मीरां चरित: बुद्ध, महावीर और मीरां जिन्होंने मन के द्वार ऐसे खोले कि उसमें पूरा संसार समा जाए

बुद्ध, महावीर और मीरां जिन्होंने मन के द्वार ऐसे खोले कि उसमें पूरा संसार समा जाए
Meerabai
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एक पुस्तक मीरां चरित में पढ़ा कि उनका नाम मिहीरा दिया गया था अर्थात सूर्य जैसी। शरद पूर्णिमा को मिहीरा के रूप में ऐसे चन्द्र का जन्म हुआ जो बाद में मीरां हो गई और ऐसी हुईं कि सूफीज्म में जाते मुल्क को कृष्ण आराधना की अनूठी सरगम दे गई।

भारत के इतिहास में राज परिवारों में से 3 नाम सर्वाधिक अपील करते हैं इनमें से दो अपने राष्ट्र के राजा बनने थे और एक महारानी। तीनों ने सर्वोच्च पदों को ठोकर मार दी और युगों के हृदय सम्राट बन गए। एक बुद्ध थे, दूसरे महावीर और ​तीसरी शख्सियत जिसकी आज मैं बात करने जा रहा हूं वह राजपूताने में पैदा हुई प्रसिद्ध और आज तक निर्विवादित शख्सियत हैं। भारत में राजस्थान, गुजरात से लेकर बंगाल तक ही नहीं बल्कि प्रत्येक राज्य में भगवान कृष्ण को उनके गीतों के माध्यम से प्रतिष्ठित किया जाता है। वे किसी सीमा में नहीं बांधी जा सकती। कुछ लोग उनकी जन्मतिथि श्रावण सुदी 1 भी बताते हैं। इस पर मतभेद है, लेकिन इस लिखने पर इस ​मतभेद कोई फर्क नहीं पड़ता। चूंकि वह राजनीतिक प्रसिद्धी का आधार नहीं हो सकती, लिहाजा उनके जन्मदिन पर बधाई संदेश इतने नजर नहीं आते अपने समय में तत्कालीन व्यवस्थाओं का विरोध भी उन्होंने झेला। वह एक क्षत्रिय परिवार की बेटी थीं और संन्यासी कैसे हो सकती थीं। 
परन्तु वह तो कह गईं...

मैं तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

जी हां! मीरांबाई!

हालांकि अब अब हम शान से उनके विरोध किए जाने को नकारते हैं, लेकिन राजपूताने में सदियों तक बेटियों का नाम उनके नाम पर नहीं रखा गया। राजपूतों में तो आज भी बहुत कम। एक पुस्तक मीरां चरित में पढ़ा कि उनका नाम मिहीरा दिया गया था अर्थात सूर्य जैसी। शरद पूर्णिमा को मिहीरा के रूप में ऐसे चन्द्र का जन्म हुआ जो बाद में मीरां हो गई और ऐसी हुईं कि सूफीज्म में जाते मुल्क को कृष्ण आराधना की अनूठी सरगम दे गई।

पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥

आज भी जन्मदिन की सोशल मीडिया पर पोस्टों की होड़ लगाने वाले नेताओं को उनका जन्मदिन पता नहीं, कि शरद पूर्णिमा को वे धरती पर आईं, और सदियों तक के लिए अंधकारभरे मार्ग पर एक रोशनी डाल दी जो तब से आलोकित हो रहा है जब वे दुनिया में थीं और तब तक होता रहेगा जब हम नहीं होंगे। वास्तव में शरद पूर्णिमा के चंद्र समान ही उनकी कीर्ति धवल है। राजपूताने के इतिहासिक चरित्रों में अधिकांश की ख्याति राज्य संबंध, तीर—तलवार, भाले, बरछे, युद्ध, लड़ाई जैसे शब्दों से उज्ज्वलित हुई है और वे आदर्श चरित्र हमारा मार्गदर्शन भी करते रहे हैं। परन्तु...मीरांबाई!

मुझे आश्चर्य होता है उनके चले जाने के सैकड़ों सालों बाद भी उनके हरजस आज भी उसी रूप में गाए जाते हैं। एकमात्र ऐसी शख्सियत जिनके पीछे कोई पंथ नहीं, कोई चेलों की फौज नहीं, उनकी साहित्य रचनाओं का प्रचार करने वाले महिमामंडक नहीं। उन्हें यदि भारत में महिला सशक्तीकरण की शुरूआत करने वाली कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वह भी धुर मुगलकाल के वक्त में। उनकी ख्याति ऐसी थी कि तत्कालीन बादशाह अकबर तक उनके दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाया और सुर सम्राट तानसेन के साथ वेश बदलकर पहुंचा। कितने ही गीतकार और संगीतकार, गायक उनके गाए पदों को रिपीट करके महान बन गए। कभी आप पढ़िए और फिर बॉलीवुड प्रेमगीतों को सुनिए।

नैना निपट बंकट छबि अटके।
देखत रूप मदनमोहन को, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक टेढी मनौ, अति सुगंध रस अटके॥
टेढी कटि, टेढी कर मुरली, टेढी पाग लट लटके।
'मीरा प्रभु के रूप लुभानी, गिरिधर नागर नट के॥

आपको पता चलेगा कि गुलजार, जावेद अख्तर ही नहीं बहुत सारे गीतकारों ने मीरांबाई की कापी की है। परन्तु मीरां ने राज्य की पटरानी के पद को ठोकर मारकर ईश्वरीय प्रेम रचा और बॉलीवुड ने उनकी रचनाओं में से एक—एक लाइन लेकर भौतिक।

