Highlights
गांवों के टाबरों के और खासकर पहले के टाबरों के संग्रह में रेडिमेड खिलौने बहुत सीमित होते। अपने खिलौने हम स्वयं तैयार करते। कोलगेट के ढक्कनों से गिलास, वासलेण के ढक्कन की थाली और उसके हांडी जैसे कांच के जार की बिलोवणी, नीम के किटकलों के चमचे।
मनफूली
जिमना अगूणी तो मनफूली आंथूणी।
जिमना धोळी धप तो मनफूली लीली करच।
जिमना भोळी हल्दी तो मनफूली संठवा सूंठ।
जिमना ठंडी टीप तो मनफूली बळती लाय।
बावजूद इसके वे दोनों जोड़ीदार थीं। दोनों की ठाणें अगल-बगल। प्रेमचंद के हीरा-मोती की तरह साथ रहती,साथ घूमती, साथ चरती, यहां तक कि दस-बीस दिन के अंतराल में साथ ब्याती। जिमना लाई 'टोगड़ियो' (बछड़ा)तो मनफूली भी टोगड़ियो।
बारह महीने के भीतर तो ए पुरुष का पुरुष ऊंचा (अपना हाथ अपने कंधों से ऊपर तक उठाइए) और ए लंबा ( अपने हाथ पूरे खोलकर फैलाइए) नागौरी 'खोदा' (बैल) तैयार। गले में झालरी-सी लटकती कामळ, हाथ भर की थूही,थाली-सा चौड़ा ललाट और शंख-सा पतला मुख।
छोळ्यां चढ़ने पर बर्फ-से नंदी पूरे बाड़े में फदके मारते। मगर साल दो साल में गाय के जाये की वही नियति- के मेड़ते, के परबस्सर, के नागौर। जिमना मनफूली कुछ दिन ढां-ढां करतीं फिर अपने नए बिचिए पर जीव ढाबती।
गांवों के टाबरों के और खासकर पहले के टाबरों के संग्रह में रेडिमेड खिलौने बहुत सीमित होते। अपने खिलौने हम स्वयं तैयार करते। कोलगेट के ढक्कनों से गिलास, वासलेण के ढक्कन की थाली और उसके हांडी जैसे कांच के जार की बिलोवणी, नीम के किटकलों के चमचे।
तीन-चार रबड़ की गुड़ियों के मुंड उड़े धड़ या धड़ गुमे मुंड, मिट्टी के चूल्हे-चाकी और माचिस की पेटियों में चिंदियों के बेस।
यही संसार होता जिसे गाड़िया लुहार की तरह माकूल डेरे की तलाश में लिए हुए हम इधर-उधर घूमते।
ऐसे संकटकाल में घर के कुछ स्थान बालकों को पनाह देने के लिए सदैव तत्पर रहते। जैसे सीढ़ियों का ऊपरी चौका, खड़े माचों के पीछे का स्थान या धन-सांसरों की ठाणें। इनमें भी सबसे निरापद ठाणें थी। न कोई रोकने वाला न टोकने वाला।
किंतु कई बार खेल में तल्लीन हो जाने से समय का पता न चलता और ठाण के मालिक आकर फंफेड़ देते जिसका समाधान हमने निकाला-जिमुड़ी की ठाण। जिमुड़ी (जिमना) वही शांत-श्वेत-शुभ्रा गाय जिसमें क्रोध जैसा आवेग विधाता ने डाला ही न था।
मुट्ठी भर काजल से आंज दी गई सी उसकी काली आंखें रोष से अनभिज्ञ थी। हम घूंघट में घुटमुट बीनणी बने उसके सींगों से लंबूटें, चाहे थूही या पूंछड़े से, उसे विशेष फर्क न पड़ता।
मोक्षपरायण मुनि की तरह वह वीतक्रोध उगाळी करती रहती। हमारी बाल गिरस्थी में सब प्रबंध था किंतु गाय न थी जिसकी पूर्ति हम बकरी के छोटे-छोटे बच्चों से करते किंतु जैसे ही दूध निकालने को हाथ लगाते, वे लात मारकर भाग जाते।
