नीलू की कलम से: गुम्पा

गुम्पा
gumpa
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Highlights

किसी भी चीज को करीब से देखे बगैर पूर्वग्रह पालना ठीक तो नहीं। फिर यहां का धर्म न शुद्ध बोन रहा, न शुद्ध बौद्ध है और न ही खाली वज्रयान। यहां यह सबका मिश्रण बनकर लोक रंग में रंगा हुआ है फिर खूबसूरत तो होना ही है।

राहुल जी व  तिब्बती धर्म पर लिखने वाले अन्य विद्वान शांतरक्षित को पद्मसंभव के गुरू और तिब्बत में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में अंकित करते हैं किंतु स्थानीय मान्यतानुसार वह भी इनके प्रशंसक थे। क्या 'ॐ मणि पद्मे हुंम्' इन्हीं के नाम का जप है? मैं नहीं जानती।

आसाम की ओर से अरुणाचल के प्रवेश द्वार से ही आपको बौद्ध धर्म की सुगंध आने लगती है। ऊंचाई पर फरफराती रंगीन झंडियां बरबस आपका ध्यान खींचती हैं। कहते हैं बौद्ध धर्म में इन रंगीन झंडियों का विशेष महत्त्व है। कुछ लोग इन्हें पंचशील का प्रतीक मानते हैं तो कुछ पंचतत्त्वों का।

अरुणाचल में इन्हें दारचो(क)  कहा जाता है जिन पर बौद्ध धर्म के पवित्र मंत्र लिखे होते हैं। ऊंचाई पर टांगने का मंतव्य यही कि इन मंत्रों को छूकर जितनी दूर तक हवा जाती है उतनी दूर तक का वातावरण पवित्र हो जाता है। धर्म के हृदय की विशालता देखिए!

दूसरे प्रकार की धम्म ध्वजा (शायद लुंगदर कहते हैं) वह होती है जो किसी ऊंचे स्तंभ पर फहराई जाती है। मंत्रों का अंकन इस पर भी होता है किंतु इसकी स्थापना किसी मठ आदि विशेष स्थान पर ही होती है और वर्ष में एक बार किसी विशेष दिन पर (विशेष रूप से नववर्ष लोसार पर) इन्हें बदला जाता है। पुराने हो चुके ध्वज का कपड़ा मिलना भी किसी सौभाग्य से कम नहीं।

स्कूली पढ़ाई पढ़ने वाले हम सबने बौद्ध धर्म के बारे में न्यूनाधिक जानकारी तो प्राप्त की ही है किंतु अरुणाचल का बौद्ध धर्म कुछ अर्थों में विशिष्ट है। यहां के धर्म में स्थानीयता का योग इसे अनूठा बनाता है। वस्तुतः यहां तिब्बती बौद्ध धर्म की मान्यता है जिसमें देवी, देवता, भूत, पिशाच, तंत्र मंत्र और अवतारवाद में गहन आस्था मिलती है।

यहां के गुम्पा में कांच के वीआईपी  लॉज में पानी के फव्वारों के साथ झेन म्यूजिक सुनने वाले बुद्ध कम ही (नहींवत) मिलते हैं। सुनहरे धातुओं की मुकुट आभूषणों से युक्त विशाल मूर्तियां  किताबी ज्ञानियों को विस्मित कर देती हैं, यद्यपि इस धर्म के अध्येताओं के लिए इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं। सेस्सा से कुछ ऊंचाई पर जाते समय मार्ग में एक छोटे से गुम्पा ने हमारा ध्यान आकर्षित किया।

पीली झालर और स्वर्ण मंडित कलश वाले इस पीताभ मंदिर में पहली बार मैं बौद्ध धर्म से रूबरू होती हूं। मैं जिस मंदिर में बुद्ध की प्रतिमा होने की अपेक्षा करती हूं वहां कोई और मूर्ति है। पद्म पर विराजित छोटे छोटे नयन नक्श और पतली छोटी मूंछों वाले, ठीक स्थानीय लोगों की मुखाकृति धारण किए, मुकुट व त्रिशूलधारी देवता बुद्ध नहीं, बुद्ध  के अवतार हैं।

