मिथिलेश के मन से: जन्मदिन के बहाने से

जन्मदिन के बहाने से
mithilesh kumar singh
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Highlights

यह काहिली है और काहिली हर हाल में‌ आपके होने पर ही शक पैदा करती है

क्या हैरत कि लोग शक करते हैं। लोग शरीफ हैं मियां वरना तुम्हारी तो कुटम्मस होनी चाहिए

तुम उसी के पात्र भी ह़ो। काहिल, आवारा, बदमिजाज, बददिमाग

आपकी शुभेच्छाओं, संदेशों, आकांक्षाओं  ने मुझे सच्चीमुच्ची का महादेश बना डाला है

जिन दोस्तों, साथियों, शुभेच्छुओं ने मुझ जैसे अकिंचन को जन्मदिन पर याद किया, उन सबका शुक्रिया। इस फेहरिस्त में सबसे पहला जो नाम फेसबुक खोलते ही प्रकट हुआ, वह हैं कर्मेंदु शिशिर।

कर्मेंदु जी से मिले और बिछड़े ज़माना बीत गया लेकिन उनकी दुआओं में मैं अब भी हूं, यह कोई छोटी बात नहीं है।

दूसरी शुभकामना वीडियो काल से मिली। पौ फटते ही। वह रुनझुन थी। मेरी नतिनी। नासिक से। तीन साल की रुनझुन ने छूटते ही कहा: 'नानू, हम तुम्हारे लिए गिफ्ट कार्ड बना रहे हैं। यह देखो। देख रहे हो? यह रहे तुम्हारे हाथ और यह रहे तुम्हारे पैर। बन जाएगा तो भेजेंगे। यह गिफ्ट किसी को दे मत देना।' रुनझुन को शक है।

शक मेरे दीगर करीबियों को भी हो सकता है। आभासियों को भी और वह लाजिमी भी है। मैंने शक की जगहों को दूसरों के लिए कभी खाली भी तो नहीं छोड़ा।

मैंने वादा किया था, मैं लिखूंगा। लगातार लिखूंगा। लिखना बचाता है, इसलिए। संजीदगी से लिखा क्या? वह कौन सा लिखा- पढ़ा है मेरा जिसमें सिलसिले जैसा कुछ दिखता है या भरोसा जगता है कि अगला अब सुधर गया है, थोड़ा बेदार हो गया है और अब वह लिखेगा शृंखलाबद्ध ढंग से?

कविताएं लिखीं, फिर बंद। लंबे आलेख लिखे, फिर बंद। यात्रा वृत्तांत लिखे, फिर बंद। संस्मरण लिखे, पुराने दिनों में डूबा- उतराया, 'आह' और 'वाह' और 'बहुत अच्छा' और 'वेलडन' जैसी टिप्पणियों से गदगद हुआ, फिर चुप्पी.. भयानक चुप्पी, जैसे कोई तूफान आने वाला है या सब कुछ उलट- पुलट कर अभी अभी गुजरा है वह तूफान।

यह काहिली है और काहिली हर हाल में‌ आपके होने पर ही शक पैदा करती है। क्या हैरत कि लोग शक करते हैं। लोग शरीफ हैं मियां वरना तुम्हारी तो कुटम्मस होनी चाहिए और तुम उसी के पात्र भी ह़ो। काहिल, आवारा, बदमिजाज, बददिमाग।

तुम्हारे देखते ही देखते लोग कहां से कहां पहुंच गये। तुम्हारी जूती को पगड़ी मानने वालों की नजर में तुम अब दूसरे ग्रह के जीव हो।

जिन हाथों को तुमने गढ़ा, जिन्हें तुमने आदमी और गदहे में फर्क करने की तमीज सिखायी, जिन्हें तुमने लिखना सिखाया, जिन्हें तुमने चेहरा दिया- कभी उनसे पूछो कि तुम कैसे हो? अधिकांश बगलें झांकेंगे।

वे बगलगीरों से प्रतिप्रश्न करेंगे- जीवित है क्या अभी वह आदमी? बहुत दिनों से देखा नहीं तो लगा कि शायद..। इस शायद ने बहुतों को मार डाला। जीते जी। मैंने इस शायद को मार डालने की ठानी और शहीदाने कर्बला हो गया। तुम शायद से टकराओगे और‌ शायद तुम्हें जीवित छोड़ देगा मियां?

बहरहाल, टिप्पणियां बहुतेरी हैं। उन लोगों की जिन्होंने जन्मदिन के बहाने मेरी काहिली को भी सराहा और उम्मीद जगायी कि सुबहें आएंगी, कि बादल छंटेंगे, कि मैं भी कभी दानेदार- समझदार बनूंगा। उन सबका शुक्रिया। जिन्होंने इस मौके पर याद करना जरूरी नहीं समझा, उन्हें सबसे लंबा सलाम।

वे समझदार लोग हैं। भीड़ से बचने वाले। आग- पानी का रेला देख रास्ता बदल लेने वाले। मैं वादा कर तो रहा हूं कि थोड़ा सुधरूंगा और लिखने- पढ़ने की दुनिया में थोड़ी नियमबद्धता से वापस लौटूंगा लेकिन मेरा एतबार न करें। कुछ भी हो सकता है और कभी भी हो सकता है।

मैं कभी भी दशरथ मांझी हो सकता हूं और कभी भी वह मुसाफिर जिसे नहीं पता कि जाना कहां है और जिस राह से जाना है, वह राह उज्जयिनी को जाती है या किसी बूचड़खाने को।

जिन मित्रों- वरिष्ठों ने फोन पर बधाई दी, उनका आभार न जताऊं- यह बेअदबी मुझसे नहीं होगी। आपकी शुभेच्छाओं, संदेशों, आकांक्षाओं  ने मुझे सच्चीमुच्ची का महादेश बना डाला है। इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या?

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