Highlights
- मद्रास शहर उस दिन एक दो नहीं बल्कि पूरे 21 तोप के गोलों की धमाकेदार आवाज सुनकर चौंक गया
- ये सेना के टिम्मी साहिब थे जिन्होंने एक लड़की के लिये तोप चलाने का आदेश दे दिया। टिम्मी साहिब का पूरा नाम जनरल के एस थिमैया था लेकिन लोग प्यार से उन्हें 'टिम्मी साहिब" बुलाते थे
- टिम्मी साहिब के बहादुरी के किस्सों की एक लंबी सूची है लेकिन आज बात उनकी उस बहादुरी की होनी चाहिए जिसकी वजह से आजतक लेह भारत के हाथों में सुरक्षित है
- सरकार के रवैये ने उनके व्यक्तित्व को गहरी चोट पहुंचाई और आखिर 8 मई 1961 को टिम्मी साहिब रिटायर हुए
मद्रास शहर उस दिन एक दो नहीं बल्कि पूरे 21 तोप के गोलों की धमाकेदार आवाज सुनकर चौंक गया और इस करामात के पीछे तोपखाने के एक मास्टर गनर का रंगीन मिजाज था।
हुआ यूँ था कि मद्रास शहर की एक लड़की ने गवर्नर जनरल को देख लिया तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
जब तोपखाने के मास्टर गनर को यह पता चला तो उसने लड़की को कहा कि "तुम भी किसी गवर्नर से कम नहीं हो बल्कि ज्यादा सुंदर हो इसलिए तुम्हारे लिए भी गवर्नर की तरह 21 तोपों की सलामी दी जा सकती है।"
लड़की को उस वक्त ये सब मजाक लगा लेकिन अगली सुबह जब वह कॉलेज से निकली तो तोपखाने में रखी छह आर्टिलरी तोपों ने 21 गोले दाग दिए.
ये सेना के टिम्मी साहिब थे जिन्होंने एक लड़की के लिये तोप चलाने का आदेश दे दिया। टिम्मी साहिब का पूरा नाम जनरल के एस थिमैया था लेकिन लोग प्यार से उन्हें 'टिम्मी साहिब" बुलाते थे.
पढ़ाई में हमेशा फिसड्डी और खेलकूद में हमेशा आगे रहने वाले टिम्मी साहिब भारतीय सेना के सबसे लोकप्रिय जनरल थे। वे सेना में इतने लोकप्रिय थे कि जिस भी बटालियन का मनोबल कम होता वहां टिम्मी साहब का दौरा करवाया जाता।
उनका दौरा फौजियों में टॉनिक का काम करता था इसलिए उनके दौरों को "टिम्मी टॉनिक" की संज्ञा दी गयी। उनकी जिंदादिली, हाजिर जवाबी,जल्दी गुस्सा आने का स्वभाव और निर्भीकता के चर्चे उनके वर्दी पहनते ही होने लगे थे।
हालांकि उन्होंने वर्दी पहनते वक्त ब्रिटिश शासन के लिये निष्ठा की शपथ ली थी लेकिन उस वक्त देश मे चल रहे राष्ट्रवादी आंदोलन से टिम्मी साहिब बहुत प्रभावित थे और स्वदेशी आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी पी केप विदेशी सामान की होली में जला दी थी।
जब वो सरोजनी नायडू और मोतीलाल नेहरू के सम्पर्क में आये तो नेहरू को अपनी फ़ौज छोड़ने की इच्छा के बारे में बताया।
नेहरू ने टिम्मी साहिब को भी वही सलाह दी जो उनके सीनियर लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह को दी थी।
नेहरु ने कहा कि "जब भारत आजाद होगा तो सेना को आप जैसे अफसरों की जरूरत होगी। इसके बाद टिम्मी साहिब ने जल्दी ही आजादी की उम्मीद में सेना ना छोड़ने का मन बना लिया।"
किस्मत हमेशा बहादुरों का साथ देती है
एक फौजी के लिये अक्सर कहा जाता है कि भाग्यशाली होना फौजी का सबसे अच्छा गुण होता है और फ़ौज में टिम्मी साहिब की किस्मत ने ट्रेनिग से लेकर आर्मी चीफ बनने तक उनका हाथ थामे रखा.
