नीलू की कलम से : घी मूंगां में ही ढुळसी..

घी मूंगां में ही ढुळसी..
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इस दुनिया का अंतिम छोर वह खेत और अंतिम व्यक्ति वह ट्रैक्टर ड्राइवर ही है जिस तक आपके गाने की पहुंच आपको लोकप्रिय होने का हक देती है। जो गाना ट्रैक्टर में बज गया वह हिट हो गया। ये ट्रैक्टर भाटे,बजरी और ठूंठों के साथ दुनियावी रुझान भी अपने साथ लेकर चलते हैं।

एक जमाना था जब इन पर तेजा, चिरजां और फागण बजते थे। हिंदी गीत-संगीत नहींवत् बजता है इनपर, कह लीजिए अघोषित बहिष्कार। लेकिन जवान लड़कों ने स्टीरिंग थामा तो पंजाबी और हरियाणवी गानों की धूम ला दी।

Jaipur | जो लोग गांवों में रहते हैं वे जानते हैं कि कृषि कार्य में लगे हुए लोग अपने काम की शुरुआत 'तड़काऊ का' (अलसुबह)  करना ज्यादा ठीक समझते हैं। 'ठंडे-ठंडे' काम निवेड़ना (निवृत्ति) बुद्धिमानों की निशानी मानी जाती है।

हमारे अधिकांश लोकगीतों, भजनों और हरजसों का सर्जन  घर और खेत के मध्य ही हुआ। गीतों की मधुरता ने व्यक्ति को श्रमश्लथ होने ही न दिया। स्त्रियों ने पांच परभाती में पूरा चौक बुहार दिया, दस-बारह गीतों में बिलोवणा बिलो लिया और पुरुषों ने लंबी टेर लगा-लगाकर खेत संवार लिया।

गलाडूब गृहस्थ प्रवृत्ति में भी परम निवृत्ति की हेली ( निर्गुण भजन) गाना हर किसी के बस में नहीं। खैर! गीत-संगीत हमारे लोकजीवन का अभिन्न अंग रहा है।

पैदल, ऊंट-लढ्ढों, पाडा-छकड़ी के जमाने में मानवी कंठ ही काफी था किंतु मशीनी युग ने माहौल में शोर भरा। ऊंट-गाड़ों की जगह ट्रैक्टर-ट्राली ने ली और कंठों की जगह ली टेपों ने। इनके कानफोड़ू टेपों में बजते गीत-गाने किसी भी गाने की लोकप्रियता के असल पैमाना होते हैं।

इस दुनिया का अंतिम छोर वह खेत और अंतिम व्यक्ति वह ट्रैक्टर ड्राइवर ही है जिस तक आपके गाने की पहुंच आपको लोकप्रिय होने का हक देती है। जो गाना ट्रैक्टर में बज गया वह हिट हो गया। ये ट्रैक्टर भाटे,बजरी और ठूंठों के साथ दुनियावी रुझान भी अपने साथ लेकर चलते हैं।

एक जमाना था जब इन पर तेजा, चिरजां और फागण बजते थे। हिंदी गीत-संगीत नहींवत् बजता है इनपर, कह लीजिए अघोषित बहिष्कार। लेकिन जवान लड़कों ने स्टीरिंग थामा तो पंजाबी और हरियाणवी गानों की धूम ला दी।

रामजी की बखत भले ही 'समझ मन मायला रे थारी मेलोड़ी चादर धोय' चल जाए, बाकि समय तो 'बावन गज का दामण' और 'बालम थाणेदार' ही चलता है।

किंतु आज मैंने एक आश्चर्य सुना। खानों से भाटे भरकर लाने वाले किसी ट्रैक्टर से बड़ी दूर से एक सूदिंग सी धुन सुनाई दी। मैंने अपने कान लगाए। जाहिर है मैं यह गाना सुनना चाहती थी।

तूफान एक्सप्रेस की स्पीड से दौड़ते ट्रैक्टर ने कुछ शब्द पीछे छोड़े जो थे-
कुणसी मैं थांसू थारी जान मांग ली
कुणसी मैं थांसू सरकार मांग ली

मुझे ये उड़ते हुए शब्द और संगीत अच्छे लगे तो यूट्यूब पर टूटे-फूटे शब्द डालकर सर्च किया। आप यकीन कीजिए मैं आश्चर्य और आह्लाद से भरकर क्या सुनती हूं-

