नीलू की कलम से: काळ से रूबरू होते राजस्थान का 'काळजा' हैं ये फूल

काळ से रूबरू होते राजस्थान का 'काळजा' हैं ये फूल
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एक और चीज जिसमें हमने फूल को जिंदा रखा वह है-'फूल्या'। वही फूल्या जो ज्वार और मक्की को तिड़काकर  बनाए जाते हैं। वही फूल्या जिसे मॉल और सिनेमा हॉल वाले मुठ्ठी भर के ठूंगे में भरकर सौ-पचास की चपत लगा देते हैं।

पश्चिमी राजस्थान के लोगों की किस्मत करतार ने फूल-बगीचे में न लिखी। इनके लिए जिस योग की जरूरत है वह राजयोग राजा-महाराजा और उनके कामदार सेठ-साहुकारों ने लिखवा लिया।

अब आम आदमी बेचारा फूल देखने जाए तो कहां जाए? फूलों के नाम पर हमारे पास ले-देकर एक ही रूंख था- रोहिड़ा।

क्या तो कसूमल पुष्प खिलते हैं रोहिड़े पर। नंदन-कानन कभी बने तो रोहिड़े से बने। पूरा का पूरा फूलों का झाड़। होली के आसपास तो झूलने लगता है फूलों से।

 कोसों-कोस तक फैली रोही में रोहिड़ा ही सुकून देता है आंखों को। किंतु हम अभागों को कोई खूबसूरत-सा नाम तक न मिला इस कल्पतरू को लज्जित कर देने वाले वृक्ष के लिए। रोही जैसा ही नाम रख दिया- रोहिड़ा। ठीक वैसे ही जैसे 'नीलगाय' जैसे कमसिन नाम वाले जीव को हमने कहा- 'रोजड़ा'।

अब नाम 'खरुंटला' रखा तो अर्थबोध भी खरुंटला हो चला। निरा बेकार और ठूंठ आदमी को 'रोही के रोजडे़' की उपमा से अलंकृत किया गया तो 'रूप रोवड़ो गुण बायरो' कहकर रोहिडे़ का अपमान किया।

रोजडे़ ने तो नहीं पर रोहिड़े ने इस विशेषण को इतना दिल पर लिया कि 'सवा पहर के पीहर' की तरह अपनी लीला समेट ली। अब लाओ गुण वाले फूल कहीं से! खेजड़ी की मिंझर और नीम की निमझर से ही भोळे बंदाओ।

यह तो भला हो बेचारे आकड़े का जिसने नाडियों में उगकर भी 'फूल' नाम को जिंदा रखा। लेकिन आकड़े पर फिर वही 'जहर' वाली तोहमत! इंसान नाडियां खा गया और नाडी ने खाया आक। इंसान को चेता बापरा तब तक सब खत्म। फूल का नाम डूब गया।

मारवाड़ी आदमी! सब डूब जाए पर नाम न डूबे। नाम डूबा नहीं कि नाक कटा नहीं। अपना नाम रखा फूलाराम, घरवाली का फूली देवी और टाबर का नाम फूल्यो।
एक और चीज जिसमें हमने फूल को जिंदा रखा वह है-'फूल्या'। व

ही फूल्या जो ज्वार और मक्की को तिड़काकर  बनाए जाते हैं। वही फूल्या जिसे मॉल और सिनेमा हॉल वाले मुठ्ठी भर के ठूंगे में भरकर सौ-पचास की चपत लगा देते हैं।

सबके यहां वसंत में फूल आते हैं और हमारे यहां फूल्या। सबकी होली फूल से, हमारी फूल्यों से। तकनीक की बलिहारी है अन्यथा राखी के बाद पानी वाला नारियल,शिवरात्रि के बाद गाजर-बोर और होली के बाद फूल्या नहीं मिलता।

फूल्या लाने का आधिकारिक लाइसेंस बुआ के पास है। बुआ फूल्या लाई तो होली आई।

होळी आई रे फूल्यां की झोळी झिरमटियो घले
ए तो कांख में सोना को चटियो
हाथ में रूपां री दड़ियां झिरमटियो घले

बुआ आई तो सोने का चटिया और रूपों की दड़ियां लाई। माल दड़ी का किट। चांद निकला नहीं कि दड़ी का खेल शुरू।

ओ कुण खेले ए! केसरिया बागां झिरमटियो घले
ओ तो फूल्यो बीरो खेले ए! कोई झिरमटियो घले