जब टिम्मी साहिब सेंडहर्ट्स में ट्रेनिंग ले रहे थे तो व्यायाम करने के दौरान वे दाहिना मोड़ गलत मुड़ गए।
जब एडजुटेंट ने यह देखा तो टिम्मी साहिब को गलती के लिए कम्पनी कमांडर के पास ले जाया गया लेकिन कमांडर ने उन्हें पहली गलती पर माफ कर दिया। लेकिन कुछ ही दिन बात टिम्मी साहिब एक और गलती कर बैठे।
जब वापस उन्हें कमांडर के पास ले जाया गया तो इस बार कड़ी सजा की उम्मीद थी लेकिन कमांडर टिम्मी साहिब की पहली गलती को भूल गया और एक बार फिर से उन्हें माफ कर दिया गया।
सेंडहार्ट्स अपने कड़े अनुशासन के लिए जाना जाता था। वहाँ दो बार गलती की सजा ना मिलना बड़ी बात थी।
यह जानकर सार्जेंट मेजर ने टिम्मी साहिब को कहा कि आप बहुत भाग्यशाली है और भाग्यशाली होना एक सैनिक का सबसे महत्वपूर्ण गुण होता है।
टिम्मी कितने भाग्यशाली थे इस बात का पता उस वक्त चला जब वे बगदाद में तैनात थे। टिम्मी साहिब की कंपनी पर वहाँ के राजा फैसल की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी।
एक रात टिम्मी साहब खुद राजा के महल के बाहर घोड़े पर गश्त दे रहे थे तभी उन्होंने महल के भीतर से एक महिला के चीखने की आवाज सुनी तो उन्होंने उधर ही अपना घोड़ा दौड़ा दिया।
टिम्मी साहिब पर तुरंत दो अरबी हमलावारों ने तलवार से हमला कर दिया लेकिन सूझबूझ से टिम्मी साहिब ने अपनी जान बचा ली।
ये सेना के टिम्मी साहिब थे जिन्होंने एक लड़की के लिये तोप चलाने का आदेश दे दिया। टिम्मी साहिब का पूरा नाम जनरल के एस थिमैया था लेकिन लोग प्यार से उन्हें 'टिम्मी साहिब" बुलाते थे.
ऐसा रहा टिम्मी साहिब का हनीमून
टिम्मी साहिब की किस्मत ने उनका सबसे ज्यादा साथ तब दिया जब वो शादी के बाद अपनी नई दुल्हन को लेकर क्वेटा गये और उसी दिन क्वेटा को एक बड़े भूकम्प ने तबाह कर दिया।
उस भूकम्प में साठ हजार लोगों की मौत हुई लेकिन किस्मत के धनी टिम्मी साहिब सुरक्षित अपने देश लौट आये।
ऐसा ही एक और हादसा उनके साथ हुआ जिसने सबको हैरानी में डाल दिया। एक बार वे लखनऊ से दिल्ली के लिये डबल इंजन वाले हवाई जहाज से रवाना हुए।
उनके साथ लेफ्टिनेंट श्री नागेश और मेजर थोरट भी थे। बीच रास्ते में जहाज के इंजन में आग लग गई और जहाज को क्रैश लेंड करना पड़ा।
जब लखनऊ और दिल्ली में बैठे अधिकारियों को घटना का पता चला तो हड़कम्प मच गया और लगा कि कोई बड़ा हादसा हो चुका है। लेकिन पूरे जहाज में आग लगने के बाद भी जहाज में सवार किसी को भी एक मामूली चोट तक नहीं आयी।
जब एम्बुलेंस जहाज में सवार लोगों को लेने आयी तो टिम्मी साहिब ने उन्हें हाथ हिलाकर कहा कि " माफ करना आज आपका नसीब अच्छा नहीं है, आपको निराश करने के लिए हम माफी चाहते है।"
कहते है ना कि किस्मत भी बहादुरों का ही साथ देती है।टिम्मी साहिब के बारे में भी कुछ ऐसा ही था। टिम्मी साहिब जितने किस्मतवाले थे उतने ही बहादुर। उनके पीछे एक बेहतरीन युद्ध रिकॉर्ड था और द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिगेड की कमांड संभालने वाले वे पहले भारतीय थे।
जो टिम्मी साहिब कर गए वैसा फिर कोई जनरल नहीं कर पाया
