मिथिलेश के मन से: वह लाम पर गया‌ है, लौटेगा भी

वह लाम पर गया‌ है, लौटेगा भी
mithilesh kumar singh
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बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह आदमी नुक्कड़ नाटक भी किया करता था और अक्सर किसी फौजी के रोल में दिख जाता किसी गली, किसी नुक्कड़ पर

ऐक्टिंग इतनी स्वाभाविक कि आप उसे ऐक्टिंग कह ही नहीं सकते

केके अक्सर कहा करता- यार! यह शख्स तो ऐक्टिंग करता ही नहीं। यह तो ओरिजनल कर देता है। फिर ठहाके, फिर मंगज

होगी! ज़रूर होगी तुम्हारी कोई न कोई तस्वीर हमारे पास। किसी जंगखुर्दा आलमारी, दीमकों की भेंट चढ़े किताबों के किसी बंडल, किसी टोकरी, समय की मार से जर्द हो चुके किसी लिफाफे में। लेकिन अब उसका क्या करना।

अब वह तस्वीर ढूंढने का जतन भी हम नहीं करेंगे भाई। अब से तुम स्थायी तौर पर हमारे दिल में रहना। हमें बेदार रखना। टोकते रहना कि खबरदार..आगे खंदकें हैं, खाइयां हैं, आदमी की शकल में रीछ हैं, भेड़िये हैं, लकड़बग्घे हैं...एक तवील सफर है और हम सब को बेनाम सुरंगों के पार जाना है।

यह मुक्तिबोध नहीं हो सकते। यह मुक्तिबोध के बाद के समय के दुर्निवार संकटों से जूझते किसी औसत आदमी का बयान ही हो सकता है। यह औसत आदमी 1970 के दशक के आखिरी सालों में इलाहाबाद विवि के एएन झा हास्टल के सबसे कोने वाले कमरा नंबर नौ में रहा करता था। लेकिन यह पूरा परिचय नहीं है।

पूरा परिचय यह भी नहीं हो सकता कि वह पीजी (अंग्रेजी) में उस दौर का विवि टापर था और उसने पहली बार में ही यूपीपीसीएस में शानदार कामयाबी का परचम लहराया।

परिचय यह भी नहीं है कि उसने इसके फौरन बाद यूपीएससी क्रैक किया और एलायड सेवा ज्वाइन की। परिचय पूरा पाने के लिए आपको एएन झा छात्रावास के उस कमरे में जाना ही होगा जहां की दीवारों पर उस दौर में हाथ के छापे हुआ करते थे।

ये छापे किसी मकबूल फिदा हुसैन की कूंची का कमाल नहीं थे। ये छापे पसीने से पैदा हुए थे जिन्हें उसका हाथ पड़ते ही दीवारों ने जज्ब कर लिया होगा। उस कमरे में और भी बहुत कुछ था।

वहां गेरू से लिखे नारे थे, सत्ता के चरित्र पर मुख्तसर टिप्पणियां थीं, बंदूक का महात्म्य था, माओ थे, चेग्वारा थे, बेतरतीब ढंग से इधर -उधर बिखरे पड़े रोजाना पहनने के काम आने वाले बोसीदा कपड़े थे, ढनढन करते बर्तन थे जिनकी सफाई का खयाल उस वक्त ही आता जब भूख ने कुछ भी मानने से मना कर रखा हो।

यही वह कमरा था जहां वह शख्स रहा करता था। राजेंद्र श्रीवास्तव। दोस्तों के लिए मंगज भाई। राजेंद्र श्रीवास्तव से राजेंद्र मंगज बनने की कथा भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है। लेकिन उस पर फिर कभी।