फिर इतने छोटे बच्चों को हम खूंटे से बांध भी न सकते थे न। हमने बाड़े में बंधे प्रत्येक पाडी-टोगड़ियों से मिन्नत की किंतु दूध के सवाल पर सब या तो भेंटी दिखाते या लात मारकर भागते।
हारकर हमने जिमु के थन खींचकर ही दूध दुहने वाले पार्ट अदा किए।
कायदे से हमारी गाय बलिश्त भर से बड़ी न होनी थी किंतु सब छोटे जिनावरों के असहयोग के चलते हमें 'आंग्यों' के घर में 'डांग्यों' वाली गाय रखनी पड़ी। (एक स्थापित बाल मिथक जिसे आज तक बाल-बच्चे मानते आ रहे हैं, कि हमारी दुनिया की तरह पाताल में भी एक दुनिया है। वहां के लोगों का आकार अंगुल भर का होता है इसलिए उनको आंग्या कहते हैं।
उनसे ऊपर फिर एक और एक दुनिया जिसमें बलिश्त भर वाले भिश्ते रहते हैं। उनके ऊपर हम डांग भर की कद काठी वाले 'डांग्या' और आकाश में बांस जितने लंबे लोग 'बांस्या'। ऐसा प्रजातीय वर्गीकरण बाल-बिरादरी के अतिरिक्त कहीं नहीं मिलता।)
इस प्रकार हमारे बीस-तीस 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः' ढांढों वाले बाड़े में जिमु एक मात्र 'बच्चा फ्रेंडली' प्राणी थी।
उधर उसकी जोड़ीदार मनफूली। बिना 'खतरा' लिखी ग्यारा हजार की लाइन। पक्षपाती इतनी कि अपनी बिरादरी को कुछ न कहे, मिनख जात के भी उम्रदराजों का तो लिहाज करे पर छोटे बच्चे देखे नहीं की नाहरी बनी नहीं।
अपने गोल किंतु जिमु की तुलना में किंचित विस्तार लिए जेळी जैसे सींगों से हर समय कुचमादी बच्चों को उठाकर फेंकने के लिए तत्पर रहती।
उसके इस व्यवहार के कारण 'लीली' होते हुए भी मैं उसे 'काळती' कहकर अपनी खीझ निकालती। रंगभेद प्रपंच से कोसों दूर मनफूली यदि बोल सकती तो एक ही वाक्य उंगली के उपेक्षापूर्ण संकेत से बोलती- "दूर! दूर! जियादा मुंह नहीं लगनेका!"
फुरसत के पलों में दोनों गाएं एक दूसरे को चाटती या एक दूसरे की गर्दन पर गर्दन डाल ऊंघती। हमने जब-जब यह दृश्य देखा, झाळापोळ लग गई। जिमु को खूब कोसा।
अपने पक्ष को विरोधी पाळे में देखते ही हम उसकी पूंछ खींच-खींचकर उठाने लगते और वह अपनी साथी के कान में-" ले बाई जाऊं! कचरवाय आयगी"- कहकर खड़ी हो जाती।
दूध देने में मनफूली जिमु से सवाई थी इसलिए बड़ों का स्नेह भी उसके प्रति 'चिमटी खांड' अधिक ही था। कई बार उसको कामड़ी के सपीड़े मारने का मन करता पर एक तो वह खुद नाहरी-धुतारी ऊपर से बड़ों की शह।
मनफूली को कोई फूल की छड़ी भी छुआ दे तो कोगत! वह अपना पक्ष खूब भुनाती और बदले में हम सिर्फ भुनभुनाते।
एक रोज की बात। पशुबाड़े से लगते बीघे भर के टुकड़े में गुंवार बोया हुआ था। अपने बगल में फैले लीले गुंवार की खुशबू पशुओं को आकर्षित करती।
तमाम सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद कभी घोन-बकरियां तो कभी पाडी-टोगड़े, कभी गाएं तो कभी भैंसें आते-जाते गुंवार पर झपीड़ मार जाते। उन दिनों एक दो व्यक्ति को लठ्ठ लेकर बाड़े के आड़े खड़े रहना पड़ता तब जाकर सांसर खूंटे बंधते।
