मिथिलेश के मन से: लोहे का स्वाद अरुण रंजन से पूछो

लोहे का स्वाद अरुण रंजन से पूछो
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हम उस अरुण रंजन से मिलने जा रहे जो बीमार हैं। जिन्हें लकवे का हमला झेलना पड़ा और जिनकी याददाश्त साथ नहीं दे रही। वह ठीक से बोल भी नहीं पाते और अचानक गुम हो जाते हैं जैसे मेले में भूल गया हो कोई मासूम बच्चा। अरुण जी! हम आ रहे हैं। हम बेलछी और नोनही नगमा और नक्सलहंता वीरबहादुर और पलामू के आदमखोर मनातू मऊवार और कामदेव सिंह पर आपको सुनेंगे। टुकड़ों टुकड़ों में ही सही।

'धूमिल' का नाम तो आपने सुना ही होगा। अरे वही बनारस वाले... सुदामा पांडेय जो नामवर सिंह को उम्र भर माट्साहब ही कहते रह गये। कभी नहीं कहा आचार्य जी या प्रोफेसर साहब, चाहे नामवर सिंह जोधपुर में विश्वविद्यालय के बच्चों को पढ़ा रहे हों चाहे जेएनयू में गढ़ रहे हों बच्चो में मुकम्मल आदमी होने की तमीज।

नामवर जानते थे धूमिल को। पोर- पोर जानते थे। जानते थे कि कहां यह आदमी अधूरा कवि है और कहां हमलावर सर्जक। फाड़ खाने को आमादा। धूमिल कहते हैं: 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो/ उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।'

बिहार के सामाजिक- राजनीतिक जीवन में, जहां लोहे का स्वाद और उसकी तासीर, दोनों बदल जाते हैं, यह सवाल हम दिल्ली में रहते हुए किससे पूछें? कोई घोड़ा, कोई लोहार तो जवाब देने से रहा। लेकिन जवाब है। यह जवाब अरुण रंजन के पास है। सो, हम चल रहे हैं सेक्टर 26, नोएडा की ओर जहां अरुण रंजन मुकीम हैं। पटपड़गंज का आकाशभारती अपार्टमेंट पहले उनका स्थायी पता हुआ करता था।

अब पते में थोड़ी तरमीम हुई है। लेकिन अरुण रंजन होंगे वही। एक्सरे वाली आंख पर मोटे शीशे का चश्मा चढ़ाये और बातचीत के दौरान भीतर तक झांक लेने वाले। पेशे से दुर्धर्ष और योद्धा पत्रकार, बातचीत में निहायत कड़ियल, पालिटिकल सटायर के उस्ताद और अपनी रिपोर्टिंग में एक अलग तरह के आस्वाद, एक अलग किस्म की भाषा, एक अलग किस्म की मानवीय महाकरुणा के पैरोकार अरुण रंजन ने बरसों से लिखना स्थगित कर रखा है। लेकिन जब वह बोलेंगे तो आप चौंक जाएंगे कि कितना कुछ पढ़ा है इस आदमी ने और कितना वेगवान, कितना सचेत, कितना संजीदा है यह आदमी- लाख टूटफूट के बावजूद।

हम अकेले नहीं हैं इस सफर में। हमारे साथ हैं रंजन कुमार सिंह और व्योमेश जुगरान भी। नवभारत टाइम्स, पटना के दिनों के हमारे सहयात्री।  हमने अरुण रंजन को  पत्रकार के रूप में भी देखा है, 'कुलानुशासक संपादक' के रूप में भी और उस पिता के रूप में भी जिसे अपने जवान होते बेटे की मय्यत को कंधा देना पड़ा था। अरुण रंजन तब भी नहीं टूटे थे। टूटे भी होंगे तो टूटते नहीं दिखे। नहीं, नहीं।

हम उस अरुण रंजन से नहीं मिलने जा रहे। हम उस अरुण रंजन से मिलने जा रहे जो बीमार हैं। जिन्हें लकवे का हमला झेलना पड़ा और जिनकी याददाश्त साथ नहीं दे रही। वह ठीक से बोल भी नहीं पाते और अचानक गुम हो जाते हैं जैसे मेले में भूल गया हो कोई मासूम बच्चा। अरुण जी! हम आ रहे हैं। हम बेलछी और नोनही नगमा और नक्सलहंता वीरबहादुर और पलामू के आदमखोर मनातू मऊवार और कामदेव सिंह पर आपको सुनेंगे। टुकड़ों टुकड़ों में ही सही।

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