मिथिलेश के मन से: हाजी मस्तान! तुम्हें सलाम....

हाजी मस्तान! तुम्हें सलाम....
hazi mastan
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हम जब आपरेशन पर उतरेंगे तो नौटंकी के तुम्हारे सारे ठाठ धरे रह जाएंगे, तुम्हारे तमाम परदों के चीथडे़ उड़ जाएंगे और जगह नहीं मिलेगी सर छुपाने की। इनाम- इकराम झटक रहे हो तो झटको और मौज करो। हमारी लघुता हमें प्रिय है। उस ओर झांकने की भी जुर्रत मत करना।

हाजी मस्तान! तुम्हें सलाम....

शीर्षक थोड़ा अटपटा लग सकता है। लेकिन लगता रहे। हम चाहते भी हैं कि अटपटा लगे। बेहूदा भी। तीन दिनों के अपने पटना प्रवास में जो चीज हमने बहुत ही शिद्दत से महसूस की, वह और कुछ हो, न हो- सुपाच्य और सुग्राह्य तो हरगिज नहीं है।

पटना की अखबारनवीस और साहित्यिक बिरादरी के कुछेक चुनिंदा और बेहद निजी से लगने वाले चेहरों और प्रतीक चिन्हों को छोड़ दें तो न वह गांधी मैदान रहा, न वह गोलघर, न वह फ्रेजर रोड रहा न वह करबिगहिया, न वह बांकीपुर रहा और न वह बांसघाट।

आप पूछ सकते हैं- चेहरों का जिक्र करते हुए मोहल्लों के जिक्र का भला क्या तुक? तुक है जनाब। मोहल्ले हाथ- पैर होते हैं किसी शहर के। दिमाग होती हैं उसकी गलियां। सड़कें होती हैं उसका दिल।

रफ्तनी होती है थर्मामीटर जो बताती है कि जातक को अभी मोर्चरी के हवाले करने की जरूरत नहीं है। कोई शहर सिर्फ आबादी का नाम नहीं है।

होता तो हर समंदर को भी किसी न किसी विराट शहर का नाम मिल जाना चाहिए था क्योंकि वहां भी तो आबादी रहती है- मछलियों की, आक्टोपस की, सांपों की, लुटेरों की, तस्करों की। वहां भी तो होते हैं लाइट हाउस जो बताते हैं कि किस सीमा के आगे जाना रिस्की है या किस दिशा में जाना ठीक रहेगा।

सब कुछ शहरातू ट्रैफिक जैसा वहां भी तो है। लेकिन शहर सिर्फ इसलिए शहर नहीं होता कि वहां आबादी बसती है। वह इसलिए भी शहर होता है क्योंकि वहां आदमी बसते हैं- आपके सुख- दुख में काम आने वाले, आपके लिए उदास होने वाले, आपसे धौलधप्पा करने वाले, आपसे लड़ने वाले और शदीद तकलीफ में आपके सिरहाने खड़े होने वाले, आपको भरोसा दिलाने वाले कि जो है, उसे बदलना है और यह काम तुम्हारे जैसे लोग ही करेंगे।

इस बार के पटना दौरे में हमें इनमें से अधिकांश चीजें गायब मिलीं और हम मायूस हुए। पहले ऐसा नहीं था। पहले एक फोन जाता था कि हम आ गये और फिर धड़ाधड़ पूछताछ शुरू हो जाती थी: कब तक हो? कहां टिके हो? मुलाकात कैसे होगी? तुम आओगे या हमीं आयें? अब यह पुरखुलूस अंदाज़ जाता रहा। हम तब भी मान लें कि पटना वही है जिससे हमने एक ज़माने में बेपनाह मोहब्बत की थी और जो मोहब्बत एक ज़माने तक चलती रही?

यकीनन ऐसा होना नहीं चाहिए और अगर ऐसा है तो हम अपने को धोखे में रख रहे हैं। दुनिया बहुत बदली है। तमाम छोटे शहर आकार में बड़े होते जा रहे हैं और सरोकार में दड़बे। जाहिर है, प्राथमिकताएं बदली हैं और मनुष्य के रूप में बचे रहने की अलामत का उसी हिसाब से क्षरण भी हुआ है।

ऐसे में क्या हैरत कि हम अपने ही घर में अजनबी हो गये। लेकिन हैरत है। तब भी है। होनी भी चाहिए। इसलिए होनी चाहिए क्योंकि जिन कुछेक लोगों ने पटना शहर की 1980 के दशक की चमकदार पत्रकारिता का अपने कूड़ा साहित्य के छपने- छपाने की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया.