ओह ! यही पद्मसंभव हैं। तिब्बत में वज्रयान के प्रसारक (स्थानीय मान्यतानुसार प्रवर्तक) पद्मसंभव को महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी ने भले ही साधारण भिक्षु कहकर किनारे कर दिया हो किंतु यहां के अधिकांश मंदिरों में यह बड़े ही ठरके से त्रिशूल कांधे पर धारे पूजित होते मिलेंगे।

दरअसल गुरु पद्मसंभव  को तिब्बत में तिब्बती बौद्ध धर्म के संस्थापको में से एक माना जाता है, जो आठवीं सदी में भारत से तिब्बत गए थे। एक मान्यतानुसार पद्मसंभव के बारे में बुद्ध शाक्य मुनि की भविष्यवाणी कहती है-

“हे मेरे  शिष्य आनंद ! मेरे जाने के बारह साल बाद, (जिसे बारह सौ साल माना गया) एक व्यक्ति जो मुझसे कहीं अधिक श्रेष्ठ होगा, जो कि संसार का भगवान होगा, उसका नाम पद्मसंभव होगा।"

मान्यता के अनुसार, बुद्ध अमिताभ ने चक्रवर्ती  राजा इंद्रभूति को अपने पिता के रूप में चुना क्योंकि वे धर्म और प्रजा के पालक थे। राजा का कोई उत्तराधिकारी नहीं था, इसलिए राजा दिन-रात दान करते जिससे उसका पूरा खजाना खाली हो गया। दुबारा धन अर्जन  के लिए वह नाग रानी से मिलने के लिए समुद्र में नाग द्वीप  गए और इच्छाधारी  मणि का वर मांगा।

राजा की कहानी सुनकर नाग रानी को दया आ गई और उसने अपना सबसे कीमती मणिरत्न उन्हें दे दिया। जब वह महल लौट रहे थे, तभी उन्हें  एक झील में लगभग आठ साल का एक अद्भुत बालक एक बहुरंगी कमल के भीतर बैठा मिला।

आश्चर्यजनक रूप से, बच्चा एक परिपक्व व्यक्ति की तरह बात करता है। राजा ने इस दिव्य बालक के साथ बातचीत के बाद, उसे अपना उत्तराधिकारी बनने का निवेदन किया, जिसे बालक ने स्वीकार कर लिया।

 इस प्रकार "माँ के गर्भ की अशुद्धता से अछूते, भगवान ने कमल से जन्म लिया।" 
मां के गर्भ से विरक्ति ने ही तिब्बत को एक समय में भिक्षुओं से भर दिया होगा। खैर!

बालक से युवक बने पद्मसंभव ने सोचा- राजा बनकर  मानव जाति का आध्यात्मिक कल्याण संभव नहीं  इसलिए संन्यासी बनकर महल से बाहर निकलने के लिए वह हाथ में एक त्रिशूल लेकर महल की छत पर एक रहस्यात्मक नृत्य करते हैं। इसी दौरान अनायास उस त्रिशूल से किसी की मृत्यु हो जाती है  जिसके कारण न्यायप्रिय पिता द्वारा उन्हें देश निकाला मिलता है। इसके बाद पद्मसंभव ने रहस्यवादी साधनाएं कीं। मृतक के कपड़ों और भोजन पर अपना जीवन व्यतीत किया और अपनी आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाया। उन्होंने भारत के विभिन्न पवित्र स्थानों में रहने वाले विभिन्न बौद्ध तांत्रिको से  तंत्र का ज्ञान प्राप्त किया और बाद में इस साधना का अभ्यास करने के लिए अपने प्रमुख तिब्बती शिष्यों को भी यहां भेजा। 
हिमाचल प्रदेश में स्थित रिवालसर झील उन्हीं की स्मृति है।

राहुल जी व  तिब्बती धर्म पर लिखने वाले अन्य विद्वान शांतरक्षित को पद्मसंभव के गुरू और तिब्बत में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में अंकित करते हैं किंतु स्थानीय मान्यतानुसार वह भी इनके प्रशंसक थे। क्या 'ॐ मणि पद्मे हुंम्' इन्हीं के नाम का जप है? मैं नहीं जानती।

