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तो हमने देखा कि उस सिनेमा में एक लड़की गा रही है। हीरोइन रही होगी।
वह गा रही है- पंख होती तो उड़ आती रे... रसिया ओ बालमा, तुझे दिल के दाग दिखलाती रे...।
उमर कम थी, सो रसिया तो याद नहीं रहा। उसकी जगह दिमाग ने टप्पा जोड़ लिया- रतिया। रतिया ओ बालमा
हम सिनेमा कम ही देखते हैं। लेकिन इसका कहीं से यह मतलब नहीं कि देखते ही नहीं। कहीं कोई मिल गया चाहने वाला या फिर टेंट भरी हो तो सिनेमा देखने में कोई हर्ज नहीं है, अपना यह पुराना फलसफा है।
कम से कम ढाई- तीन घंटे तो कट ही जाते हैं हीरो को प्रेम करते देखते हुए, हीरोइन को विद्रोह करते देखते हुए, विलेन को जो सदाबहार हरामी होता है, लतियाए जाते देखते हुए..।
गरज कि सिनेमा बड़ी मजेदार चीज़ होती है। वह दरिद्र तक को जिसके पास कम से कम सपने हैं, सपनों से लबालब भर सकती है। किसिम- किसिम के, रंग- बिरंगे सपने। हैसियत पार के सपने। अमिताभ बच्चन से ले कर अंबानी बनने तक के सपने, गांधी से ले कर गंधर्व हो जाने तक के सपने। यही क्या कम है कि ढाई- तीन घंटों में आप वहां पहुंच गये जहां आपकी सात पुश्तें नहीं पहुंच पायीं?
ख़ैर। तो हुआ यूं कि हमने भी एक सपना देखा था उस सिनेमा में। या यूं कह लीजिए कि सिनेमा के बहाने। सिनेमा कौन सा था, नाम याद नहीं आ रहा। आवारगी में बहुत सारी चीज़ें भूल भी जाती हैं और यह बहुत अच्छी बात है।
आवारा होना नेमत है, ऐसा कहने और मानने वालों की पीढ़ी खतम हो रही तो हो जाए लेकिन आवारगी बची रहनी चाहिए। यह आवारगी ही आपको कोलंबस, सुकरात और फरहाद बनाती है। डार्विन भी और टीएस इलियट भी।
तो हमने देखा कि उस सिनेमा में एक लड़की गा रही है। हीरोइन रही होगी। वह गा रही है- पंख होती तो उड़ आती रे... रसिया ओ बालमा, तुझे दिल के दाग दिखलाती रे...। उमर कम थी, सो रसिया तो याद नहीं रहा। उसकी जगह दिमाग ने टप्पा जोड़ लिया- रतिया। रतिया ओ बालमा।
सिनेमा देख कर जब हम बाहर निकले तो लगा कि किसी ने बगैर पूछे दो- चार जूते जड़ दिये हों या फिर हम पकड़ लिये गये हों क्लास बंक करने के उस गुनाह में जो उस उम्र में हर बच्चा करता है या कर सकता है, खास तौर पर तब जब वह जवान बनना सीख रहा होता है।
हम सोच रहे थे- यह भी कोई गाना हुआ? पंख होते तो उड़ आती रे? रतिया ओ बालमा? रात में ही क्यों उड़ना? यह हीरोइन उल्लू है क्या जो रात में उड़ने की जिद कर रही है? प्रेम किया है तो कभी भी उड़ो, क्या दिन -क्या रात? और किस च्युतिये ने ये खूंटा गाड़ दिया कि प्रेम रात में ही हो सकता है और कि दिल के दाग़ रात में ही दिखते हैं? बकवास, बुलशिट। लेकिन इस गाने ने एक बात समझा दी कि सपने किसी भी तरह के हो सकते हैं।
सपने मौरूसी ज़मीन नहीं हैं जो पीढ़ी- दर पीढ़ी आप या आपके बाप या आपके खानदान का हिस्सा बन कर गरजते- लहकते रहें। सपने अपना रंग खुद तय करते हैं। बाढ़ और अकाल के सपने अलग होते हैं, मोहब्बत और इज्तराब के सपने अलग।
सपनों को हम सीधे सीधे पढ़ नहीं सकते। उनकी वर्णमाला अलग होती है और दुनियादारों- समझदारों की वर्णमाला अलग। लेकिन सपने आभास जरूर देते हैं कि कुछ है जो गड़बड़ और बेहूदा है।
जो आग लगा सकता है, बस्तियां वीरान कर सकता है, जो जुगराफिया बदल सकता है , जो बांट सकता है, जो खांचे बना सकता है, जो मनुष्यत्व के चीथड़े कर सकता है और जो मूर्खों- महामूर्खों को इस सदी के गंभीरतम अध्येताओं में शुमार करने के लिए नये ग्रहों- उपग्रहों की ढूंढ का प्रहसन कर सकता है- सच जैसा दिखने का आभासी प्रहसन। सच से भी ज्यादा बड़ा, ज्यादा डायनमिक प्रहसन।
कर्नाटक के बच्चों को फैंटेसी में लिपटा ऐसा ही एक सपना दिखाया जा रहा है इन दिनों। ये बच्चे पढ़ रहे हैं- अंडमान की सेल्युलर जेल में जब सावरकर बंद थे तो उनसे मिलने को कोई बुलबुल आती थी। यह बुलबुल उन्हें अपने पंखों पर बिठाती थी। यह बुलबुल उन्हें उड़ा ले जाती थी अपने साथ।
सावरकर बुलबुल की पीठ पर बैठ कर समूचे आर्यावर्त की परिक्रमा करते थे, देखते थे कि इस महान देश के लोग कितने माजूर, कितने असहाय, कितने दीन- हीन हैं। वह देखते और सोचते थे कि देश को आजाद कराने के लिए और कितनी कुर्बानियों की जरूरत है, कि और कितनों का लहू चाहिए इस मादरे वतन को खुदमुख्तार होने के लिए?
