नीलू की कलम से: मुण्डक उपनिषद्

मुण्डक उपनिषद्
मुण्डक उपनिषद्
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वैसे तो सभी उपनिषद् तत्व निरूपण शिरोमणि हैं किन्तु आत्मज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए मुण्डक का विशेष महत्त्व है

ब्रह्मनिष्ठ गुरु के बिना शिष्य के संशय का नाश असंभव है इसलिए गुरु की महत्ता निरंतर बनी रही है

गुरु ही हैं जो शिष्य को तत्वमसि के उपदेश से अहम् ब्रह्मस्मि का अनुभव करवा सकते हैं

उपनिषदों की तत्त्व मीमांसा भारत ही नहीं समस्त विश्व का कल्याण करने वाली वैचारिक संपदा है।

उपनिषदों का दर्शन वेदों पर आधारित होते हुए भी वेदों से सर्वथा भिन्न है। वेदों और वेदांगों में जहां अपरा विद्या  का विवेचन है वहीं उपनिषदों में पराविद्या का तात्विक विवेचन है जो मनुष्य को सभी शोकों से पार करा कर स्व स्वरूप में स्थिति करवा देता है।

" तरती शोकं आत्मविद"।उपनिषदों के ज्ञान को वेदांत (वेद का अंत अथवा शिखर)कहा गया है। यह वेदांत छह दर्शन शास्त्रों में सर्वोपरि है।

वैसे तो सभी उपनिषद् तत्व निरूपण शिरोमणि हैं किन्तु आत्मज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए मुण्डक का विशेष महत्त्व है। आत्मज्ञान को संप्राप्त हुआ ज्ञानी अपने देहाध्यास का मुंडन (शोधन)कर देता है।

"गलिते देहाध्यासे विज्ञाते परमात्मनी यत्र यत्र मनोयाती तत्र तत्र समाधयः।" लेकिन इसके लिए जिज्ञासु का साधन चतुष्ट्य (शम, दम, षट संपत्ति और मुमुक्षुता)से संपन्न होना आवश्यक है। मल, विक्षेप और आवरण से रहित हुआ जिज्ञासु आत्मज्ञान या परा विद्या को संप्राप्त कर लेता है।

"अंतः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीण दोषाः।"  श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के बिना शिष्य के संशय का नाश असंभव है इसलिए गुरु की महत्ता निरंतर बनी रही है। गुरु ही हैं जो शिष्य को तत्वमसि के उपदेश से अहम् ब्रह्मस्मि का अनुभव करवा सकते हैं।

'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया," सत्यमेव जयते,"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो ' आदि सुप्रसिद्ध वाक्य मुण्डक से ही उद्धृत हैं।  मुण्डक के कुछ मंत्र दूसरे उपनिषदों और वेदों में भी यथावत है ।

इसमें ब्रह्म विद्या विषयक विशद विवेचन है।सम्पूर्ण उपनिषद् तीन मुंडकों (अध्यायों)में विभक्त है।प्रत्येक मुंडक के दो दो खंड है जिनके अन्तर्गत ६४ मंत्रों को समावेशित किया गया है। आरंभ  ब्रह्मविद्या की गुरूपरंपरा के परिचय से किया गया है।

आचार्य अंगिरा के प्रति शौनक ऋषि का प्रश्न है-  "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिद विज्ञात भवतीति।" जिज्ञासु के प्रश्न से आत्मवेत्ता ऋषि प्रसन्न होते है और श्रवण,मनन,निदिध्यासन का महत्त्व बताते हुए आत्मविद्या विषयक उपदेश करते हैं।

संक्षिप्ततः उपनिषद् द्वैत को निर्मूल कर "सदैव सौम्य इदं अग्रासीत एकमेवाद्वितीयम" उपक्रम एवं तत्वमसि उपसंहारादि तात्पर्य निर्धारक प्रमाणों के द्वारा मुमुक्षु के संशय और  विपर्यय का नाश कर उसे अपरोक्षानुभूति का अधिकारी बनाते हैं।

वैसे ज्ञान का स्वरूप  वाणी का विषय नहीं, यतो वाचो निवर्तंते अप्राप्य मनसा सः। इसलिए नमः परम् ऋषिभ्यो नमः परम् ऋषिभ्यः कहकर अपने अमृतपुत्र पूर्वजों को भावांजलि अर्पित करती हूं।

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