मिथिलेश के मन से: इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?

इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?
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दरवाजा खुल चुका है। हम सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। अरुण जी का कमरा बदल गया है। अब वह ऊपर के फ्लोर पर रहते हैं। उनकी गर्दन में तौलिया लिपटा है। उन्हें खाना खिलाया जा रहा है। हम तीनों को  देख उनकी आंखें चमकती हैं, फिर सन्नाटा। कुछ सोच रहे हैं शायद।  अरुण रंजन जैसा पत्रकार इस तकलीफदेह बीमारी में भला क्या सोचेगा? क्या सोच सकता है? वह सोच रहा होगा:इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये....

यह त्रिशूल अपार्टमेंट है। कौशाम्बी ( गाजियाबाद) का त्रिशूल अपार्टमेंट।  अब त्रिशूल पर काहे की माथापच्ची कर रहे हैं आप? काहे को चौंक रहे हैं आप? काहे को पूछना चाह रहे कि यह त्रिशूल नाम किसने रखा और क्यों रखा होगा, वह भी किसी अपार्टमेंट का?

अरे भाई! यह नाम किसी कोलंबस या वास्कोडिगामा की खोज नहीं है। किसी म्लेच्छ, किसी अनार्य के दिमाग की उपज हो ही नहीं सकता ऐसा कोई आत्मरक्षक नाम। अब देखिए और इस नाम की महिमा को यहां से समझिए कि त्रिशूल है तो दस्तार है। त्रिशूल है तो अमन- अमान है। इज्जत- मरजाद है।  त्रिशूल है तो परिंदे हैं, खुशबू है, हवाएं हैं। त्रिशूल है तो सगरो बसंत है। है कि नहीं?

रंजन ( रंजन कुमार सिंह, नभाटा पटना के दिनों का हमारा दोस्त) इसी अपार्टमेंट में रहता है। ग्यारहवें या तेरहवें फ्लोर पर। याद नहीं आता ठीकठीक लेकिन रहता यहीं है- यह बात पक्की है। तय हुआ था कि हम कौशाम्बी मेट्रो स्टेशन पर उतरेंगे। वहां व्योमेश जुगरान हमारी राह तक रहा होगा। मेट्रो स्टेशन से बमुश्किल पांच सौ मीटर के फासले पर है त्रिशूल अपार्टमेंट।

एक कट छोड़ो, दूसरे कट से घुसते ही तीसरा या चौथा गेट। हुआ भी यही। हम पहुंच तो गये लेकिन कोई ऐसा ठोस आदमी नहीं मिला जो बता सके कि रंजन के फ्लैट तक पहुंचने के लिए हमें किस राह, किस गेट, किस लिफ्ट की शरण गहनी पड़ेगी। हर किसी के पास रेडीमेड जवाब: 'पीछे से जाइए, आप आगे चले आये।' आगा- पीछा करने में कितना खून सूख रहा है इस बेपनाह ठंड में- यह रंजन को भला क्या पता। हम गालियां बक रहे हैं। हम अपनी मूर्खता पर हंस रहे हैं। हम त्रिशूल को प्रणाम कर रहे हैं। हम बतिया रहे हैं:

'जानते हो व्योमेश भाई, बनारस में एक शहर कोतवाल हुआ करते हैं। युग बीत गये। राजे- महराजे, आईजी, डीआई जी, मंत्री और सरकारें आयीं-- गयीं लेकिन उनकी कोतवाली कायम रही।  बनारस और आसपास के सैकड़ों योजन भूक्षेत्र में उनका जलवा जलाल है। आप उनकी मर्जी के बगैर बनारस में दाखिल  हो ही नहीं सकते।

जानते हो उनका नाम क्या है? नाम है- कालभैरव। सदाबहार कोतवाल।  देवता हैं देवता। आदमी समझने की गलती मत करना। कोतवाल वैसे भी आदमी ज़रा कम ही होता है।

-आंय।

- आंय बांय नहीं। हकीकत है। मान जाओ तो ठीक वरना उन्हें मनवाने का भी हुनर आता है। निकल पड़ेंगे उनके दीवाने तुम्हारी टोह में त्रिशूल लिये।

-कहीं रंजन का यह त्रिशूल अपार्टमेंट भी उसी अगियाबैताल कालभैरव से निर्देशित तो नहीं है?

 -लेकिन हम तो प्लान बना कर चले थे साथी। 

-चले तो थे लेकिन पूछा था कि हम आना चाहते हैं? घुस जाओगे किसी के घर में बिना पूछे?

- लेकिन रंजन से बात तो हुई थी।

- रंजन कोतवाल थोड़ी हैं।

रंजन, रंजन भाई। हो कहां?

तभी एक नीम अंधेरे गलियारे से कोई नमूदार होता है। काला ओवरकोट डटाए। कोहरे में पहचान पाना मुश्किल। लेकिन आवाज़ उसी की है। आ गया रंजन। बच गये हम उस कुतुब मीनार पर चढ़ने से।

गाड़ी सरपट दौड़ रही है। हम रास्ते में। आधे घंटे बाद हम सेक्टर 26, नोएडा में होंगे जहां अरुण रंजन से हमारी मुलाकात होनी है। अपने समय के प्रतापी पत्रकार जिन्होंने बिहार में नरसंहार देखे, जातीय उभार देखे, नक्सलवाद का चरम देखा, सरकारों और दुरभि संधियों को बनते बिगड़ते देखा, गंगा की लहरों को जिन्होंने पनडुब्बियों में बदलते देखा। सिर्फ देखा नहीं, कैमरे जैसी आंख से देखा... और जैसा देखा, हूबहू वैसा ही लीप नहीं दिया अपनी रिपोर्ट में। उस देखे में एक मानवीय महाकरुणा थी। बिहार की पत्रकारिता, सातवें- आठवें दशक की हिन्दी पत्रकारिता में अरुण रंजन होने का मतलब सिर्फ एक रिपोर्टर होना नहीं है। यह नाम आग का भी है, बारूद का भी और छलछल बहती उस मोहब्बत का भी जिसे सहेजने की चिंता उनके पूर्ववर्तियों में बहुत कम थी।

'भिगोया, धोया और हो गया'  की जकड़न से बिहार की पत्रकारिता को आजाद कराने की मुक्तिकामना जब तक बची रहेगी, आप अरुण रंजन को नकार नहीं सकते- असहमति चाहे जितनी भी हो।

 तो हम भाग रहे हैं। लो, आ भी गये। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुलेगा। थोड़ी देर में हम नमूदार होंगे। थोड़ी देर में अरुण जी से मुखातिब होंगे। उनसे सुनेंगे दुनिया- जहान के किस्से। समझेंगे कि बिहार में उस दौर की और उनके पहले की पत्रकारिता की रंगत क्या थी? टुकड़ों टुकड़ों में ही सही।

दरवाजा खुल चुका है। हम सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। अरुण जी का कमरा बदल गया है। अब वह ऊपर के फ्लोर पर रहते हैं। उनकी गर्दन में तौलिया लिपटा है। उन्हें खाना खिलाया जा रहा है। हम तीनों को  देख उनकी आंखें चमकती हैं, फिर सन्नाटा। कुछ सोच रहे हैं शायद।  अरुण रंजन जैसा पत्रकार इस तकलीफदेह बीमारी में भला क्या सोचेगा? क्या सोच सकता है? वह सोच रहा होगा:इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये....

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