नीलू की कलम से: कुरजां मीठी हालो नीं...

कुरजां मीठी हालो नीं...
कुरजां
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जैसे ननद सुनती हो भावज को। हबकती हूक से हिया पिघल गया, मन मिल गया और अबसे दोनों धरम की बहनें हैं

कुरज को लड़कियों की तरह झुलरे (समूह) में रहना पसंद है, पंक्ति में उड़ना और पंक्ति में बैठना कोई इनसे सीखे

सैनिक इसीलिए सबसे विश्वस्त नागरिक माना जाता है, संदेश सदैव विश्वस्त के हाथ ही भेजे जा सकते हैं,फिर वह संदेश 'पीव' के लिए हो तो...

बादलों को छूकर आकाश में उड़ती लंबी-लंबी श्वेत-श्याम पांतियां और जोर-जोर से किलकारियां मारकर घरों से बाहर भागते बच्चे

"कुरजां को बेलो आयो रे कुरजां को बेलो"

छाछ-राबड़ी का बाटका जहां था वहीं डालकर 'सफेद-मूंछें' लिए टाबर फाबों के बल पर उछलते,अधखुली मुट्ठियों से नन्हीं उंगलियों का नचाते  हुए कह रहे हैं-

"कुरजां कुरजां म्हांके उतर"
"केवे तो कुरजां थारे बाळली घड़ा दूं
केवे तो नवसर हार...
कुरजां मीठी आओ नी धोरां वाळे देस "

पढ़े-लिखे पढंतरी कहते हैं-"यह परदेशी जीव हैं,कुछ दिन के लिए आए हैं।"

हम कहते हैं कुरज हमारी 'धीवड़' है,कुछ दिन ससुराल जाकर लौट आती है। उंगली से नख न्यारे हो तो कुरजां हमसे न्यारी हो। कुरज हमारे सुख-दुख की साथिन है। बरसात के लिए हमारे साथ कुरज भी कुरलाती है।यहां का खारा लूण कुरज को मिसरी से भी ज्यादा मीठा-मटक लगता है।

यहां बेटी के मायके आने की बड़ी तैयारियां की जाती है। घर में समृद्धि का प्रतीक है- दूध, दही और घी। घर में 'धीणा' (दूध, दही और घी) नहीं हो तो बेटी के पिता या भाई सामर्थ्यानुसार भैंस, गाय या बकरी  की खोज में यहां-वहां पूछताछ शुरू कर देते हैं-

"बाई आने वाली है, भाण्या-भाणी (भानजे-भानजी) आने वाले हैं,घर में धीणा तो चाहिए। जिनके यहां पहले से धीणा है वे दूध-घी बेचना बंद कर देते हैं, बेचेंगे तो टाबर क्या खायेंगे? 
धीणे से वंचित घरों में बेटी के लिए काके-बाबे या पड़ौसी दही-दूध पहुंचा देंगे। बेटी सबकी बेटी।

यही बंदोबस्त कुरज के लिए भी। बेटी को बेस और कुरज को कुटड़का (दाना) धरम का काम है, बाप तो देगा ही देगा, दूसरी काकी-भौजाइयां भी देगी। प्रतिदिन बीसियों क्विंटल दाना बिखरता है पर किसी दाने पर कोई नाम नहीं। कुरज को दाना धरम का काम है। कुरज सबकी कुरज।

शेखावाटी में एक खूबसूरत परंपरा है।(राजस्थान में शायद काफी जगह हो) बेटी के विवाह में बारात की 'सरबरा' करने हर घर से एक आदमी जाता ही जाता है। पर इनमें से कोई भी व्यक्ति उस घर में भोजन नहीं करता चाहे काम निपटाने में रात के बारह ही क्यों न बज जाए। गांव का हर व्यक्ति स्वयंसेवक।

कुरजों की हाजरी में भी पूरा गांव लगता है, कुरज किसी एक की थोड़े है। अलसुबह गांव वाले बाटकी,डोली,बाल्टी जो मिल जाए उसी में ज्वार भरकर बाड़े में बिखेरने जुट जाते हैं क्योंकि कुरज सबकी कुरज।

कुरज समय की पाबंद है। उसके आने का ,जाने का,खाने का और पीने का समय निश्चित है। गजब का अनुशासन। कुरज को लड़कियों की तरह झुलरे (समूह) में रहना पसंद है। पंक्ति में उड़ना और पंक्ति में बैठना कोई इनसे सीखे।