टिम्मी साहिब के बहादुरी के किस्सों की एक लंबी सूची है लेकिन आज बात उनकी उस बहादुरी की होनी चाहिए जिसकी वजह से आजतक लेह भारत के हाथों में सुरक्षित है।
बात मई 1948 की है जब दुश्मन ने खलात्से पर हमला कर दिया और उसकी सुरक्षा में तैनात टुकड़ियो को पीछे हटना पड़ा।
लेह में तैनात मेजर प्रिथी चन्द्र ने दिल्ली को खबर भेजी की जल्दी से जल्दी कोई सैन्य सहायता नहीं भेजी गई तो लेह खाली करना पड़ेगा।
ऐसा कोई भी उपाय नहीं था कि लेह में तुरंत सेना भेजी जा सके लेकिन टिम्मी साहिब ने एक ऐसा जोखिम उठाने की ठान ली जो आज तक कोई भी अफसर नहीं उठा पाया।
टिम्मी साहिब ने एयर कोमोडोर मेहर सिंह के साथ मिलकर लेह में हवाई जहाज उतारने का जोखिम ले लिया। टिम्मी साहिब खुद मेहर सिंह के साथ जहाज में सवार होकर लेह पहुंचे और सैन्य सहायता पहुंचाकर लेह को दुश्मन से सुरक्षित बचा लिया।
इससे पहले लेह में कभी हवाई जहाज नहीं उतरा था तो वहाँ के लोगों ने जहाज को कोई उड़ने वाला घोड़ा समझा और उसे खिलाने के लिए घास ले आये।
यह कारनामा कर टिम्मी साहिब और एयर कोमोडोर मेहर सिंह ने अपना नाम सैन्य इतिहास में लिखवा दिया।
अपने इसी तरह के रिकॉर्ड के बूते 1957 में टिम्मी के दो सीनियर की अनदेखी करते हुए सरकार ने उन्हें आर्मी चीफ बना दिया।
उस वक्त आर्मी चीफ के लिए टिम्मी ही नेहरू की पहली पसंद थे क्योंकि नेहरू टिम्मी के बहुत बड़े प्रशंसक थे और कोरिया में दी गई उनकी सेवाओ से इतने प्रभावित हुए की उन्हें पदम् भूषण देने की सिफारिश करी।
लेकिन टिम्मी के आर्मी चीफ बनने के बाद हालात वैसे नहीं
रहे जैसे पहले थे और रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन से टिम्मी के मतभेद हो गए।
मेनन नेहरू के सबसे करीबी विश्वासपात्र थे उन्होंने टिम्मी को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की लेकिन टिम्मी ने अपने काम और फैसलों से यह बता दिया कि वे दब्बू नहीं है।
मेनन ने नेहरू के दिमाग में भी टिम्मी के लिये जहर भर दिया उसके बाद खुद नेहरू का भी टिम्मी पर पहले जैसा विश्वास नहीं रहा। टिम्मी साहिब पर तरह-तरह के आरोप लगने लगे।
यहाँ तक कि नेहरू को लगने लगा था कि टिम्मी तख्तापलट कर सकते है। जब पानी नाक से ऊपर निकल गया तो थिमैया ने 31 अगस्त 1959 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
विवादों के बीच टिम्मी का इस्तीफा देश के अखबारों की सुर्खी बन गया। मीडिया और विपक्ष के दवाब के बीच खुद नेहरू को टिम्मी के इस्तीफे पर संसद में बयान देना पड़ा और नेहरु ने टिम्मी का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया।
इस विवाद के बाद टिम्मी साहिब का कार्यकाल दो वर्ष का और बचा था लेकिन सेवा के अंतिम दिन टिम्मी साहिब ने एक टूटे हुए व्यक्ति की तरह बिताये।
सरकार के रवैये ने उनके व्यक्तित्व को गहरी चोट पहुंचाई और आखिर 8 मई 1961 को टिम्मी साहिब रिटायर हुए।
टिम्मी साहिब ने अपने विदाई भाषण में सैनिकों से कहा कि "मैं उम्मीद करता हूँ कि मैं आपको चीन की तोपों के चारे के रूप में नहीं छोड़ रहा हूँ" और टिम्मी साहिब के ये शब्द एक साल बाद ही सही साबित हुए जब 1962 के युद्ध में चीन के हाथों भारत को करारी हार मिली।