आबनूसी रंग, दरम्याना कद और बहुत हड़बड़ी वाला यह शख्स खाता बहुत था। हास्टल के दिनों से ही। शायद उसके पहले से भी खाता रहा हो। बहुत भूख लगना, बहुत प्यास लगना, गला सूखते रहना- यह मधुमेह के शुरुआती लक्षण हैं जो बहुत बाद में उस शख्स के साथ गंभीर बीमारी के रूप में चस्पा हो गये। लेकिन वह दौर दूसरा था। वह दौर था अंगूठे दिखाने का। मौत तक को भी। उस दौर में लगता था कि भोजनवीर होना भी एक रियाज है और मंगज ने बड़े श्रम से यह फन हासिल किया होगा। फिर ठहाके। फिर मंगज...।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह आदमी नुक्कड़ नाटक भी किया करता था और अक्सर किसी फौजी के रोल में दिख जाता किसी गली, किसी नुक्कड़ पर। ऐक्टिंग इतनी स्वाभाविक कि आप उसे ऐक्टिंग कह ही नहीं सकते। केके अक्सर कहा करता- यार! यह शख्स तो ऐक्टिंग करता ही नहीं। यह तो ओरिजनल कर देता है। फिर ठहाके, फिर मंगज।

लेकिन वह शख्स बड़ा अकेला था। बेहिसाब भीड़ और मकबूलियत के बावजूद.. क्योंकि वह घूसखोर, बेईमान और कोठी- अटारी की चाह रखने वाला कोई हाकिम हुक्काम नहीं था। वह लड़ रहा था। खुद से भी। अपने आसपास के मक्कारों से भी, उन द्वंद्वों से भी जिन्होंने उसे राजेंद्र श्रीवास्तव से राजेंद्र मंगज बनाया था।

कभी न हारने वाला मंसूर। खुद की बीमारियों से लगातार लड़ने वाला। कभी डायलिसिस का झाम तो कभी दिल पर आफत, कभी पैर सूज जाता तो कभी आंखों की रोशनी खतरे में।

पारिवारिक मुश्किलें थीं, सो अलग और वे इतनी बड़ी थीं कि आप कांप जाएंगे। मिसाल के तौर पर वह आदमी उस बच्चे का पिता था जिसकी आंखों में बीनाई नहीं थी। जन्म से ही। और जो जवान हो चला था।

कल्पना करिए, वह कैसे रहता होगा। गाड़ी, छकड़ा, शोहरत, हाकिम- हाकिम की टेक के बावजूद उसे रातों में नींद आती होगी क्या? जो मर नहीं सकते, वह मंगज ही होते हैं। वह मरा नहीं। वह खोजने गया है वह दुनिया जहां आदमी सिर्फ आदमी बन कर रहे। वह एएन झा हास्टल गया होगा। उन दीवारों की टोह में जहां छापे हैं। उसके हाथ के।

राजेंद्र मंगज के व्यक्तित्व के कई ऐसे भी पहलू हैं जो आपको सकते में डाल सकते हैं। मसलन जो राजेंद्र मंगज लेनिन और माओ और चेग्वारा और चारू और ईश्वर विरोध के प्रबल पैरोकार थे और जिन्हें उस दर्शन से इंच भर पीछे हटना भी गवारा नहीं था, वही राजेंद्र सिविल सेवा में चुने जाने के बाद ' प्रगति मंजूषा' को दिये एक इंटरव्यू में कहते हैं- गीता और रामायण मेरी प्रिय किताबें हैं।

ईश्वर, हां पूजा में मेरी आस्था है। लेकिन यह स्टैंड बदलना नहीं है। यह बेईमानों की बस्ती में घुसने की चाभी है, ताकि सच और ईमान को रेज़ा रेज़ा ही सही, वहां भी जीवित और प्रतिष्ठापित रखा जा सके। कम से कम अपने तईं।

यह वही राजेंद्र हैं जिनके पिता एलपी लाल डिग्री कालेज, मऊ में अंग्रेजी पढ़ाते थे और बाद में वहां के प्रिंसिपल बने। फौज़ी कभी मरता नहीं। मंगज की रुखसती आप भी इसी अंदाज में कबूल करें। वह लाम पर गया है। लौटेगा भी।

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