अनुशासित व्यक्ति पर किसे भरोसा नहीं? सैनिक इसीलिए सबसे विश्वस्त नागरिक माना जाता है। संदेश सदैव विश्वस्त के हाथ ही भेजे जा सकते हैं,फिर वह संदेश 'पीव' के लिए हो तो...।

"एक तो बेनड़ दूजि कुरजली"
मारवणी ने भी कुरज को चुना।
मारवणी मनि रंगि बाटहि तिणि आवी वहई।
कुंजी एकणी सँगि   तालि   चरंती   दिठ्ठियां‌ ।।

कुरज मारवणी को सहानुभूति से सुनती है, जैसे ननद सुनती हो भावज को। हबकती हूक से हिया पिघल गया, मन मिल गया और अबसे दोनों धरम की बहनें हैं।

"कुरजां म्हारी बेन धरम री पिव न जा समझाय।
बिन पाणत ज्यूं सूखे बेलड़ी मरवण त्यूं कुमलाय।।

एक कहती जाती है और दूजी बस सुनती जाती है। पहर का पहर निकल गया पर मारवणी की वेदना अंतहीन। शब्द मारवणी के और आंसू कुरज के। विकल होकर कुरज बोली- "काश! हम कुछ बोल पातीं पर चिंता नहीं, तुम हमारे चोंच और पंखों पर अपना संदेशा लिख दो,तुम्हारा प्रिय पढ़कर तुम्हारी सुधि लेगा। मारवणी फिर चिंतित! तुम जल के जीव! अठखेलियों से कब स्याही धूल जाए,कौन जाने?

एक काम करो,मुझे अपने पंख दे दो,प्रिय से मिलकर आऊं और फिर तुम्हें पंख लौटा दूं। कुरज सिहर उठी। बाई! जिसके लिए तुम इतनी विकल हुई जा रही हो ,वह मिलने पर क्या तुम्हें क्षण भर भी अपने हृदय से विलग होने देगा?

प्रिय से मिली प्रियतमा पीछे मुड़कर देखती भी नहीं, लौटने की कौन कहे?हम पंखों वाले जीव हैं, इन्हीं के सहरे जीते हैं,सब मांग पर पंख मत मांग! कुरज उड़ गई पर एक कसक लेकर कि मारवणी रोती रह गई।

"यह कैसा देश जहां की विरहणियों की गर्म उसांसे ऊंचे आकाश की उड़ान में भी शीतल नहीं होने देती।
जिस घर देखो वियोगिनी,हम कितनों के संदेशे लेकर जाएंगे?"

"इस माटी में लूण का मोल महंगा है। हमने लूण खाया फिर अन्न भी खाया।"
वियोगिनी हाथ उठा-उठाकर पुकार रही है और कुरजां कुरलाती हुई आंगन में उतर रहीं हैं। अपनी उजली पांखे फैलाकर कहती हैं- "लिख दो अपने मन की बात।"

लिखना 'प्रीत' चाहती है पर लिख रही है 'ओळमा'-
"लस्करिये ने यूँ कही, क्यूँ परणी छी मोय,
परण पाछे क्यों बिसराई रे,
कुरजां ऐ म्हारा भंवर मिला द्यो ऐ।"

भंवर भी सपने में और कुरज भी सपने में। भंवर का सपने में आना लाजमी है पर कुरज क्यों आईं? अरे! कुरज और स्त्री का कोई 'लागा- जोडा़ साख' है? दोनों जब कुरलाती हैं,कलेजा बेंध देती हैं। एक पिया को छोड़ आई है, दूजी का पिया परदेस।

प्रेमी-प्रेमिकाओं के संदेश लाने,ले-जाने वाले पंछियों से प्रेम कथाएं भरी पड़ी है किंतु यहां की परिणीता के प्रेम को प्रिय तक पहुंचाने का कार्य कुरजां ही कर सकती हैं। कुरजां हमारी भोर है, कुरजां हमारा शोर है,कुरजां हमारे काळजे की कोर है। कुरजों की बेल हमारे सिर माथे।

कुरजां म्हारी हालो नी धोरां वाळे देस 
कुरजां मीठी बोलो नी धोरां वाळे देस

- नीलू शेखावत 

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