मिथिलेश के मन से: नजर लागी राजा तोरे बंगले पे...

नजर लागी राजा तोरे बंगले पे...
mithilesh kumar singh
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खूंटे से बंधा आदमी' उसका ताजातरीन कहानी संग्रह है ताजातरीन? हां, हां। तीनेक साल पहले ही तो छपी थी वह किताब और उसके बाद से उसने कुछ नहीं लिखा

ताजगी की उम्र क्या होती है और उसकी एक्सपायरी डेट क्या होती है- यह आप तय करें। शेखर को इससे कोई मतलब नहीं

पचीस साल कम नहीं होते। प्यार करने की मुद्राएं  भी बदल गयी हैं लेकिन हम वही हैं शेखर। उतने ही तुम्हारे।

कंकड़बाग से पटना जंक्शन। सवारी? सवारी के नाम पर बहुत कुछ है हमारे पास। लेकिन हम जाएंगे आटो से।

आटो में सहूलियत थोड़ी  ज्यादा रहती है। कौन क्या कह रहा है, कौन ग़मज़दा है, किसे तारीख पर जाना है, किसको उसका वकील चरका पढ़ा रहा है, शहर में किस नये गुंडे के तरल पदार्थ से इन दिनों चराग़ चल रहे हैं, कौन मंत्री गांजा पी कर अल्लबल्ल कुछ भी बक जाता है सदन में- यह सारा कुछ एक साथ और एक मंच से उद्घाटित होते देखना- सुनना हो तो यह सिफत सिर्फ और सिर्फ आटो की सवारी में है।

जाने को तो हम शैलेश की गाड़ी से भी निकल सकते थे और डाक्टर रवि की गाड़ी से भी। लेकिन इतनी सारी खबरें, खबरों के भीतर की खबरें आपको कहां से मिलतीं?  इस शहर की चेतना पर भरोसा करना ही पड़ेगा आपको और वह चेतना पैदलबाजों या आटोबाजों या रिक्शाबाजों के हिस्से में कुछ ज्यादा ही होती है।

होती तो चारपहियाबाजों के पास भी है लेकिन वह पारदर्शी नहीं होती।  हो भी नहीं सकती। चारपहिया वाली चेतना तो बंद कमरों में और शीशे के मकानों में रहती है और उसे पथराव से डर लगता है।

ख़ैर। हम पहुंच गये पटना जंक्शन। घड़ी की सुइयां दिन के दस बजा रही हैं। महावीर स्थान सामने है। लेकिन हम वहां नहीं जाएंगे। वहां की भीड़ डराती है। वहां धर्म भीरुओं की भीड़ है। भारी भीड़ है। जो डरपोक होता है, उसके साथ हिंसक होने के खतरे हमेशा साथ चलते हैं। 

यह वही पटना जंक्शन है जिसके आसपास हमारा लंबा वक्फा गुजरा है। कभी चाय पीते हुए, कभी रतजगे करते हुए, कभी गप्पें हांकते हुए, कभी ग़म गलत करते हुए, कभी भारतीय दंड संहिता की तमाम हल्की फुल्की धाराओं को तोड़ते हुए, कभी पुल पार करते तो कभी पुल पर चढ़ते हुए।

हमें शेखर के पास जाना है। अपने समय का महत्वपूर्ण कथाकार रहा है शेखर। कमलेश्वर के बेहद करीबी लोगों में एक।  ' खूंटे से बंधा आदमी' उसका ताजातरीन कहानी संग्रह है। ताजातरीन? हां, हां। तीनेक साल पहले ही तो छपी थी वह किताब और उसके बाद से उसने कुछ नहीं लिखा।

तो हुआ न ताजातरीन। ताजगी की उम्र क्या होती है और उसकी एक्सपायरी डेट क्या होती है- यह आप तय करें। शेखर को इससे कोई मतलब नहीं।

शेखर कबूतरखाने में रहता है? जी हां कबूतरखाने में। बिहार सरकार ने कभी यह इमारत बनवाई थी। कहते हैं, सुनते हैं कि यहां उसके अफसरान रहा करते थे। इस इमारत का एक दूसरा नाम भी है- अफसर्स फ्लैट। लेकिन लोगों की चेतना में कबूतरखाना जीवित रह गया और अफसर्स फ्लैट मर- बिला गया जाने कब का।

पटना जंक्शन से हड़ताली मोड़ का सफर आटो से करीब आधे घंटे का है लेकिन वहां पहुंचने में लग गया एक घंटा। भीड़ बेतरह, जाम का झाम, भागाभागी। पैदलबाजों को  तेज चलना होता है यहां। डोली में डेग डालिएगा तो मुलाकात होगी बड़का अस्पताल में।

वह इमारत जिसे कबूतरखाना कहते हैं और जिसके दूसरे तल्ले पर शेखर रहता है, उस इमारत की बनावट कुछ कुछ कबूतर के दड़बे जैसी ही लगती है। कुल जमा डेढ़ कमरे, छोटी सी बालकनी, कुछ पीढ़े, कुछ मोढ़े, दो छोटे तखत, एक बुक शेल्फ, कुछ पहने- ओढ़े, कुछ पहने- ओढ़े जाने का इंतजार करते मुड़ेतुड़े कपड़े।

हम शेखर के कमरे हैं और वह गमगीन है। उसकी सांस बारबार उखड़ जा रही है और वह चाहता है कि हम उसकी अंकवार भरें, उसके ललाट चूमें, उसे झिंझोड़ें, उससे धौलधप्पा करें- वैसे ही जैसे हम उससे या वह हमसे पचीस साल पहले किया करता था। गंगा में बहुत पानी बह गया है शेखर।

पचीस साल कम नहीं होते। प्यार करने की मुद्राएं  भी बदल गयी हैं लेकिन हम वही हैं शेखर। उतने ही तुम्हारे।

शेखर! तुम्हारी दाढ़ी बढ़ गयी है।
शेखर! तुम्हारा बेटा कहां है?
शेखर! तुम्हारी दिनचर्या क्या है?
शेखर! तू फोन क्यों नहीं उठाता?
शेखर! तू घर क्यों नहीं जाता?
शेखर! तुझे लखीसराय की याद क्यों नहीं आती?

इन तमाम सवालों के जवाब में शेखर सिर्फ हांफ रहा है। सांस साथ नहीं दे रही। सांस से उसकी लड़ाई बरसों पुरानी है लेकिन अब थोड़ी और तीखी, थोड़ी और तेजतर हो गयी है। इस लड़ाई ने उसका घर से निकलना बंद करा दिया है। दफ्तर?

उसका दफ्तर किसी सरकारी महकमे में है। लेकिन वह दफ्तर जाए तो कैसे जाए? वह सीढ़ी से उतरे तो कैसे उतरे? हम तो ' कतार' वाले शेखर को ढूंढते आये थे। यहां जो शेखर मिला, वह तो स्साला बबुआ है। आंखें जरूर धोखा खा रही हैं।

बोरसी की आग है यह। धान की भूसी में लिपटी हुई आग। यह आग धीरे- धीरे सुलगती है और देर तक महफूज रहती है। शेखर ठीक है। कुछ सोच रहा है। कुछ लिखेगा। हाथ कांप रहे हैं उसके। लिखेगा कैसे? तो भी लिखेगा स्साला।

लिखना ही होगा शेखर। पटना में तुम्हारे होने का शिनाख्ती सबूत भला और कहां मिलेगा?

( अगली किश्त कब? मन में आये तब)

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