पपीहा रे पिव की बाणी ना बोल।

भजन गायक विनोद अग्रवाल के अधिकांश गीतों में मीरांबाई की झलक मिलती है।

आशो तक कह गए कि मीरां की दास्य भाव की श्रद्धा थी, लेकिन समर्पण की। राधाजी और मीरां में अंतर यही था पाने का और सौंपने का। राधा कृष्ण को पाना चाहती थीं वे द्वारिका चले गए, नहीं मिले। कुमार विश्वास के शब्दों में कहूं वे कहती थीं तुम्हारी राधा को भान है तुम सकल चराचर में हो समाए, बस एक मेरा है भाग्य मोहन जिसमें होकर भी तुम नहीं हो। परन्तु मीरां ने हमेशा स्वयं को सौंपने का भाव ही रखा। तुम्हें ये जगह ढूंढता है कान्हा मगर उसे ये खबर नहीं है। बस एक मेरा है भाग्य मोहन अगर कहीं हो तो तुम यहीं हो

हरि मेरे जीवन प्राण अधार।
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
मीरा कहै मैं दासि रावरी, दीज्यो मती बिसार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार

वीर कुंवरी और रतनसिंहजी के घर मेड़ता में जन्मीं और चित्तौड़ में उनका विवाह राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ। यदि आप भक्ति के बजाय गृहस्थ जीवन को स्वीकारतीं तो मेवाड़ का इतिहास दूसरा होता। परन्तु वे तो सब कुछ त्यागकर युगों की हृदय साम्राज्ञी उसी तरह पर हो गईं जैसे बुद्ध और महावीर हो गए।

पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो।। 
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।।
खायो न खरच चोर न लेवे, दिन-दिन बढ़त सवायो।।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।।
"मीरा" के प्रभु गिरधर नागर, हरस हरस जश गायो।।

कुछ भी नहीं चाहिए था, क्या चाहिए था उन्हें

बसो मोरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति सांवरि सूरति, नैणा बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती-माल।।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।।

मीरां की भक्ति में एक बड़ा सहयोग उनके पति भोजराज का भी और उनके देवलोक होने के बाद बाद श्वसुरजी महाराणा संग्रामसिंहजी का भी रहा। सगुण और निर्गुण के बीच की धारा सजह उनके गीतों में नजर आती है।

तुम सुणो जी म्हारो अरजी।
भवसागर में बही जात हूँ काढ़ो तो थारी मरजी।
इण संसार सगो नहिं कोई सांचा सगा रघुबरजी।।
मात-पिता और कुटम कबीलो सब मतलब के गरजी।
मीरा की प्रभु अरजी सुण लो चरण लगावो थारी मरजी।।

शैव भक्ति करने वालों ने कृष्ण आराध्या को ऐसा अपनाया कि आज चित्तौड़ के किले में महारानी पद्मिनी के महलों के साथ मीरां बाई का वह मंदिर भी अलौकिक रूप से आकर्षित करता है, जहां उनके द्वारिकाधीश पूजे गए। आज भी आमेर के किले में मीरांबाई के पूजे गए द्वारिकाधीश प्रतिष्ठित हैं। कभी मौका मिले तो दर्शन जरूर करें।
खानवा के युद्ध के बाद राणा सांगा के निधन के बाद मेवाड़ जब संकट की स्थिति में था। मीरांबाई को देवर विक्रमादित्य और ननद उदाबाई के दिए कष्टों की वजह से मेवाड़ छोड़ना पड़ा कितने सुंदर पद लिखे।

नहिं भावै थांरो देसड़लो जी रंगरूड़ो॥
थांरा देसा में राणा साध नहीं छै, लोग बसे सब कूड़ो।
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो चूड़ो॥
काजल टीकी हम सब त्याग्या, त्याग्यो है बांधन जूड़ो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बर पायो छै रूड़ो॥

सौभाग्यकुंवरी राणावत की ​पुस्तक ​मीरां चरित में उल्लेख है कि जब उन्होंने मेवाड़ छोड़ा तब तक चित्तौड़ का दूसरा जौहर नहीं हुआ था। वे मेड़ता जा रही थीं। सभी से मुलाकात के वक्त छह माह के उदयसिंह को उन्होंने पन्ना को संभलाते हुए इशारा किया था कि तुम इनका खास ध्यान रखना। आगे इतिहास में वही पन्ना त्याग और स्वामिभक्ती के परिचय का प्रतीक बनीं। शायद उन्हें पहले से भविष्य का आभास था। अपने लक्ष्य के प्रति, अपनी आस्था के प्रति मीरांजी हमें सीख देती हैं कीजो प्रीत खरी।

बादल देख डरी हो, स्याम! मैं बादल देख डरी।
काली-पीली घटा ऊमड़ी बरस्यो एक घरी।
जित जाऊँ तित पाणी पाणी हुई भोम हरी।।
जाका पिय परदेस बसत है भीजूं बाहर खरी।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी कीजो प्रीत खरी।

लोगों के पढ़ने की क्षमताओं से बाहर यह लेख जा रहा है। परन्तु उनके उपर लिखने को इतना कुछ है कि यहां पूरा कर पाना संभव ही नहीं। फिर कभी बात करेंगे। हमारी पूर्वज और मार्गदर्शक मीरांबाई को नमन। जो मार्ग उन्होंने सुझाया, उस पर हम कुछ कदम भी चल सकें तो यह आज के वक्त सबसे ज्यादा जरूरी है।

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