाटी का टिकट काटकर कांग्रेस ने चन्द्रराज सिंघवी को प्रत्याशी बनाया। ऐसे में भीमराज भाटी बागी हो गए और चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे।
कांग्रेस से माणक मल मेहता 1980 में यहां अंतिम बार विधायक बने थे। उन्होंने बीजेपी के केसरी सिंह को हराया था।
बीते 43 सालों में प्रदेश में छह बार और देश में आठ बार सरकार बदल गई, लेकिन पाली नहीं बदला है। पाली विधानसभा के समीपवर्ती विधानसभा क्षेत्र हैं सोजत, लूणी, आहोर, सुमेरपुर, सिवाना, बिलाड़ा, मारवाड़ जंक्शन, बाली आदि। आपको जानकर हैरत होगी कि यहां केवल लूणी और बिलाड़ा के अलावा कांग्रेस का कोई विधायक नहीं जीता है और यह लगातार दूसरी बार हो रहा है। इससे पहले 2013 तो लूणी और बिलाड़ा भी बीजेपी के पास था।
इसके बाद से यहां सूखा पड़ा हुआ है कांग्रेस के लिए। गहलोत यहां इसीलिए चुनाव लड़ना चाहते हैं ताकि वे आलाकमान को कह सकें कि जो सीट हम आठ बार से हार रहे हैं, वह कांग्रेस की झोली में डाली जा सके। यही नहीं कांग्रेस आसपास की सीटों पर भी फायदा बना सकती है। जहां वह लगातार हार रही है। कहा जा रहा है कि अरावली की हरियाली वाले इलाके में कांग्रेस का सूखा भी दूर हो सकता है। कांग्रेस में लोकल प्रत्याशी है नहीं और जो है वो भी कोई ज्यादा मुकम्मल परिणाम देने वाले नजर नहीं आते। भीमराज भाटी को यदि साध लिया जाए तो फिर कांग्रेस के लिए यह सीट बेहद आसान हो जाएगी।
वैसे इसके तीन—चार ग्राउण्ड बनते हैं
ज्ञानचंद पारख के विरुद्ध एंटीइंबेंसी
विधायक पारख का पांच बार एक ही टिकट और एक ही सीट से विधायक होना उनके खिलाफ कई वर्गों में नाराजगी की वजह है। साथ ही घांची समाज की नाराजगी पारख को भारी पड़ सकती है। साथ ही लगातार एक ही समाज से जिसका वोटबैंक बड़ा नहीं है, विधायक बहुधा जातियों को रास नहीं आ रहा है। वे अब बदलाव के मूड में है।
नगर परिषद वाला मामला
नगर परिषद चेयरमैन राकेश भाटी और ज्ञानचंद पारख के बीच की अदावत। दो बार के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री पीपी चौधरी का खेमा और ज्ञानचंद पारख का खेमा इस बार इस मुद्दे पर खुलकर आमने सामने हैं। सीरवी समाज भी टिकट का क्लेम कर रहा है। ज्ञानचंद पारख गुलाबचंद कटारिया खेमे के सिपहसालार हैं और कटारिया फिलवक्त राजस्थान की राजनीति से आउट है। यह तो तय है कि बीजेपी के पास पारख के कद का फिलहाल कोई नेता नहीं है। आलाकमान को यही बात साल रही है कि हम एकाधिक नेता क्यों नहीं तैयार कर पाए। हालांकि यह मुद्दा बीजेपी आलाकमान का है। हम बात कांग्रेस की करते हैं।
मुस्लिम वोटर्स और भीमराज भाटी
पाली के पौने तीन लाख वोटर्स में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की है। मुस्लिम चाहते हैं कि उन्हें सियासत में हिस्सा मिले। कांग्रेस इस वोटबैंक को भुनाने की कोशिश में है। इसीलिए अजीज दर्द को जिलाध्यक्ष बनाया है। देखना है कि यह कार्ड कांग्रेस के कितना काम आता है। परन्तु सचिन पायलट खेमे के भीमराज भाटी, जिनके वोटों की गिनती पचास हजार से शुरू होती है। उन्हें यदि साधा नहीं गया तो कांग्रेस यहां नहीं जीत सकती। भाटी जब चुनाव लड़ते हैं निर्दलीय तो वे ही दूसरे नम्बर पर रहते हैं। कांग्रेस की अक्सर जमानत जब्त होती है। भीमराज भाटी जब कांग्रेस से लड़ते हैं तो बीजेपी को टक्कर देते हैं।
यदि अशोक गहलोत पाली फतह करना चाहते हैं तो उन्हें पहले भाटी को मनाना होगा। यदि वे ऐसा कर लेते हैं तो घांची समाज जो एक बड़ा वोटबैंक है वह कांग्रेस की ओर सीधा ही मूव हो जाएगा। राकेश भाटी प्रकरण से उनकी सीधी नाराजगी है। तीसरा बड़ा वोटबैंक सीरवी है, जिसका फिलहाल कोई विधायक नहीं है। परन्तु सांसद सीरवी समाज से हैं। सांसद और पारख की अदावत यहां गहलोत के लिए खेल को मुकम्मल कर सकती है।