मिथिलेश के मन से: पग परत कहां के कहां

पग परत कहां के कहां
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रावण के कटे हाथ ने मंदोदरी के नाम कुछ चिट्ठियां लिखी थीं

उन चिट्ठियों की बेचैन तलाश से जब आप गुजरेंगे, आपको कुछ न कुछ हो जाएगा

हम जो सोचते थे कि वह व्यतीत है, कि उसे बीत जाना ही था, सो बीत गया.. फिर काहे की चिल्लपों

चिल्लपों हम नहीं मचा रहे साधो! चिल्लपों वह इतिहास मचा रहा जिसे हमने मिट्टी दे दी थी

होने को तो किसी को कुछ भी हो सकता है और कभी भी हो सकता है। लेकिन 'वो' ज़रा कम ही होता है। किसी किसी को ही होता है और जब होता है तो हर ज़जीर छोटी पड़ जाती है, आकाश बौना लगने लगता है।

सतत गतिमान समय को तब रुक जाना होता है क्योंकि तब कुछ बन रहा होता है। समय उसे बना रहा होता है। उसके चाक पर गढ़े जा रहे होते हैं दिन, तारीख, तिथियां.. वह जो छूट गया, वह जो सामने है, वह जो मछली की आंख है, वह जो पहाड़ बनते बनते पहाड़ा हो गया और वह भी जिसका हिसाब बनिये की किसी डायरी में नहीं मिलेगा।

आपकी खुद की डायरी में भी नहीं क्योंकि डायरी रखने और उसे मेंटेन करने के दिन नहीं रहे। बाजार ने डायरी युग को दफना डाला। कोई शोक संदेश, कोई फातेहा नहीं पढ़ा किसी ने। किसी ने कोई स्मृति आलेख नहीं लिखा उसकी रुखसती पर।

आज वह हिसाब मांग रहा है और हम बेचैन हैं। हम, जो उसे दफना आये थे। हम, जो उसे फेंक आये थे। हम, जो उसे नदियों, कछारों, कोटरों, आग, पानी, बरसात, कांदो- कीचड़ के हवाले कर आये थे।

हम जो सोचते थे कि वह व्यतीत है, कि उसे बीत जाना ही था, सो बीत गया.. फिर काहे की चिल्लपों। चिल्लपों हम नहीं मचा रहे साधो! चिल्लपों वह इतिहास मचा रहा जिसे हमने मिट्टी दे दी थी।

वह डायरी मचा रही चिल्लपों जिसे हमने अपने तई और अपने जानते मिस्मार कर दिया था। बरसों पहले। उस डायरी के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। रवींद्र भारती याद आ रहा है:

बचपन में
माचिस के खोखे से
पिता ने बनाया था जो टेलीफोन
उस टेलीफोन की घंटियां बज रही हैं

कुछ स्वर्णमृग घूम रहे हैं। कुछ पतंगे मंडरा रहे हैं। कुछ कीलें चुभ रही हैं। कुछ सपनों से रक्तस्राव हो रहा है। जब ऐसा होने लगे तो मान लीजिए कि सचमुच कुछ हो गया है, कि सचमुच कुछ खो गया है।

रावण के कटे हाथ ने मंदोदरी के नाम कुछ चिट्ठियां लिखी थीं। उन चिट्ठियों की बेचैन तलाश से जब आप गुजरेंगे, आपको कुछ न कुछ हो जाएगा। यह कुछ न कुछ ही वह सारा कुछ है जिसमें आप शामिल हैं- चौबीसों घंटे, आठों पहर। पग परत कहां के कहां।

यह बेचैनी बची रहे। सलाम करने का शऊर बचा रहे, बचे रहें एक सांस में सौ गालियां देने वाले शेखर जैसे दोस्त। बचे रहें सौ लानतें भेजने वाले गुंजन, कभी भी फोन न उठाने वाले नवेंदु, चतुराई भरी बातचीत का मास्टरस्ट्रोक महारथी श्रीकांत, बिना पीये चौबीसों घंटे मदमस्त रहने वाला झून.. बचे रहें अरुण पाहवा, शैलेश, प्रणव, ब्रजेश, राकेश रंजन, स्वप्निल, स्वयंप्रकाश।

बची रहें वे गलियां, वे रस्ते, वे पानीदार आंखें जिनमें कभी तुम्हारा घर हुआ करता था और जिन्हें अब तुम ढूंढ रहे हो। बरसों बाद। कुछ हो गया है क्या? वाकई कुछ हो गया है। यह होना ही किसी को मीरा तो किसी को ग़ालिब बनाता है।

भलेचंगे तक को दीवाना बनाना इसका शगल है। पटना से मेरी आशनाई का यही शिनाख्ती सबूत है दोस्तो! जाहिर है, कुछ हुआ है।

हमने बरसों बाद अपने ज़रूरी हिस्सों को छुआ है। जाहिर है, हम पटना में हैं।  कदम लड़खड़ा रहे, बिना पिये। नशा तारी है। शराब पर राज्यव्यापी बैन के बावजूद। हम दौड़ रहे हैं।

हम सबसे मिल लेना चाहते हैं। यूं समझिए कि कोई लड़की है जो अपने पीहर आयी है। उसे हर किसी से मिलना है। हवाओं तक से भी। सब उसके सहोदर हैं। वह किसको छोड़े? किसका हो ले? ( क्रमश:)

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