ऐसे थे राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री : इरादा आश्रम खोलने का था लेकिन मुख्यमंत्री बन गए,नाम से ही नहीं बल्कि काम भी शास्त्री वाला था

इरादा आश्रम खोलने का था लेकिन मुख्यमंत्री बन गए,नाम से ही नहीं बल्कि काम भी शास्त्री वाला था
हीरालाल शास्त्री
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Highlights

  • 24 नवंबर 1899 को जयपुर रियासत के जोबनेर में जन्मे थे हीरालाल शास्त्री
  • स्वतंत्रता सेनानी, प्रतिष्ठित शिक्षक और राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री केवल नाम के ही शास्त्री नही थे
  • जयपुर प्रजामंडल में जमुनालाल जमुनालाल बजाज जी कि जगह शास्त्री जी ने संभाली
  • सरदार पटेल से नजदीकियां शास्त्री जी के लिए परेशानियों का कारण बनी

राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री की आज पुण्यतिथि है. शास्त्री जी का व्यक्तित्व कैसा था ? जानिए इस लेख में...  

24 नवंबर 1899 को जयपुर रियासत के जोबनेर में जन्मे हीरालाल शास्त्री को आखिर कौन नही जानता? स्वतंत्रता सेनानी, प्रतिष्ठित शिक्षक और राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री केवल नाम के ही शास्त्री नही थे.  

उन्होंने बाकायदा संस्कृत में शास्त्री की पढ़ाई पूरी की थी और तब जाकर वे हीरालाल जोशी से हीरालाल शास्त्री बने. शादी के बाद शास्त्री जी का प्लान भी कोई आश्रम बनाकर गांव में ही बस जाने का था लेकिन तब तक जयपुर रियासत का आदेश आ गया और शास्त्री जी अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों के बीच संस्कृत के शिक्षक बनकर अजमेर के मेयो कॉलेज पहुंच गए. जहां रियासतों और ठिकानो के राजकुमार तालीम लेने आते थे. 

जयपुर राजघराने ने पहचान ली शास्त्री जी की प्रतिभा

पढ़ने पढ़ाने में शास्त्री जी का मन खूब लग रहा था. लेकिन जमनालाल बजाज ने उन्हें प्रजामंडल का सचिव बनाकर दूसरा खेल कर दिया. जब 1942 में जमनालाल बजाज का निधन हो गया तो शास्त्री जी जयपुर प्रजामंडल के सर्वेसर्वा बन गए और तब तक शास्त्री जी का भी सियासत में मन लगने लगा था. 

पढ़ाई में बचपन से ही तेज शास्त्री जी व्यक्तित्व के भी जोरदार आदमी थे. पढ़ाई में जब उन्होंने पूरा जयपुर स्टेट ही टॉप कर दिया तो इस होनहार बालक पर  जयपुर राजघराने कि नजर पड गई. संस्कृत पर तो जोरदार पकड़ थी ही अंग्रेजी में भी कोई ज्यादा हाथ तंग नही था. फिर मेयो जैसी जगह पर पढ़ाना भी उन दिनों रुतबे वाला काम हुआ करता था.

 इन सब वजहों से धीरे - धीरे शास्त्री जी ने अपनी एक अलग पहचान तो बना ही ली थी फिर प्रजामंडल आंदोलन में बजाज जी के दिन पूरे हो चुके थे. दूसरा ऐसा कोई नेता नही था जो शास्त्री जी के कद का हो. जयपुर प्रजामंडल में जब बजाज जी की जगह शास्त्री जी ने संभाली तो गांधी के करीब होने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा. जब गांधी जी से शास्त्री जी कि नजदीकियां बढ़ी तो नेहरू और पटेल भी कोई ज्यादा दूर नहीं थे.

प्रजामंडल आंदोलन के दौरान ऐसे अनेक मौके आए जब शास्त्री जी पटेल को भा गए और पटेल ने जब मौका मिला तब शास्त्री जी की तरफदारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पटेल से ये ही नजदीकियां बाद में शास्त्री जी के लिए परेशानियों का कारण भी बनी.

