दीवाळी आती हुई तो बड़ी अच्छी लगती है पर जो लोग इसे लेकर आते हैं उनका जी जानता है।
सबसे ज्यादा हालत खराब स्त्रियों की और उनमें भी बहुओं की होती है जो दिन रात एक करके महीनों तक धुआंसे झाड़ती है।
न खाने की सुध न पीने की। इसमें भी भारी संकट तब, जब परिवार खेती-बाड़ी करने वाला हो। खेत और घर के बीच बेचारियों का गायटा निकल जाता है।
दौड़ते-दौड़ते दीवाळी आ जाती है और काम फिर भी बाकी ही रह जाता है।
बणीं (कपास) की खेती करने वाली सासू अपनी बहू को कहती है- बेटी! सारा कपास तोड़ना बाकी पड़ा है, जल्दी कर वरना दीवाली आ जायेगी।
बहू बोली- यही बात कहकर रोज मुझसे काम करवाते हो और तुम्हारी दीवाळी कहीं आती दिखती नहीं।
सास बोली- आयेगी बावळी! आयेगी, तू काम करवा।
थोड़ा तू तोड़, थोड़ा मैं तोड़ती हूँ।
दौड़ बू (बहू) दीवाळी आयी
डोढ-डोढ खरोल्यो पाँती आयी
बहू बेचारी तोड़ती जाए और कपास फिर से उगता जाए। वह झुंझलाकर बोली- सासू जी!
ओ कांई थांको रुंखड़ो
आगे तोड़ूँ लारे टपूकड़ो
सास ने कहा- ठीक है, टपूकड़े मेरे लिए छोड़ और घर की सफाई में लग।
बहू ने फिर दिन रात एक कर, लीपा-चौका कर, दीवाळी तक घर को बढ़िया चमका दिया। सोचा- आज तो दीवाळी कहीं से उतरेगी।
वह बेचारी बाहर-भीतर घूम घूमकर घर देखे पर दीवाळी तो आयी नहीं। शाम को सासू माँ ने चावल बनाये।
सासू थी जरा बूढी! दिखाई कम देता होगा और लाइट का जमाना नहीं था। चिमनी के उजास में चावल के साथ मोटी सी किसारी भी उबल गयी।
सासू मां ने थाल परोसकर कर कहा- ले बेटा अब आराम से खा, अब दीवाळी आ गयी।
बहू ने कुछ देर चावल में उबले सामान को गौर से देखा फिर किसारी को मूंछ से पकड़कर सास के आगे लटकाते हुए पूछा- सासू जी!
सींग सिंगाळौ मूंछ मून्छाळौ
ओ ही है कै थांको दीवाळो?
- नीलू