चार पंक्तियों के मुखड़े में बीरों के नाम जोड़ते जाओ और आगे से आगे गाते जाओ। गीत का क्या बड़ा, गोत बड़ा! गोत की गाळ कड़ुमे लगती है तो गोत के बधावे भी कड़ुमे लगते है। किसी जीवित व्यक्ति का नाम गीत में लेना भूल जाओ तो जुलम हो जाए! घोर अपशगुन। गीत से टाला? अपनों के घड़ी-घड़ी के सूण किए जाते हैं। जिसके आगें पीछे कोई न हो उसे न गीत में गाया जाए न रोज में रोया जाए।

वैसे कई बार ऐसा लगता है कि होली नागर न होकर नितांत गामड़ त्योहार है। जोर-जोर से गाना, उलट-पुलट कर नाचना और बेतरतीब दौड़-भाग से भूतही शक्लों तक की हद तक पहुंच जाना नागर कैसे कर पाता होगा?  नागर क्या जाने 'गींदड़ घालना'! नगर-नवेलियां क्या जाने होली पर हाथ उठा-उठाकर 'करैला' गाना?

करैला रे कोई डूंगर थापूं थेपड़ी
करैला रे कोई गोबर गुड़-गुड़ जाय
करैला पीवर प्यारो लागे ...

होली भाई-बहन के प्रेम का त्योहार है। होलिका कैसी भी रही हो,अपने भाई के लिए दहकती अग्नि में सहर्ष प्रवेश कर गई। बहनों को भाई से प्यारा और कौन होगा। पति तो नहीं ही, माता-पिता भी नहीं क्योंकि 'अमर पीहर तो भाई-भौजाई' से है। भाई की बेल सदा हरी रहे इसलिए कभी अंगूठे में धागा बांधकर बीरा की बेल बढ़ाती है,कभी मेहंदी की लंबी रेखाओं से बीरा की बेल मांडती है तो कभी बड़कूलों की 'माथाठेक' माला से भाई का दीर्घायुष्य जोड़ती है। 

अब बेल है तो फूल तो होगा ही। बेल और फूल स्त्री से छोड़े न छूटते। और नहीं तो गोबर को ही फूल के सांचे में ढाला। डूंकळी और फळकटी के जड़ाव जड़ने के बाद बड़कूले वह आकृति इतनी आकर्षक बनी कि सुनार ने उसे सोने का टिकड़ा बनाकर ललना के हाथ पर सजाया और नाम रखा- हथफूल।

वही फूल कलियुग की तरह सोने में प्रविष्ट होकर सिर बैठा तो कहलाया- शीश फूल। सिर चढ़े को कौन मिटाए। फूल को हमने मिटने न दिया मगर असल फूल की तलाश जारी रही।

होली तो 'बड़कूलों की माला' से मान गई पर गवर को थोड़े बड़कूले चढ़ा सकते हैं। फिर गवर ने 'जिस्या थारा गीत बिसी म्हारी घूघरी' कहते हुए बड़कुले जैसा 'बनड़ा' दे दिया तो? किंतु फूल लाएं तो लाएं कहां से? आकड़े ने कहा-"बाई मैं तो हूं जिस्यो हाजर हूं।"

कन्याओं ने मुंह बिचकाया- "तू भोले-भंडारी को रिझा सकता है, गवर को नहीं।" 

फोग से सोना गलाते सुनार ने फोग का पता दिया। फोग एकदम फूला हुआ। नई-नई कोंपल और चिटली अंगुली के नाखून से भी नन्हे फूलों से लुडा हुआ। कन्या फोग पर और गवर कन्या पर प्रसन्न हुई और फोग जैसे ही वर दिए- डीगे-गोरे-पातळे, वीर-धीर-गंभीर।

रोहिड़े के राते चट फूलों की गैर मौजूदगी में फोग अपनी 'फूल सारू पांखड़ी' लेकर हाजिर हुआ था किंतु तभी आया पानी। पानी के साथ हिंदी और हिंदी के साथ बगनबेल, गुड़हल और गुलदाऊदी। अब फोग को कौन पूछे?  

रोहिड़े की तरह फोग भी हमारी बेकद्री का शिकार हुआ। फोग की हम शकल तक भूल गए वहीं एक ही गमले में दस-दस रंगों वाली गुलदाउदी सब देवों की तरह गवर पर भी चढ़ने लगी। गवर ने इसे गंभीरता से लिया और वैसे ही पति सप्लाई करने शुरू किए। अब एक पति की आंखों में दस-दस रंग के डोरे! कन्या और कन्याओं के घरवाले हतप्रभ! रोहिड़ा अफसोस करे और फोग कहे-

कुवे पटक्यो रोहिड़ो धेड़े पटक्यो फोग।
सकटा हूगा देवता नकटा भगतां जोग।।
- नीलू शेखावत

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