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लोकेंद्र सिंह जी अकसर गोठ में आते थे इसलिए उन्हें ज्यादा देखने-सुनने का मौका ही न मिल पाता क्योंकि अधिकांश राजपूत घरों में पुरूष मांसाहारी होते हैं और स्त्रियां परम वैष्णव।
दोनों डीलडाल में भी भरसक कद-काठी के। मोहनसिंह जी किसी चुनाव में लड़े थे। (याद नहीं किस वर्ष और कौनसा चुनाव था।) चुनाव सामग्री की गाड़ी हमारे घर पर खाली होती थी।
चुनाव सामग्री के कभी कमल वाले बिल्ले लगाकर हम स्कूल गए तो कभी गले में फूल वाले पट्टे डालकर इठलाए।
मेरे नाना कल्याणसिंह जी कालवी के करीबी कार्यकर्ताओं में से एक रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के साथ अपने डिनर के किस्से वह अक्सर सुनाया करते हैं मगर ये सभी किस्से मेरे जन्म से पूर्व के हैं।
मैंने होश संभाला तब कालवी साहब को घर के बैठक कक्ष में एक फोटो में ही पाया। मटिया साफे में मुस्कुराती तस्वीर और नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-
जोगा ने तो जग पूछे!
नाजोगा ने कुण पूछे!!
घर के भीतर भी ऐसी छोटी-बड़ी कई तस्वीरें।
घर में सीनियर कालवी साहब के चर्चे थे और जूनियर कालवी साहब का आना-जाना। यूं तो कई राजनीतिक सख्सियतों का आना रहा किंतु जिन दो कद्दावर चेहरों को मैं ठीक प्रकार से स्मरण कर पा रही हूं वे थे- मोहन सिंह जी सांजू और लोकेंद्र सिंह जी कालवी।
दोनों डीलडाल में भी भरसक कद-काठी के। मोहनसिंह जी किसी चुनाव में लड़े थे। (याद नहीं किस वर्ष और कौनसा चुनाव था।) चुनाव सामग्री की गाड़ी हमारे घर पर खाली होती थी।
चुनाव सामग्री के कभी कमल वाले बिल्ले लगाकर हम स्कूल गए तो कभी गले में फूल वाले पट्टे डालकर इठलाए।
लोकेंद्र सिंह जी अकसर गोठ में आते थे इसलिए उन्हें ज्यादा देखने-सुनने का मौका ही न मिल पाता क्योंकि अधिकांश राजपूत घरों में पुरूष मांसाहारी होते हैं और स्त्रियां परम वैष्णव।
सो मांस पकाने के लिए घर का चूल्हा-चौका और बर्तन उन्हें नहीं मिलता,अछूत की तरह बाहर ही पकाना खाना होता है। लिहाजा कालवी साहब बाहर से ही जीमकर रवाना।
मन था कि नाना से पूछकर कुछ किस्से लिखूं पर दो-चार दिन से उनकी तबियत नासाज है। ऊपर से कालवी साहब की मृत्यु का समाचार मिल गया। वे काफी व्यथित हैं इसलिए कुछ भी पूछने पर डांट ही मिलेगी फिलहाल।
आज जनमानस के जिस विरोधी रुख को देखकर बॉलीवुड-बहुरूपिए घुटनों पर आ गए उस विरोध का आरंभ राजस्थान से होता है और संगठित रूप में इसकी शुरुआत करणी सेना से होती है जिसके संस्थापक लोकेंद्र सिंह कालवी थे।
इससे पूर्व करीब पांच-छः दशक तक राजपूत समाज अपनी सो कॉल्ड एलीट छवि के चलते दुराग्रही,एकतरफी और मनगढ़ंत कहानियों को चुपचाप सहन कर रहा था। 'ओछों के मुंह कौन लगे'- वाली मौन प्रवृत्ति ने राजपूत समाज की अत्याचारी, आततायी और अय्याश छवि को गढ़ने में परोक्ष रूप से शह दी। किंतु धीरे-धीरे ही सही, समय करवट लेता है।
साहित्य और सिनेमा के लाल गलीचों पर धूल-मिट्टी से सनी मोजड़यों की छाप मंडती है, हिंदी सिनेमा पर एक छत्र राज करने वाले निर्माता-निर्देशकों को तमाचे पड़ते हैं और जेएलएफ जैसे अमीर नजाकत वाले समारोहों में अफरा-तफरी मचती है।
करोड़ों अरबों के प्रोजेक्ट हिलने लगते हैं, हड़बड़ी में मीडिया के सांपों को दूध पिलाकर विषवमन भी खूब करवाया जाता है किंतु तब तक हर समाज और वर्ग इस मुहिम में जुड़ता है और बौखलाए बंदर लंबी उछल-कूद के बाद आखिर समाज के आगे हाथ जोड़ते हैं।
झूठ और नफरत फ़ैलाने वाले अब भी फैला रहे हैं किंतु पहले की तरह निश्चिंत होकर नहीं, पूरी सतर्कता के साथ। जन के आगे धन को झुकना पड़ता है.
यह गरीबी बेचकर लिखने-दिखाने वालों को पहली बार समझ आया और इसे समझाने की कुव्वत युवकों में पैदा की मेयो कॉलेज के अंग्रेजी वातावरण में पढ़े लिखे उस युवक ने जो आमजन को सुनता समझता उनकी भाषा में था किंतु उनके हकों के लिए भिड़ते समय धाराप्रवाह अंग्रेजी से लाटसाहबों को सकते में डाल देता था।
अपनी जाति,धर्म,भाषा और पहनावे को अपनाकर उस पर गर्व करने वाले, दंभ से कोसों दूर कहे कि- "मैं हरिजन होता तब भी अपने जन्म पर गर्वित होता", ऐसा व्यक्तित्व अब दुर्लभ है।
वे रामलला को एक वैभवशाली राजमहल में विराजित देखना चाहते थे। भले देख न पाए हों पर मंदिर निर्माण से आश्वस्ति तो पा ही गए होंगे।
उम्र के छठे सातवें दशक में भी निशानेबाजी में सटीक निशाने लगाकर जीतने वाले कालवी राजनीति में भले निशाने साध पाने में विफल रहे हों किंतु अपने सफल नेतृत्व से उन्होंने कई राजनीतिक धुरंधरों को प्रेरित-पोषित किया।
सत्ता से दूर रहकर भी सत्ता में प्रासंगिक बनकर उन्होंने लेनिन के इस कथन को जीवंत किया- "गरुड़ की नीची उड़ान से कौओं को खुश होने की जरूरत नहीं है।"