नीलू की कलम से: ऐसे बना रामकृष्ण मिशन का पहला मठ

ऐसे बना रामकृष्ण मिशन का पहला मठ
खेतड़ी महाराजा अजीतसिंह और ​स्वामी विवेकानंद
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Highlights

दरबार के पंडित-सभासद  जिन महलों में किसी संन्यासी के निवास करने को लेकर सदैव सशंकित रहे उन्हीं राजमहलों को राजा ने हमेशा के लिए उस संन्यासी को  समर्पित कर दिया

राजस्थली हमेशा के लिए तपस्थली बन गई और यह मित्रता का स्मारक राजस्थान के प्रथम 'रामकृष्ण मिशन' मठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ

स्वामीजी के खेतड़ी आगमन पर नगरवासियों ने अपने पलक-पावड़े बिछा दिए,राजा संग प्रजा ने बारह मील पैदल चलकर स्वामीजी की अगवानी की

नगर में चालीस मण घी के दीप जलाए गए और सामूहिक भोज का आयोजन किया गया।

Jaipur | उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में भारत में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना की सुगबुगाहट आरंभ हो चुकी थी। इसके बीजांकुरों का प्रस्फुटन एक गैरिक वस्त्रधारी में भी हो रहा था किंतु उसे एक अनुकूल परिस्थिति और वातावरण की सर्वथा आवश्यकता थी।

इसी की तलाश में विचामग्न यह गैरिकवसन युवक बंगाल से चलकर भारत भर के अन्यान्य स्थलों का भ्रमण करता हुआ राजस्थान की भूमि में पदार्पण करता है।

परिचय के नाम पर निज वेश और संसाधन के नाम पर एक कमंडल किंतु स्वाध्याय और साधना से तपोपूत मुखमंडल तथा वाग्मितायुक्त आभामंडल जन समूह से कब तक छिपा रहता। जो भी उन्हें देखता और सुनता,दंग रह जाता। गुलाम भारत के किसी युवक में इतना आत्मविश्वास!

आखिर एक दिन शेखावाटी के एक राज्याधिकारी की नजर संन्यासी पर जा पड़ी। इनका नाम था मुंशी जगमोहन और वह खेतड़ी की रियासत में दीवान थे। शासकों की भाषा और जीवन शैली को सदैव सम्मान मिलता रहा है।

गुलामी के दिनों में जहां संपन्न घर का व्यक्ति भी अंग्रेजी से कोसों दूर हो वहां एक गैरिक वसन संन्यासी अंग्रेजी में धाराप्रवाह संवाद करता हो तो दीवान साहब का हतप्रभ होना स्वाभाविक था।

दीवान साहब खेतड़ी नरेश के साथ उनकी ग्रीष्म प्रवासीय सेवा में माउंट आबू आए हुए थे और उक्त संन्यासी भी आबू की गुफाओं में साधना करने पधारे थे।

दीवान साहब ने संन्यासी के आत्मविश्वास पूर्ण वाग्वैभव की  यथावत  कहानी नरेश को सुनाई।

 युवा नरेश महाराज अजीत सिंह शेखावत स्वयं स्वाधायशील एवं विद्वान व्यक्तित्व थे।

युवा संन्यासी से मिलने को उतावले हो चले। दो श्रीसंपन्न व्यक्तित्व का सम्मिलन,पूरब और पश्चिम का मिलन,राज्यश्री और ज्ञानश्री की संधि।

संन्यासी के उत्तुंग लक्ष्य को इसी संधिवेला की प्रतीक्षा थी। अब जो होना था,अभूतपूर्व होना था। युवा संन्यासी को अपनी आध्यात्मिक यात्रा का पहला मित्र मिला।

इस मैत्री को उस राजर्षि ने आजन्म निभाया। यह संन्यासी कोई और नहीं,भारतीय धर्म और संस्कृति का परचम विश्व में फहराने वाले नरेंद्रनाथ थे जो खेतड़ी नरेश के स्नेहस्वरूप प्रदत्त 'विवेकानंद' नाम से दुनिया भर में जाने पहचाने गए।

शेखावाटी की धरा उद्भट वीरों व कर्मठ कर्मयोगियों की जननी रही है अतः नियति ने एक और सौभाग्य इसकी झोली में डालने हेतु राजर्षि अजीत सिंह शेखावत को चुना।

स्वामीजी की शिकागो यात्रा लगभग तय हो चुकी थी और साधारण दर्जे का जहाज का टिकट बुक करवा लिया गया था।उन्होंने महाराजा को पत्र द्वारा इसकी सूचना दी।

महाराजा की प्रसन्नता का पारावार न रहा। वह अपने अनन्य मित्र जो कालांतर में उनके गुरू बन गए थे, को उनकी अभूतपूर्व यात्रा के लिए अपने घर से विदा करना चाहते थे। इधर स्वामीजी स्वयं खेतड़ी को अपना 'दूसरा घर' कहा करते थे।

अस्तु राजस्थानी रीति-रिवाज से तिलक,आरती और साफा पहनाकर स्वामीजी को विदा किया गया। साधारण दर्जे की टिकट को लौटाकर उच्च दर्जे की टिकट लेकर मुंशी जगमोहन को मुंबई तक साथ भेजा गया ताकि स्वामीजी को किसी प्रकार की  प्रारंभिक मार्ग संबधी असुविधाओं का सामना न करना पड़े।

अमेरिका में प्रवास के दौरान स्वामीजी का अपने मित्र के साथ सतत पत्राचार होता रहा, दूर देश में मित्र के धनाभाव की पूर्ति भी राजर्षि करते रहे और शेष जो है वह इतिहास है जो स्वर्णाक्षरों में दर्ज है।

स्वामीजी के खेतड़ी आगमन पर नगरवासियों ने अपने पलक-पावड़े बिछा दिए,राजा संग प्रजा ने बारह मील पैदल चलकर स्वामीजी की अगवानी की, नगर में चालीस मण घी के दीप जलाए गए और सामूहिक भोज का आयोजन किया गया।

शेखावाटी की इस धरा ने उनको अपना मान लिया था। शेखावाटी के "छिणगेदार' साफे को संन्यासी के सिर पर सजकर एक नई पहचान मिली या यूं कहें बंगाल के साधू को राजस्थानी साफे ने नई पहचान दी। वास्तव में दोनों ने एक दूसरे की कीर्ति को द्विगुणित किया। पर यह साथ विधाता ने शायद इतना ही लिखा था।

महान यशस्वी सम्राट पृथ्वीराज और उनके परम सुहृद चंद बरदायी की मित्रता के विषय में कहा जाता है-"एक थाल जनम और एक थाल मरण।" ऐसी ही मैत्री इन राजर्षि और ब्रह्मर्षि ने भी निभाई। वर्ष भर का अंतराल और समान वय का जीवन।

खेतड़ी नरेश से एक वर्ष पश्चात् मृत्युलोक में आए विवेकानंद  यहां से निष्क्रमण भी एक वर्ष बाद ही कर गए। वे दोनों 'दो देह में एक ज्योति' थे और ये शब्द स्वयं स्वामी जी के थे।

दरबार के पंडित-सभासद  जिन महलों में किसी संन्यासी के निवास करने को लेकर सदैव सशंकित रहे उन्हीं राजमहलों को राजा ने हमेशा के लिए उस संन्यासी को  समर्पित कर दिया।राजस्थली हमेशा के लिए तपस्थली बन गई और यह मित्रता का स्मारक राजस्थान के प्रथम 'रामकृष्ण मिशन' मठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

- नीलू शेखावत

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