मिथिलेश के मन से: नसीमे सहर क्या गजब ढा रही है

नसीमे सहर क्या गजब ढा रही है
mithilesh kumar singh with friends in patna
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उर्दू में गिरहबंदी की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। जानते हैं, जिस मिसरे के पेशेनज़र यह ग़ज़ल कही गयी, वह मिसरा मूल रूप से किसका था? वह मिसरा था अहमद फराज़ का।  उर्दू पोएट्री की क्लासिकी और उसके अनुशासन पक्ष से जुड़ी उनकी कुछ बातें हम समझ पा रहे हैं, कुछ बाउंड्री पार चली जा रही हैं लेकिन हम अपनी सीमाओं और अपनी लाचारी का करें तो क्या करें?  

पटना सिटी पहुंच कर लगा कि  हम अपने घर आ गये हैं। अपने गांव आ गये हैं। अपनी चट्टी, अपने गांव के हाट- बाजार में हम सब्जियों के भाव पूछ रहे हैं और पता कर रहे हैं कि हरा चना इस दफा अब तक क्यों नहीं आया।

कालिका गांजाभक्त है। नौकरी कहीं भी हो और कैसी भी हो, उसे मंजूर नहीं। काहे? काहे कि दिन में दस बार गांजा फूंकना है।

गांजा फूंकना है और फिर सबको औकात में रखना है- राजा हो, महराजा हो, मंत्री हो, संतरी हो। हैदराबाद के नवाब हों चाहे ब्रिटेन की महरानी, किसी की औकात नहीं जो उसके चिलम से उठती लपट की बराबरी कर सके।

है कोई माई का लाल तो फूंक कर दिखाये इतनी ऊंची लपट? लपट की ऊंचाई से कालिका नापता है आदमी का कद। उसने स्कूली पढ़ाई नहीं की क्योंकि वहां कोई मास्टर नहीं था कायदे का: मास्टर साले गोड़ दबवाते हैं, खाना बनवाते हैं, कहते हैं- सब कुकुर कासिये जाएगा का रे, त हंड़ियवा कौन टोयेगा??

स्कूल से कुट्टी करने का उसका यह आधार तत्व कितना पुख्ता है- यह आप तय करें। हम इस वक्त मसरूफ हैं प्रेम किरण को सुनने में। प्रेम किरण बुनियादी तौर पर ग़ज़लगो हैं।

ग़ज़लों को सीखने, समझने, उन्हें आकार देने, गिरह बांधने का बुनियादी उपक्रम उन्हें ऐसे नहीं आ गया जैसा आज के अहद के उन तमाम लोगों के साथ है जो मूल रूप से हिंदी के हैं और कहन के लिहाज से उर्दू के।

प्रेम किरण ने बाकायदा टीचर रख कर उर्दू सीखी, उस्ताद रखा, उस्तादों की सोहबत की और अपनी बुनियादी ज़रूरतों के बरक्स उर्दू से अपने मरासिम के दायरे को हमेशा बड़ा रखा।

वह प्रेम किरण सुना रहे हैं: 'ज़िदगी का खोखलापन झांक कर देखेगा कौन/ लोग तो फल- फूल देखेंगे शजर देखेगा कौन।' साथ साथ उनकी कमेंटरी भी चल रही हैं- इसे गिरह बांधना कहते हैं।

एक मिसरा उठाया और पूरी ग़ज़ल कह डाली। उर्दू में गिरहबंदी की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। जानते हैं, जिस मिसरे के पेशेनज़र यह ग़ज़ल कही गयी, वह मिसरा मूल रूप से किसका था?

वह मिसरा था अहमद फराज़ का।  उर्दू पोएट्री की क्लासिकी और उसके अनुशासन पक्ष से जुड़ी उनकी कुछ बातें हम समझ पा रहे हैं, कुछ बाउंड्री पार चली जा रही हैं लेकिन हम अपनी सीमाओं और अपनी लाचारी का करें तो क्या करें?

 हम जो समझे, वही तो हमारे काम आयेगा और हम इतना ज़रूर समझ पाये कि इस दयार में कुछ है जो बड़ा बेहूदा है, जो हमारे सीने के भीतर ज़माने से पिन्हा है और जिसे प्रेम किरण जुबान दे रहे हैं: नसीमे- सहर क्या गजब ढा रही है/ कली के चटकने की बू आ रही है।

प्रेम किरण का घर पूरा भूलभुलैया है। गली में घुसो। फिर हाल में। फिर संकरी सीढ़ियां चढ़ो। फिर छत पर पहुंचो। फिर नीचे दुछत्ती पर। जब पहली दफा हम इस घर में आये थे और हमारे साथ थे नचिकेता और शरद रंजन शरद तो हम एक हाल में बैठे थे। वह हाल अब भी है लेकिन उसका कद इस दफा कुछ छोटा लगा।

घर जब बंटेगा तो सिलसिले भी तो बेतरतीब होंगे। शैलेश की आंखें मुंदी हुई हैं। थक गया होगा। वह थोड़ी देर बाद आंखें खोलता है: हम खो गये थे सुनते हुए। हमारी तंद्रा अभी अभी वापस लौटी है। बीच में चाय- बिस्कुट और तिलकुट- तिलवा का दौर। अब चलने दीजिए प्रेम किरण भाई। बोरिंग रोड में नवेंदु हमारी राह देख रहा होगा।

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