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इसी जहर के शिकार हुए अधिकांश राजे-रजवाड़े और एक बहुआयामी व्यक्तित्व जो न केवल योग्य प्रशासक थे अपितु जबरदस्त आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी और कूटनीतिज्ञ भी थे। पोलो के मैदान में उनके खेल का कोई सानी नहीं था तो विमान उड़ाना तो शौकभर के लिए सीख लिया और प्रेम किया तो घर बार तक त्याग दिया।
राजनीति की यह फितरत देखते हुए मैं स्मरण करती हूं अपनी उन कक्षाओं का जिनमें हमें राजस्थान का एकीकरण पढ़ाया गया। निहायत उबाऊ कक्षाएं जिनमें न स्वयं शिक्षक आश्वस्त थे न ही सिलेबस कि कब पूर्व राजस्थान बना और कब वृहत्। सालों साल एकीकरण के चरण रटे (अब भी रट रहे हैं) और परीक्षाएं दे दी किन्तु सात चरणों से आगे कुछ न जान पाए।
स्नातक स्तर पर पहली बार ऐसे शिक्षक मिले जो बिना किताब के पढ़ाते थे। इतिहास में रुचि उत्पन्न हुई क्योंकि उनकी किस्सागोई गजब की थी। उनसे पढ़ा हुआ राजस्थान का एकीकरण अब भी याद है। इस दौरान दो चमत्कृत व्यक्तिव जिन पर शिक्षक ने एकीकरण के अध्याय को केंद्रित किया वह थे- सरदार पटेल और वी पी मेनन।
किस राजा की किस तरह नस दबाकर, डरा धमकाकर उन्होंने इतना मुश्किल कार्य संपन्न किया, वह कोई और कर ही नहीं सकते थे। पटेल सचमुच लोहपुरुष थे वरना निरंकुश राजे महाराजे कहीं वश में आने वाले थे?
इसी दौरान सुना जोधपुर के एकीकरण का वह वाकया। कैसे जोधपुर के देशद्रोही राजा ने जिन्ना के हाथों जोधपुर सौंपने का निर्णय ले लिया था और सरदार पटेल ने उन्हें धमकाकर विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करवाए।
उन्होंने राजा से कहा- "अपनी हिंदू जनता को मुसलमानों के हाथों सौंपते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? वीपी मेनन ने राजा की ओर पेन बढ़ाते हुए कहा- तलवारों और बंदूकों वाले दिन गए। चुपचाप विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करो। झेंपे हुए राजा ने हस्ताक्षर किए और जोधपुर का भारत में विलय हुआ।"
शब्द हुबहू नहीं शिक्षक के पर कहानी बिल्कुल यही। कहानी कितनी इंटरेस्टिंग है न? सिलेबस से इतर इतिहास नहीं पढ़ती तो मैं भी अपने विद्यार्थियों को यही कहानी सुनाती और अच्छे शिक्षक होने का खिताब भी लूटती।
मेरे साथ पढ़ने वाले सब लोगों को ये कहानियां याद होंगी। मुझसे पहले और बाद में उन शिक्षक ने कितने विद्यार्थियों की खेपें निकाली होंगी और जिस पुस्तक से शिक्षक ने पढ़ा उस पुस्तक ने ऐसे कितने शिक्षकों की खेपें निकाली होंगी!