उस रोज असावधानीवश घर की फाटक खुली रह गई। बीड़ से लौटते पशुओं का नेतृत्व मनफूली उनसे पचास पावंडे आगे चलते हुए कर रही थी। फाटक खुली होने से किसीको उसके आगमन का अंदेशा तक न था।
छूटते ही उसने गुंवारवाले बाड़े के झाटे-भाटे तोड़े और दनदनाती हुई बीच बाड़े पहुंचकर गुंवार सल्टाने लगी। मुंडेर पर घोड़ी पिलाणकर बैठे 'आल-फोगड़े' करते हुए मेरी नजर गुंवार के बीच से बार-बार ऊपर उठती पूंछ पर पड़ी जिसे मनफूली मक्खियां उड़ाने के लिए हिला रही थी। मैंने जोरदार हाका किया- "मनफूली सगळो गुंवार खायगी हऽऽऽ...।"
शायद किसीने नहीं सुना। मैंने सीढियां उतरते हुए दो-तीन बार फिर दोहराया। तब तक घर में तूफान। एक के बाद एक पशु फाटक में प्रवेश करने लगे। भागो-भागो-भागो! सारे एक साथ गुंवार में घुस गए तो पूरा खेत रौंद डालेंगे।
सबने लाठियों से घेर घारकर झुंड को तो बाड़े में बंधवा दिया पर मनफूली अब भी गोठ कर रही थी। उसकी तरफ मुझे धकेला गया। सामने पड़ने का अंजाम मैं जानती थी इसलिए साफ मना कर गई।
किंतु इस आपाधापी में 'जा,जा,जा' का स्वर इतना तीव्र और भयसिक्त था कि मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था। निदान हाथ भर के डोके के सहारे अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में कूदना पड़ा।
अपने कद से ऊपर उठे गुंवार को चीरकर मनफूली तक पहुंचना ही अपने आप में चुनौती थी। खंपी से पूरा शरीर जलने लगा। बीचोंबीच पहुंची तो बंवळ के नीचे काची-काची फलियों के गुच्छों को झल्ड-झल्ड कर उदरस्थ करती मनफूली फूंफायी।
करीब जाने की मेरी हिम्मत न हो रही थी और दकालों से उसे कुछ फर्क न पड़ रहा था। उधर बाहर चिल्लमचिल्ला मची थी- "जल्दी निकाल वर्ना नास कर देगी।"
सब ओर से घिरी हुई मैं निरीह दो कदम आगे बढ़कर 'हो-हो' का हाका करती हुई मनफूली पर डोके बरसाने लगी। उसने आव देखा न ताव। सिर नीचा करके डाला अपनी 'दुसिंगी' में और पूरे वेग से उछाला।
अगले ही पल मैंने भय और चीख से चुंधियायी आखों से खेत का ड्रोन व्यू देखा। सांस जैसे बंवळ के डाळों में अटक गई। ऊपर पीले-पीले फूलों वाला बंवळ और नीचे हरे कराच पत्तों वाला गुंवार। इन दोनों के बीच त्रिशंकु की तरह झोले खाती मैं।
जमीन से अड़कर जैसे ही 'धमीड़' के साथ मोरिये बोले, मैं जोरदार अल्डायी।
"अरे! टाबर ने मार काढी रे मार काढ़ी!"
'लाठी-छल्डी समूह' मेरे बचाव में दौड़ा। मनफूली अब किसी पंगे के मूड में न थी। स्थिति भांपकर दूसरी तरफ से बाड़ कूदकर अपने खूंटे चुपचाप खड़ी हो गई।
इधर मनफूली की कृपा से हम स्वर्ग से सीधे शूल-शैया पर उतरे। इधर-उधर बिखरी बबूल की शूलों से जगह-जगह बेधन हुआ। मनफूली का खौफ बैठा सो अलग।
दो-तीन दिन बाद जब मैं बाड़े में गई तो ठाण में चारे के 'ढबसे' भरती मनफूली ने मेरी ओर आंखें तरेरते हुए देखा। मानो कह रही हो- "और खा चुगली।"
- नीलू शेखावत