पटेल और नेहरू की खेमेबाजी में शास्त्री जी भी फंस गए 

 यहां उस घटना की भी बात करेंगे जो उन दिनों पूरे देशभर में बहुत ज्यादा सुर्खियों में रही.आजादी के बाद जब राजस्थान का गठन हो रहा था तो सरदार वल्लभ भाई पटेल राजस्थान में बड़ी भूमिका में आ गए. 30 मार्च 1949 को जब राजस्थान का गठन हुआ तो सरदार पटेल ने बिना किसी नाम पर विचार किए हीरालाल शास्त्री को ही आगे कर दिया और इस तरह हीरालाल शास्त्री राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री बने.

लेकिन जिस घटना की हम बात कर रहे है वह और भी मजेदार है. जब राजस्थान के गठन के उपलक्ष्य में जयपुर के बड़ा कार्यक्रम आयोजित हुआ तो शास्त्री जी राजस्थान सहित दिल्ली के कांग्रेसी नेताओ की आंखों में किरकिरी बन गए. कारण था कि उस कार्यक्रम में मंच पर तीन पंक्तियां थी. शुरू की पहली पंक्ति में राजघरानों के लोगो के साथ खुद शास्त्री जी बैठे, दूसरी पंक्ति में अधिकारियों को जगह दी गई और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को तीसरी पंक्ति यानी कि सबसे पीछे धकेल दिया.

 इस बात को लेकर कांग्रेस में बहुत बड़ा बवाल हो गया. कांग्रेस के दूसरे बडे नेता जयनारायण व्यास सहित माणिक्य लाल वर्मा जैसे लोगो ने शास्त्री जी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.  इस घटना से पहले ही शास्त्री जी पर पटेल के करीबी होने की छाप लग चुकी थी.  जब दिल्ली में पटेल और नेहरू के खेमे में कांग्रेस बंटी थी तो राजस्थान में भी इस घटना ने कांग्रेस को पटेल और नेहरू खेमे में बांट कर रख दिया.

शास्त्री जी के आगे नेहरू खेमा भी गच्चा खा गया 

राजस्थान में कांग्रेसियों की ये खेमेबाजी तब और ज्यादा उभर कर बाहर आ गई जब 1950 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए. दिल्ली से दो नाम थे.एक थे जेबी कृपलानी जिनके नाम पर नेहरू की मुहर थी दूसरी तरफ पुरुषोत्तम दास टंडन थे जो कि पटेल के उम्मीदवार थे. टंडन के लिए राजस्थान में शास्त्री जी ने मोर्चा संभाल रखा था तो दूसरी तरफ जयनारायण व्यास और माणिक्य लाल वर्मा कृपलानी के साथ गए. टंडन ने अध्यक्ष का चुनाव जीत लिया और दिल्ली मे नेहरू तो राजस्थान में व्यास - वर्मा कैंप की चौकड़ी चित्त हो गई.

ये वो दिन थे जब राजस्थान में सत्ता हो या संगठन दोनो जगह शास्त्री जी के तारे बुलंदी पर हुआ करते थे लेकिन जल्दी ही तारो की दिशा तब बदल गई जब 15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल का निधन हो गया. पटेल के निधन के बाद दिल्ली में ऐसा कोई नही था जो शास्त्री जी की तरफदारी करता फिर नेहरू भी अब तक कांग्रेस पर अपनी पकड़ पूरी तरह से मजबूत बनाने के लिए पटेल खेमे के नेताओ को ठंडे बस्ते में डालने कि ठान चुके थे.

दिल्ली में पटेल कि गैर मौजूदगी ने व्यास और वर्मा कैंप को ज्यादा आजाद कर दिया. कांग्रेस में बदलते हालातो के बीच शास्त्री जी को भी समझ आ गया की इन हालातो में वे ज्यादा दिन तक कांग्रेस में कदमताल नही कर पाएंगे और आखिर में 3 जनवरी 1951 को शास्त्री जी ने अचानक मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा दे दिया. 

राजनीति का चोला उतार कर शास्त्री जी उसी राह पर निकल पड़े जो उन्होंने शादी के बाद सोची थी. वे अपने द्वारा स्थापित शांता बाई शिक्षा कुटीर चले गए, जिसे आज हम वनस्थली विद्यापीठ के नाम से जानते है.

28 दिसंबर 1974 को राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री का निधन हो गया. ताज्जुब की बात है कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिए जाने के बाद  शास्त्री जी 23 साल तक जीवित रहे लेकिन इन 23 सालो में शास्त्री जी जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता को राजस्थान कांग्रेस में लगातार हाशिए पर ही रखा.

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