किसी जाति या समाज के प्रति जहर एकाएक नहीं घुलता, वह पीढ़ी दर पीढ़ी घुलता है, एक सोचा समझा एजेंडा चलता है , फिर वही दृढ़मूल होकर सचाई का रूप लेने लगता है।
इसी जहर के शिकार हुए अधिकांश राजे-रजवाड़े और एक बहुआयामी व्यक्तित्व जो न केवल योग्य प्रशासक थे अपितु जबरदस्त आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी और कूटनीतिज्ञ भी थे। पोलो के मैदान में उनके खेल का कोई सानी नहीं था तो विमान उड़ाना तो शौकभर के लिए सीख लिया और प्रेम किया तो घर बार तक त्याग दिया।
यहां बात की जा रही है जोधपुर के महराजा हणवंत सिंह जी की जिन्होंने 6 अप्रेल 1949 को मारवाड़ में एक प्रगतिशील कानून 'कास्तकारी व भूराजस्व अधिनियम' लागू किया। ये दोनों अधिनियम भारत के छः सौ रजवाड़ों मे सबसे पहले लागू किये गए थे।
इस अधिनियम के तहत मारवाड़ के लाखों किसान कास्तकार एक ही दिन में अपने खेतों के स्थाई खातेदार ( बापीदार ) बन गये । उन्हें इसके लिये कोई रक़म न तो सरकार को देनी पड़ी ओर न ही किसी जागीरदार को।
मारवाड़ का वह हीरो जो रियासतों के एकीकरण को लेकर सहसा विलेन की भूमिका में आ गए और सदा के लिए इसी रूप में स्थापित हो गए। क्योंकि असल पन्नों को न तो पलटा गया और न ही पलटने वालों पर गौर किया गया।
गाय की काली पूंछ को 'काली है' काली है' कहकर इतना प्रचारित किया गया कि उसके सफेद रंग की ओर किसीका ध्यान ही न जा पाए।
एक पच्चीस वर्ष का युवक शासक अपनी प्रजा के बेहतर भविष्य के लिए यहां वहां भटककर वह हरसंभव प्रयास करता है जिससे मारवाड़ की प्रजा किसी निर्मोही की बेटी की तरह अपने शासक को यह कहकर न कोसे कि-
"हमें किसके हाथों सौंप दिया?"
एक युवक जो भारत के तत्कालीन रियासती मामलों के सचिव को उसीके घर में गरजकर यह कहने का साहस रखता है कि- "अगर तुमने जोधपुर की जनता को भूखों मारा तो मैं तुम्हें मार दूंगा।"
जिन्होंने जिन्ना के ब्लैंक चैक ऑफर को ठुकराकर भारत को चुना, वे अचानक विलेन क्यों बन गए?
दरअसल महाराजा की विलय को लेकर कुछ शर्तें थीं जो मारवाड़ की जनता के हितों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई थी।
11 अगस्त 1947 की सुबह दिल्ली में वायसराय हाउस पहुंचकर उन्होने लॉर्ड माउंटबेटन और वीपी मेनन से उन शर्तों पर बात की जिनमें अकाल राहत के लिए खाद्य सामग्री और जोधपुर से कच्छ के बंदरगाह तक रेलवे लाइन का प्राथमिकता से निर्माण प्रमुख था। मेनन जी ऊंचे-नीचे हुए तो महाराजा गरजे और फिर एक बदनाम कहानी निकलकर आई जिसको कुछ लोगों ने खूब भुनाया।
वो ज़हर देता तो सब की निगह में आ जाता
सो ये किया कि मुझे वक़्त पे दवाएँ न दीं
किंतु यह प्रजा है न? यह धान के साथ लूण भी खाती है। वह अपने शासक को जानती थी।
इन फिजाओं को कुछ कुछ स्वयं बापजी (महाराजा ) भी भांप चुके थे इसलिए उन्होंने जनतंत्र को शिरोधार्य कर प्रथम चुनावों में सक्रिय भागीदारी निभाने की सोची।
1952 के प्रथम चुनावों में बकायदा एक चेतावनी वाला व्यक्तव्य जारी किया गया –
"यदि राजा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें अपने प्रिवीपर्स (हाथखर्च) और विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ेगा।"
उक्त धमकी भरे वक्तव्य का जवाब जोधपुर महाराजा ने निर्भयता से दिया जो 7 दिसंबर,1951 के अंग्रेजी दैनिक “हिंदुस्तान-टाइम्स” में छपा –