यह अलग तरह का गरुड़ पुराण है जिसकी एनाटमी में हम नहीं जाएंगे। लेकिन कर्नाटक के बच्चों को यह जरूर बताया जाना चाहिए कि सावरकर की उस काल कोठरी में ( जो सावरकर कालीन इतिहास के कथित अध्येता और जानकार बताते हैं) कोई जंगला या झरोखा नहीं था जो किसी परिंदे के प्रवेश का कारण बने।
उस कोठरी में प्रवेश द्वार के नाम पर लोहे का एक सख्तजान गेट था। गेट में मोटी- मोटी छड़ें लगी थीं ताकि कैदी को सांस ले सकने लायक हवा मिलती रहे। एक गलियारे के भीतर यह गेट था जहां चौबीसों घंटे संतरी कड़े पहरे दिया करते थे।
गलियारे में सख्त पहरेदारी को चुनौती देता कोई परिंदा उस कालकोठरी तक पहुंच जाए, यह कल्पना ही बकवास है। बच्चों को यह भी बताया जाना चाहिए कि भगत सिंह या खुदीराम बोस या फड़के नहीं थे सावरकर जो तख्त़- ए- दार का बोसा लें और मांओं से कहें- हम फिर आयेंगे, तुम रोना मत।
सावरकर को यह इतिहास दो कारणों से याद रखता है। पहला यह कि उन्होंने 1857 को इस देश के पहले मुक्तिसंग्राम के रूप में सूचीबद्ध किया और उसे किसी भी रूप में गदर या विद्रोह मानने से मना कर दिया।
उन्होंने इस बाबत किताब भी लिखी और अपने दावे के समर्थन में तमाम दस्तावेजी और ठोस सबूत दिये। किताबें उन्होंने और भी बहुतेरी लिखीं जिन पर चर्चा फिर कभी। दूसरा यह कि अंडमान निकोबार पहुंचने के फौरन बाद ही उन्हें महसूस होने लगा कि वह गलत लड़ाई लड़ रहे हैं।
जो काम इतिहास को करने देना चाहिए था, उसके नियंता वह खुद बन बैठे। नतीजा- माफीनामा, दर माफीनामा। माफी मिली भी और साथ में वजीफा भी। अब उनके अनुयायी चाहे जितना भी जोर लगा लें, सावरकर के माथे से माफीनामे का यह कलंक नहीं मिटेगा।
उनकी सारी लड़ाई, सारी चिंताएं, ब्रिटेन स्थित इंडिया हाउस के वे तमाम जलसे, रासबिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस से उनकी सीधी मुलाकातें, बालगंगाधर तिलक और भीखाजी कामा जैसी हस्तियों से उनके सीधे संपर्क, नासिक के जिला कलेक्टर की हत्या में उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भागीदारी- ये सब मसले फुस्स हो जाते हैं उस माफी महापाप के आगे।
बच्चों को यह भी बताया जाना चाहिए कि माफी मांगने का फैसला सावरकर का खुद का फैसला था और उन्होंने ऐसा गांधी के कहने पर नहीं किया था।
बच्चों! तुम उड़ना सीखो। तुम जुड़ना सीखो। अपने समय से। अपनी जड़ों से। इन जड़ों की हकीकत से। पंख मिलें तुम्हें भी लेकिन फरेब की उड़ान मत भरना। यह फरेब, ऐसी मोहक कथाएं तुम्हें मार डालेंगी।