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वहां अब दाढ़ी बनायी जा रही है, बाल काटे जा रहे हैं। रहा होगा कभी सत्कार होटल। मत रो रुनझुन! हम तुम्हारी भूख का मान रखेंगे
हम दूध लायेंगे। इतने बड़े शहर में तुम्हारी भूख मिटाने के भी सैकड़ों गेटवे होंगे। कोई न कोई राह खुलेगी ही
हम मराठवाड़ा में हैं। मराठवाड़ा यानी मराठालैंड। यानी असल महाराष्ट्र। मराठों का अपना देस, अपना गांव- घर, अपनी संस्कृति, अपनी परंपराएं जिन पर कभी आदिलशाही निजाम और रजाकारों तो कभी मुगलों और कभी तुगलकों का कब्जा रहा।
यह वह इलाका है जो शताब्दियों तक जंगे आजादी में मुब्तिला रहा। औरंगाबाद शहर इस मराठवाड़ा अंचल का नाभि केंद्र है जिसके सीने में दफन हैं असंख्य इतिहास, असंख्य बोधि कथाएं। यहां बुद्ध भी दिख जाएंगे और अलाउद्दीन खिलजी और मोहम्मद बिन तुगलक भी।
मुगल सल्तनत भी यहां दिखेगी तो राष्ट्रकूट और चालुक्या राजवंश भी। आपने एकाध गुफा देखी होगी, यहां तो गुफा समूह हैं और इनमें अधिकांश मानव निर्मित हैं।
राजाओं, महाराजाओं, बादशाहों को इस इलाके में दूर - दूर तक फैली पहाड़ियों पर गुफा निर्मिति की जरूरत क्यों पेश आयी, इस सवाल का मुकम्मल और संतोषजनक जवाब इतिहास की किताबों में शायद ही मिले। मिलेगा भी नहीं।
आधा अधूरा जवाब यह हो सकता है कि यहां आक्रांता बहुत बाद में आये, हुनर बहुत पहले से था। बनाने का हुनर। रचने का हुनर। ये गुफाएं एक दिन में नहीं बनी होंगी, यह भी सच है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर होता है कि निरंतर युद्धरत मराठवाड़ा के पास वास्तु कला और भवन निर्माण की इतनी बारीकियां कहां से आयीं।
क्या जो बाहरी आक्रांता यहां आये और जिन्होंने पिछली सल्तनतों को मुस्तरद किया, वे अपने साथ प्रशिक्षित कारीगर भी लाये थे?
क्या उन्हें पता था कि जहां वे विजयी हो कर सत्तासीन होने जा रहे हैं, वहां पहाड़ियों को काटना होगा, तराशना होगा, उन्हें मानव संवाद लायक बनाना होगा, वहां की आबोहवा में प्रेम और संगीत के बिल्कुल मुख्तलिफ बीज बोने होंगे ?
क्या उन्हें पता था कि वे बुद्ध से लड़ने जा रहे हैं, उस विरासत से लड़ने जा रहे हैं जो कभी समाप्त होने वाली नहीं है और जो कर्मकांड के निषेध की जमीन पर खड़ी है, जो ईश्वर तक की सत्ता को ललकारती है??
विदर्भ, खानदेश और कोंकण- महाराष्ट्र के किसी भी हलके, किसी भी एक अंचल में आपको ऐसे गुफा समूह नहीं मिलेंगे जिनका हर रास्ता किसी एक शहर से खुले या सीधे तौर पर जुड़ा हो। महाराष्ट्र में सिर्फ औरंगाबाद को यह एजाज हासिल है।
लेकिन थोड़ा ठहरिये। हड़बड़ी में गड़बड़ी के खतरे हमेशा रहते हैं। यह हड़बड़ी का ही नतीजा है कि हमने कलकत्ता को तो ' सिटी आफ ज्वाय' मान लिया, बंबई को 'गेटवे आफ इंडिया' के खिताब से नवाज डाला.
बनारस और प्रयाग को धर्मनगरी की हैसियत दे डाली लेकिन हम भूल गये कि इस देश में एक शहर ' सिटी आफ गेट्स' भी है और यह शहर है औरंगाबाद। इस शहर में प्रवेश के इतने रास्ते हैं जिनकी गिनती करते करते आप थक जाएंगे।
बिसराया हुआ यह शहर अपनी कैफियत खुद बताता है। इसने अपने तमाम प्रवेश द्वारों पर बोर्ड टांग रखे हैं। हर बोर्ड पर लिखा है- सिटी आफ गेट्स। जाहिर है, घटतौली हुई और यह किसी रहजन का खेल भर नहीं है।
यह हड़बड़ी जानबूझ कर मचायी गयी ताकि एक शहर को उसके जरूरी संदर्भों, उसकी ओरिजनल टैगलाइन से काटा जा सके।
हम यहां आये हैं तो रुकेंगे भी। कहीं तो रुकते ही। सो, हमने डेरा डाल लिया है रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास के एक होटल में। 27 दिसंबर,2021 को दोपहर डेढ़ बजे हम यहां पहुंच गये थे। पुलिस थाने के ऐन सामने यह होटल है।
आसपास ढेर सारी दुकानें। दुकान संकुल कह लीजिए। नतिनी रुनझुन को भूख लग आयी है। हम उसके लिए दूध ढूंढने निकले हैं क्योंकि होटल में किचन सिस्टम नहीं है। सड़क पर एक दुकान नजर आती है।
उसके बोर्ड पर लिखा है- 'सत्कार होटल, यहां भोजन का उत्तम प्रबंध है'। हम लपकते हैं उस ओर। भोजन नहीं मिलता। यहां रुनझुन के लिए दूध नहीं मिलता। वह ज़ारोकतार रोये जा रही है। पता चलता है, वहां अब होटल की जगह सैलून आबाद हो गया है।
वहां अब दाढ़ी बनायी जा रही है, बाल काटे जा रहे हैं। रहा होगा कभी सत्कार होटल। मत रो रुनझुन! हम तुम्हारी भूख का मान रखेंगे। हम दूध लायेंगे। इतने बड़े शहर में तुम्हारी भूख मिटाने के भी सैकड़ों गेटवे होंगे। कोई न कोई राह खुलेगी ही।
मुमकिन है, कोई ऐसी राह भी खुले जो हर सिम्त जाती हो। तब हम दुविधा में होंगे कि किसे छोड़ें और किसका हो लें। ( क्रमश: part 02)