“राजाओं के राजनीति में भाग लेने पर रोक-टोक नहीं है। नरेशों को उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए हायतौबा करने की क्या जरुरत है? जब रियासतें ही भारत के मानचित्र से मिटा दी गई, तो थोथे विशेषाधिकार केवल बच्चों के खिलौनों सा दिखावा है। सामन्ती शासन का युग समाप्त हो जाने के बाद आज स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व नरेशों के सामने एक ही रास्ता है कि वे जनसाधारण की कोटि तक उठने की कोशिश करें।..एक निरर्थक आभूषण के रूप में जीवन बिताने की अपेक्षा उनके लिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि राष्ट्र की जीवनधारा के साथ चलते हुए सच्चे अर्थ में जनसेवक और उसी आधार पर अपने बल की नींव डाले।"
1952 में हुए पहले आम चुनाव में महाराजा ने मारवाड़ में जनतंत्र की विजय पताका फहरा दी । महाराजा ने उस चुनाव में राजस्थान के 35 स्थानों पर अपने समर्थित प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में उतारे जिनमें से 31 उम्मीदवार जीते।
इस चुनाव में मारवाड़ के जोधपुर, जैसलमेर, सिरोही, पाली, जालोर, बाड़मेर की 26 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली।
जोधपुर में महाराजा ने 78.62 प्रतिशत वोट लेकर मुख्यमंत्री पदारूढ़ जयनारायण व्यास जी को हराया। यहां व्यास जी सिर्फ 21.38 फीसदी वोट पा सके।
यही नहीं व्यास जी ने जालोर विधानसभा क्षेत्र से भी चुनाव लड़ा, जहाँ महाराजा ने एक जागीरदार को उतारा, वहां भी व्यास जी जीत नहीं पाये|
जोधपुर-बी और जालोर-ए दो सीटों पर चुनाव लड़ने वाले व्यास जी दोनों ही जगह बुरी तरह हार गए। मारवाड़ की चारों लोकसभा सीटें जोधपुर, बाड़मेर-जालोर, सिरोही-पाली, नागौर-पाली भी कांग्रेस गंवा बैठी।
एलएस राठौड़ अपनी 'लाइफ एंड टाइम ऑफ महाराजा हनवंत सिंह' किताब में लिखते हैं- "महाराज हनवंत सिंह गजब के आकर्षण से मारवाड़ में जबरदस्त लोकप्रिय थे।"
एक युवक भारत भर में उभरती राजनीतिक कूटनीति पर अपनी प्रजा के प्रेम और उनके अटूट विश्वास के बल पर विराम चिह्न तो लगा देता है मगर उस विजय के सुख को अपनी आंखों से देखने के लिए जीवित नहीं रहते।
अट्ठाइस की उम्र भी क्या उम्र रही होगी मगर बिल्लियों के भाग के छींके टूटे। आजाद भारत की राजनीति में भूचाल लाने वाले ये युवक महाराजा मारवाड़ की जमीन से ऊपर उड़े तो ऐसे उड़े कि फिर कभी मारवाड़ न लौटे। जिस विमान से कलाबाजियां दिखाकर उन्होंने वी पी मेनन की सांसें थमा दीं वही विमान (शायद) धोखा दे गया।
(कुछ इस घटना को साजिश मानते हैं तो कुछ महज दुर्घटना)
जो भी हो, मारवाड़ की जनता जनतंत्र की अभूतपूर्व विजय का जश्न मना ही रही थी कि सबको भीषण आघात पहुंचा। मृत्यु शाश्वत सत्य है किंतु किसी विजेता की मृत्यु निश्चय ही मार्मिक तो होगी।
विजय मिले पर नायक ही न रहे तो कैसी विजय और कैसा उल्लास। किलकारियां चित्कारों में बदल गई।
'मैं थांसूं दूर नहीं हूं' - का आश्वासन देकर दु:खद रूप से अपनी इहलीला समाप्त कर लेने वाले 'मारवाड़ धणी' के शोक में मारवाड़ के कई घरों में चूल्हे नहीं जले।
पार्थिव देह को केश देने के लिए जोधपुर की सड़कों पर कतारें लग गई। उस समय की कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ बताते हैं कि पांच सौ से अधिक नाइयों ने दिन-रात लगकर हजारों लोगों का केश कर्तन किया।
सिकंदर ने सच ही कहा-"साहस के साथ जीना और चिर प्रसिद्धि छोड़कर मरना सबसे खूबसूरत बात है।”
नीलू शेखावत