बोली म्हारी थां सू पहचान मांग ली
कुणसी मैं थांसू सरकार मांग ली

आश्चर्य इस बात का कि कुछ ही महीनों में यह 'मायड़ भासा अभियान' इतना व्यापक हो गया और आह्लाद इस बात का कि बात जमीन तक पहुंच चुकी है।
आज जब गीत-संगीत ने एक बहुत बड़े उद्योग का स्वरूप ले लिया है।

महज तीन-चार मिनट के एक गाने को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए करोड़ों रूपए का भौतिक व मानव संसाधन झोंक दिया जाता है और तब भी 'हिट' जाए कि 'पिट जाए' कोई गारंटी नहीं, गायक नाम पाए कि गुमनाम हो जाए कोई नहीं जानता।

 ऐसे में बिना किसी विशेष प्रयास के गानों का आम जनता तक पहुंचना और चल जाना लोगों का अपनी भाषा के प्रति भावनात्मक लगाव ही तो कहा जायेगा।

सरकार! एक जरा सी मांग थी मगर आपके हठ ने इसे अभियान बना दिया और जब अंतिम व्यक्ति ने इस अभियान की कमान संभाल ली तो कैसे रोकोगे? हां, एक उपाय अब भी है। कानों में रूई ठूंस लेना । वह उपाय आप अपना भी रहे हैं किंतु कब तक?

आप नेता हैं तो प्रदर्शन से अनभिज्ञ न होंगे,आप अफसर हैं तो ज्ञापन से अनभिज्ञ न होंगे, आप पढ़े लिखे हैं तो पत्र-पत्रिकाओं से अनभिज्ञ न होंगे और यदि आप युवा हैं तो सोशल मीडिया से सबकुछ जान रहे होंगे।

केंद्र से लड़कर हक मांगना समझ आता है पर क्या घर में भी लड़ना पड़ेगा? 'आ उघाड़ो चाहे बा उघाड़ो' पत तो अपनी ही जानी है। न देने वाले पराए हैं न लेने वाले।
फिर किसी जायज मांग को आप कब तक नजरंदाज कर सकते हैं?  

वैसे आज मैंने यह पोस्ट किसी को नसीहत देने के लिए नहीं अपितु उन कृतनिश्चयी मायड़ भासा हेताळू जवानों को बधाई देने के लिए लिखी  है जिनके प्रयासों से दुकानों पर राजस्थानी नाम, गाड़ियों पर 'हेलो मायड़ भाषा रो' स्लोगन और लोगों के मुख से 'म्हारी भासा तो राजस्थानी है'- जैसे वाक्य प्रस्फुटित होने लगे हैं।

आपके प्रयत्न रंग लायेंगे। राजस्थानी के कंटेंट क्रिएटर्स को भी साधुवाद! इस मुहिम में सर्वाधिक योगदान आप ही लोगों का है। फिजाएं बदल रही हैं। चरैवेति चरैवेति..
मुझे लगता है यह आंदोलन राज्य सरकार को  परोसी हुई थाली दे रहा है। आप इसे ठोकर मार देंगे तो विपक्षी तो तृप्त होगा ही। 'जीते जस' को गंवाना समझदारी नहीं कही जाती।

अंत में थोड़ी सी मुखातिबी हिंदी वाले दीदी-भैयाओं से।
मैंने कहीं पढा है आज़ादी के समय का एक वाकया-

किसी राजा से उनके शुभचिंतक ने पूछा- "प्रजातंत्र के बारे में आपके क्या विचार हैं?"
प्रजा किसकी?
 राजा की!
 राजा किसका?
 प्रजा का!

"तो अब तक प्रजा ने राजा को माना, अब राजा प्रजा को मान लेगा। क्या फर्क पड़ता है? घी तो मूंगां में ही ढुळसी!"
जब हिंदी वाले मानते हैं कि राजस्थानी हिंदी का ही अंग है तो फिर अपने ही अंग से इतनी ईर्ष्या या दुर्भाव क्यों? 
राजस्थानी को मान्यता मिलने से आपका साम्राज्य नहीं छिन जाएगा। आप निश्चिंत रहिए- घी मूंगां में ही ढुळसी।

 -  नीलू शेखावत

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