मिथिलेश के मन से: रंग बचाने का जुनून!

रंग बचाने का जुनून!
mithilesh kumar singh
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'बहुत दूर' हमने इसलिए कहा क्योंकि अगर आप पटना में हैं और उससे मिलना चाहते हैं तो मुमकिन है

आपको कामयाब होने में चार दिन लग जाएं, किसी साझा दोस्त को फोन खड़खड़ाइए तो जवाब  मिलेगा

थोड़ी देर पहले तक तो हमारे साथ था। राम जाने, कहां गया?

'पानी में उसका रंग गिर गया
कुछ नहीं था उसके पास
अपने रंग के सिवा
कुछ करना चाहिए, यह सोच कर वह दर्शकों की भीड़ से उठा
और पानी से रंग को उठाने का करने लगा यत्न
मैं कोई चित्र नहीं बना रहा
बचा रहा हूं
यकीन मानिए, बच जाएगी दुनिया
अगर बच गया आदमी का रंग।'

आपको पता है, यह कविता किसकी है? यह कवि है कौन जो इस सूतक काल में भी आदमी का रंग बचाये रखने को मनुष्यत्व की हिफाजत जैसा जरूरी काम मानता है?

यह कवि है रवींद्र भारती। बहुत दूर रहते हुए भी जो हमारे बेहद करीब होने की प्रतीति दिलाता है- किसी खेत, किसी खलिहान, किसी अमवारी, किसी वीरान हो चुके रेलवे स्टेशन, किसी पोखर, हाथ में बंधे किसी कलावे की तरह।

'बहुत दूर' हमने इसलिए कहा क्योंकि अगर आप पटना में हैं और उससे मिलना चाहते हैं तो मुमकिन है आपको कामयाब होने में चार दिन लग जाएं। किसी साझा दोस्त को फोन खड़खड़ाइए तो जवाब  मिलेगा- थोड़ी देर पहले तक तो हमारे साथ था। राम जाने, कहां गया?

इस वक्त वह कहां होगा या उसे इस वक्त कहां होना चाहिए?

- 'आग, बतास का कोई भरोसा नहीं। ढूंढिए और मिल जाए तो हमें भी बताइएगा। कुछ ज़रूरी काम थे उससे जो हम कहते- कहते रह गये और वह सुनते सुनते। स्साला, बहुत गपोड़ी है। भुलवा देता है गप्प में। लकड़सुंघवा समझिए उसे।'

लेकिन उस रवींद्र भारती के कई- कई चेहरे और हैं। वह जितना विरल कवि है, उतना ही गंभीर नाट्य लेखक भी, उतना ही संवेदनशील रिपोर्ताज लेखक भी, उतना ही प्रवहमान यात्रा वृत्तांतकार भी।

इतने सारे चेहरों के बावजूद रंग बचाये रखने की यह जुनूनी जिद अगर बची हुई है कहीं तो वह गिनेचुने लोग ही होंगे- दूरियों को पाटते हुए और ऐन सिरहाने जा खड़े होने वाले.. और रवींद्र भारती उनमें भी 'छंटाछंटाया' नाम है।

उसी लकड़सुंघवा रवींद्र भारती के ताजातरीन कविता संग्रह ' जगन्नाथ का घोड़ा'  के रूबरू हैं हम। कुछ देर पहले ही यह किताब हाथ आयी है।

हम पढ़ रहे हैं उसे और कोस रहे हैं खुद को- यह सोचते हुए कि हिन्दी की समकालीन कविता का जो बिहार चैप्टर है, उसने तुम्हारे साथ बहुत घटतौली की।

उसने तुम्हें कभी साहिबे मसनद नहीं होने दिया रवींद्र भारती! लेकिन हम लिखेंगे।यह सोच कर लिखेंगे कि हाशिया हर हाल में केंद्र से बड़ा होता है। पहले पढ़ तो लें तुम्हें आद्योपांत।

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