पद्मसंभव के अतिरिक्त इन गुम्पाओं में शिव है, लक्ष्मी है, सरस्वती है किंतु उनका स्वरूप नितांत बौद्ध है। यहां देवी-देवताओं के इतने विग्रह और प्रतीक विराजमान हैं कि जितने करोड़ों देवों की बात करने वाले हिंदू धर्म के मंदिरों में भी नहीं मिलते। इन्हें शायद मंडल कहा जाता है जिनके चित्रण की एक विशिष्ट शैली है जिसे थांगा पेंटिंग्स के नाम से जाना जाता है। जानकर इसका उद्गम नालंदा से मानते हैं।

मंदिर के मुख्य विग्रह के बाजू में स्वाध्याय हेतु कई सारी डेस्क और गद्दीदार आसन क्रम से लगे हुए हैं और उन पर पांडुलिपि जैसे बिना बाइंड किए ग्रंथ जिनकी लिपि शायद तिब्बती है, रखे हुए हैं। सभी डेस्कों पर चमकीले पारचे के कपड़ों का कवर!

मैंने इस कपड़े का उपयोग गुम्पा के अतिरिक्त यहां किसी भी स्त्री पुरुष को करते हुए नहीं देखा जबकि राजस्थान में तो स्त्रियों ने पारचे का घाघरा पहन पहनकर इसे आउट ऑफ फैशन कर दिया है।

सब कुछ इतना शांत और व्यवस्थित मानो किसी प्राचीन ऋषि आश्रम की जीवंत व्याख्या हो। जिस वज्रयान को हमने किताबों में वाममार्गी और न जाने क्या क्या कहकर कोसते हुए पढ़ा उसका इतना सौम्य और सम्मानित रूप आपको विस्मित किए बिना न रहेगा।

किसी भी चीज को करीब से देखे बगैर पूर्वग्रह पालना ठीक तो नहीं। फिर यहां का धर्म न शुद्ध बोन रहा, न शुद्ध बौद्ध है और न ही खाली वज्रयान। यहां यह सबका मिश्रण बनकर लोक रंग में रंगा हुआ है फिर खूबसूरत तो होना ही है।

इन गुम्पाओं की चित्रकारी के तो क्या कहने! सुदूर पहाड़ी और वन्य स्थानों में भी कला के सौंदर्य को कितना संजोया होगा (लोक)धर्म ने।

पृष्ठ भाग में गुम्पा से जुड़े हुए ही तीन-चार कक्ष जो अपनी प्रकृति से किन्हीं एकांतसेवियों का निवास लग रहे थे। प्रत्येक के दरवाजे पर पैचवर्क और कशीदेकारी के परदे राजस्थान की याद दिलाते हैं। पूर्व और पश्चिम में कितना कुछ एक जैसा है। सचमुच कला की कोई सरहद नहीं होती।

गुम्पा में गोल पत्थर के कुछ शिला लेख भी दिखे जिन पर तिब्बती भाषा में कुछ उत्कीर्णित था, शायद मंत्रादि हों। वहीं पर पानी से भरी प्लास्टिक की कुछ बोतलें भी रखी थीं। अभिमंत्रित जल हो सकता है इनमें। अरूणाचल के प्रत्येक घर मंदिर की तरह यहां भी दलाई लामा की तस्वीर विराजित की गई है। 'दलाई' लिखते हुए मुझे एक बात याद आई है।

दरअसल जिसे हम 'दलाई' उच्चारित करते हैं वह शब्द वास्तव में 'त-ले' है जो मंगोल लोगों की देन है। मंगोली भाषा में 'त ले' का अर्थ 'सागर' होता है। पहले को छोड़कर बाकी सभी अवतारी लामाओं के नाम के अंत में 'र्ग्य-म्छो' नाम लगता है जो सागर का ही पर्याय है। इसीलिए मंगोलों ने 'त ले लामा' कहना शुरू किया जो घिंसते बढ़ते 'दलाई लामा' बन पड़ा।

 मैंने राहुल सांकृत्यायन जी की 'तिब्बत में बौद्ध धर्म' पुस्तक पढ़ी है। आज फिर से पढ़ रही हूं। मुझे इस धर्म के बारे में और अधिक जानना है। तवांग जाने की इच्छा बलवती हो रही है किन्तु इस बार तो संभव नहीं। सबसे बड़े तिब्बती बौद्ध केंद्र (मठ) के नाक के नीचे से वापस लौटना अखर रहा है। ईश्वर ने चाहा तो फिर आऊंगी।

- नीलू शेखावत

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