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"तीन रूप की हुई बापड़ी डुओ, डबको, कूटी राबड़ी।"
'डबका' पतली राबड़ी जो छाछ में आटा डालकर इंस्टेंट बना ली जाती है, लापसी की जगह थूली की तरह।
चमचों ने अच्छे अच्छों के पेंदे बैठाए हैं, राबड़ी में चमचे का क्या काम?
दांत दूखे नी जाबड़ी, धन ए माता राबड़ी।
मुरधर में जिस दिन मिनखाजूण जलमी उसी दिन एक और अमृत द्रव्य जलमा होगा जिसका नाम था राबड़ी। अयोध्या यदि राजस्थान में हुई होती तो दशरथ के यज्ञ कुंड से प्रकट यज्ञ पुरुष खीर का नहीं, राबड़ी का कटोरा लेकर आता।
समुद्र मंथन यदि राजस्थान के रेगिस्तान में हुआ होता तो शर्तिया समुद्र से अमृत की जगह राबड़ी निकलती और राहु केतु राबड़ी पीकर अमर हुए होते,सूर्य राबड़ी पीकर आकरे हुए होते,चंद्रमा राबड़ी से ठंड पाता और तमाम झगड़े अमृत के लिए नहीं, राबड़ी के लिए हुए होते।
वैसे अमृत का 'डोळ डाळ' किसने देखा? रूप-रंग कौन ही जानता है? बस इतना कि अमृत दोष रहित होता है,जैसे अमृत फल आंवला,जैसे निर्दोष अन्न मूंग, जैसे अमृत सहोदर गौ दुग्ध वैसे ही अमृत सहोदरा राबड़ी। राबड़ी सर्वथा त्रिदोष रहित है क्योंकि वात का शमन बाजरी करती है, पित का शमन छाछ और कफ का शमन सांभरिया लूण। राबड़ी नितांत त्रिफला है। हर मौसम के लिए मुफीद। ठंड है तो बळबळती (गर्मागर्म) राबड़ी और गर्मी है तो ठंडी राबड़ी।
खाने-खजाने वाले राब के कई आकार-प्रकार गिनवाते हैं- मसलन मक्की की राब, जौ की राब, गुड़ की राब इत्यादि-इत्यादि। वैसे इनको कौन समझाए कि मक्की की 'घाट' होती है, जौ का 'गुळीचड़ा' और गुड़ से 'गळवाणी'। इन्हें कोई राब भले ही कह ले पर राबड़ी तो एक ही हुई वह है- बाजरे की। इससे इतर न भूतो न भविष्यति। बिहार में अलबत्ता हुई हैं,उनके चर्चे भी खूब रहे पर राजस्थानी राबड़ी से इनकी क्या समता। हमारी राबड़ी चर्चों से कोसों दूर है।भाषा और संस्कारों की तरह चुप्पे-चुप्पे रक्त में घुलती गई बिना किसी शोर शराबे के।
जैसे धन के तीन नाम- "परस्यो, परसू,परसराम"
तैसे ही-
"तीन रूप की हुई बापड़ी
डुओ, डबको, कूटी राबड़ी।"
'डुआ' उसके हिस्से में आया जिसे राबड़ी नसीब नहीं। समाज का असल बीपीएल वह है जिसकी राबड़ी खाने तक की हैसियत नहीं। 'डुआ' छाछ के अभाव में पानी में आटा घोलकर बनाया जाता है,बिसलेरी की जगह बिलसेरी की तरह।
'डबका' पतली राबड़ी जो छाछ में आटा डालकर इंस्टेंट बना ली जाती है, लापसी की जगह थूली की तरह।
तीसरी हुई असल राबड़ी। राबड़ी का ठरका ही न्यारा है। बिना ठरके और ठरकाए राबड़ी नहीं बनती। पूरा पाकशास्त्रीय स्लो प्रोसीजर। सुबह विचार करो तो शाम तक बनेगी। सोने के चमकते मोतियों सी बाजरी हो और बनाने वाली चतुर नार हो तो राबड़ी क्षीरोदन को भी लजा दे।
ऐसी राबड़ी के लिए बाजरी को हल्के-हल्के पानी के छींटों से भिगोया जाता है,एक निश्चित समय के बाद हल्का-हल्का कूटा जाता है,हल्की कुटाई लकड़ी के मूसल से ही संभव है, लोहे वाला मूसल तो कचूमर निकाल दे।
साबुत और कचूमर के बीच का स्टेज मेंटेन रख पाना इत्ता भी आसान नहीं।यहां सिर्फ छिलके उतारे जाते हैं बाजरी के। तीलियों के फूल जैसे हल्के छाजळे से फटककर छिलके अलग कर दो तो यह पहला चरण संपन्न हुआ 'बालडी़' निकालना।
अब गुळी को कुछ छींटे और मारकर फिर से उंखळ (ओखली) में दबा दो, बाजरी रसीज (रसयुक्त होना) रही है। रसीजी हुई बाजरी पर तीसरे चरण की हल्की चोटें लगती है तो मक्खन-मक्खन हो उठती है।
अब छाछ के साथ मिलाकर राबड़ी को घोलना और भी सतर्कता की मांग करता है। सातत्य टूटा नहीं कि राबड़ी फटी नहीं,आग और हाथ का संतुलन जरूरी। दोनों हल्के हो तो ही काम चलेगा।
मिट्टी की हांडी का जोड़ चाटू से ही होगा,चमचों से हांडी फूटते देर न लगती। चमचों ने अच्छे अच्छों के पेंदे बैठाए हैं, राबड़ी में चमचे का क्या काम?
हमने कहा ना राबड़ी संतुलन का नाम है कूटने और फूटने के बीच का संतुलन, छानने और फटकने के बीच का संतुलन, तपाने और जलाने के बीच का संतुलन, घोलने और घुल्डने की बीच का संतुलन, सीजने और ओझने के बीच का संतुलन।
ऐसी संतुलित राबड़ी दोनों टेम खाने वाला आदमी असंतुलित कैसे होगा?
ऊंट के तबड़के और राबड़ी के सबड़के के बिना रेतीला रजवट रीता है। राबड़ी के सहारे उसने पेट के 'सळ' सीधे और मूंछ के 'बळ' टेढ़े किए हैं।
इसलिए राबड़ी कभी रौब में आकर कह दे कि- "मुझे भी दांतों से खाओ" तो खा लो। अपने बडेरे तो कह गए हैं -
दांत दूखे नी जाबड़ी
धन ए माता राबड़ी।