जिनके पास अपना और खालिस अपना कहे जाने लायक कभी भी कुछ नहीं रहा, जिनका अपना लिखा- पढ़ा हमेशा दो कौड़ी का रहा और जिनके लिखे का न तो कभी पाठकीय मानमूल्य रहा और न बेचकीय, जो साहित्य संपादकों और शीर्षस्थ अदीबों की चेलहाई करते हुए दिल्ली और दीगर जगहों की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में ' हां जी, हां जी' का हांका लगाते रहे.

और तमाम कमतरी के बावजूद ऐसी पत्रिकाओं में बाद के दिनों में मुकाम पाते गये, जिनकी जुबान कभी हमारे सामने नहीं खुलती थी, जिनमें कभी यह साहस नहीं हुआ कि खुलेआम बहस करें, जो या तो जोकर की भूमिका मे़ं रहे या फिर मुसाहिब की- उन्हें अब महसूस हो रहा है कि हम न तो पत्रकार हो पाये और न लेखक।

बस हम नौकरी करते रहे। हम इस बात पर शर्मिंदा नहीं हैं कि हमने जीवन भर नौकरी की लेकिन इस टिप्पणी से आहत जरूर हैं कि आप जो कह रहे हो और जिसके बारे मे़ं कह रहे हो, वह पटना में बीसेक साल तक तुम्हारी नजर में जहीन और आलिमफाजिल कैसे रहा? क्या तुम भयभीत थे? किससे? वह कोई गुंडा मवाली था? वह कोई पुलिस का मुखबिर था? वह सत्ताबाज था? वह दलाल था? वह पत्रकार नहीं था?

उसने टाइम्स का अखिल भारतीय कंपटीशन फेस नहीं किया था? वह राजेंद्र माथुर की बुआ के मामा के जीजा का बहनाई था? बाद के दिनों में वह तीन अखबारों का संपादक बिना पढ़े- लिखे, कोदो दे कर हो गया?

तुम्हारी ऐसी टिप्पणियां एकाधिक जगहों से चलती हुई हमारे पास तक भी पहु़ची हैं और हम चाहते हैं कि पहले तुम लिखना सीख लो। छपना- छपाना और गोल गोलैती में बैठना- उठना, गुजिश्ता दिनों के टेलीफोन आपरेटरों की तरह इधर का निकालने और उधर खोंसने की आदत से तुम बाज आओ, सीना थोड़ा कम चौड़ा रखो, पेट का आयतन थोड़ा घटाओ, लगातार पढ़ो और कुछ ऐसा लिखो जो याद रह जाए।

किसी लेखक की मिमिक्री तुम्हें लेखक नहीं बना सकती- यह हमेशा ध्यान रहे। तुम्हारी भाषा बहुत नकली है, इसलिए कि तुम्हारा समूचा जीवन ही नकली रहा। जीवनदृष्टि भी। हम चाहते हैं और हमारी सदिच्छा है कि तुम लेखक बनो और तुम लेखक नहीं, साहित्य का हाजी मस्तान बने रहना चाहते हो।

हाजी मस्तान जैसे लोग लेखक नहीं हो सकते हैं। पाइरेसी ऐसे लोगों को कभी लेखक बनने नहीं देती। तुम्हारे इस धतकर्म को सलाम! तुम्हारे भीतर नखशिख समाये हाजी मस्तान को सलाम। हम खलु वंदना कर लेंगे। हम खामोश रह लेंगे लेकिन खामोश आदमी जब वाचाल होता है तो जानते हो न कि क्या होता है?

तब खपड़ा से खजुआना पड़ता है। काहे को अपनी सद्गति कराने पर आमादा हो? हम जब आपरेशन पर उतरेंगे तो नौटंकी के तुम्हारे सारे ठाठ धरे रह जाएंगे, तुम्हारे तमाम परदों के चीथडे़ उड़ जाएंगे और जगह नहीं मिलेगी सर छुपाने की। इनाम- इकराम झटक रहे हो तो झटको और मौज करो। हमारी लघुता हमें प्रिय है। उस ओर झांकने की भी जुर्रत मत करना।

( क्रमश:)

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