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वह गीतों का ज्यूकबॉक्स थी। लोक प्रचलित और स्वनिर्मित गीतों की पोटली कह लें। जहां बैठती बस गीत ही गीत बिखरते किंतु बेकद्री से नहीं, पूरे राजसी ठाठ से। आज के ढोल ढमकड़ों वाली फुहड़ता से वह मीलों दूर थी।
पतासी बाई! सावन के साथ ही तिंवारों की कतार शुरू हो जाती है। उनके साथ ही शुरू होते हैं ढोल, ढमके और तुंताड़े। एक अतीतमोही के लिए ये स्वर किसी पुरानी बावड़ी में उतरने वाली सीढियों का काम करते हैं। पुरानी स्मृति जिसे बार-तिंवार हरा कर जाते हैं -
ढोलण जी!
लेहरियो गावो
ल्यो सा
अब बधावा गावो
ल्यो सा
पीळो गावो
ल्यो सा
आपकी फरमाइश थक जायेगी मगर ढोलण मां न थकेगी। हर ऋतु, रीत,रस्म और रवायत के गीत । एक बार के लिए गूगल चाहे मना कर दे पर उसके दिमाग में सुपर कंप्यूटर फिट था ।
वह गीतों का ज्यूकबॉक्स थी। लोक प्रचलित और स्वनिर्मित गीतों की पोटली कह लें। जहां बैठती बस गीत ही गीत बिखरते किंतु बेकद्री से नहीं, पूरे राजसी ठाठ से। आज के ढोल ढमकड़ों वाली फुहड़ता से वह मीलों दूर थी।
सुर उसे विरासत में मिला था,अभ्यास से उसने इसें इतनी धार दे दी कि कई घंटों तक सतत ऊंची ढाळ और तीखी राग में गाते रहने के बाद भी थकती न थी।
कहते हैं- उगते धान की पनोळ छानी नहीं रहती। उसके मां बाप ने भी उस पनोळ को पहचाना होगा और पीढ़ियों से चलती आ रही पुरखों की पुण्यायी उसे सौंपकर निश्चिंत हो गए होंगे जिसे वह जुजमानी कहती थी। जुजमानी (यजमानी) अर्थात् अपने राजपूत यजमानों के लिए गाने की परंपरा।
परंपरा शायद बाद की बात है, पहले तो यह एक हक था जो पिता से प्राप्त संपत्ति की तरह कई बार सहज सुलभ होता है तो कई बार भाई बहनों से लड़ झगड़कर हासिल करना होता है।
उसने शायद ये दोनों ही मार्ग न अपनाए हों क्योंकि उसके भाग्य का विनिश्चय तो उसकी योग्यता कर रही थी। जहां जाती ऐसी तन्मय होकर गाती कि यजमान कहते कंठ हो तो ऐसा, अगली बार भी इसे ही बुलाना।
भाइयों के होते हुए भी पीहर की जुजमानी पा लेना कोई आसान काम नहीं है किंतु उसके गीतों के पिटारे और मीठे गटक पतासे से स्वर से सम्मोहित जुजमान भला उसके अनभ्यासी सहोदरों को अपने यहां क्यों आने देते?
उन दिनों पतासा शायद पहली पहल मिठाई होगी जो उसके परिवार को भा गई होगी और उसी से प्रभावित हो उसका नाम रख दिया गया 'पतासी'। बाद के वर्षों में अपने पीहर पक्ष के जुजमानों में उसके इस नाम ने बड़ी ख्यात अर्जित की। जहां एक बार किसी विवाह आदि में पतासी बाई गाने चली गई वहां फिर किसी अन्य ढोलण जी का पैर न जमा।
गोड़ावाटी में जाई जलमी पतासी बाई को ससुराल मिला मिज मारवाड़। ससुराल पक्ष के कला के कद्रदान और पारखी जुजमानों के रीति रिवाजों को उसने बखूबी समझा और सम्मान दिया।
पिता की विरासत हस्तगत कर चुकी पतासी बाई ससुराल में भी सबकी चहेती बन गई । तभी तो रावळों में धाक जमी होगी।
मेरे जन्म तक वह 'ढोलण जी' से 'ढोलण मां' बन चुकी थी। मेरी स्मृति में उसके आगे का एक दांत नदारद रहा है। उसका लम्बा घूंघट भी धीरे धीरे छोटा हो रहा था क्योंकि तब तक उसके ससुर की आयु वाले जुजमान सौ वर्ष को पहुंच रहे थे और बेटों की आयु वाले जुजमान कोटड़ी में बैठने लगे थे जो उसके पुत्र तुल्य ही थे,जो उसे ढोलण मां कहकर बुलाते। मैं भी उसे इसी नाम से बुलाती हालांकि कायदे से ननिहाल में, नानी से भी बड़ी उम्र की स्त्री को नानी बुलाना था।
गोल किंतु चपटी गौरवर्णी मुखाकृति,कानों में टोटियां, नाक में बाजर दाना लूंग, कलाई में डीगा मूठिया, छोटी-छोटी बिन काजल की फीकी आंखों से कुछ नीचे का घूंघट और रंग उड़ी ओढनी का कंधों से नीचे झूलता पल्ला। कुछ ऐसे ही डफड़े के साथ रावळे में प्रवेश होता उसका। आसन देने के उपरांत रावळे की हर छोटी बड़ी स्त्री उसका अभिवादन करती। क्योंकि "जाचक की बेटी सम्मान की अधिकारिणी है।"
कुंवरानियां पगां लगती (अभिवादन का तरीका जिसमें ओढनी का पल्लू दोनों हाथों में लेकर नमस्कार की मुद्रा में झुककर प्रणाम किया जाता है।) ठकुरानियां और बाल बच्चे मुजरा करते। ( 'मुजरो करूं सा' कहते हुए हाथ जोड़कर अभिवादन) बदले में वह भी 'वारणां लेवूं सा' कहते हुए दोनों हाथों को कोहनी से मोड़ते हुए बंद मुट्ठियों को एक बार हृदय से और एक बार कानों से लगाती और 'खम्मा-खम्मा' करती हुई वंश-प्रशंसा करती। आम दिनों में यह प्रशस्ति संक्षिप्त होती किंतु विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर या सगे-गिनायतों ( समाधियों) की उपस्थिति में गायन लंबा चलता जिसे 'सुभराज' कहते हैं।
आम तौर पर सुभराज पुरुष (ढोली) करते हैं किंतु हमारा ढोली बाबा ठहरा भोळा-डाळा। वह तो बस मूंछों को बंट देकर,धोती पर जोधपुरी कोट और सिर पर मोठड़े का साफा पहनकर नगाड़ों को डंका देता। बाकी सारी पंचायती ढोलण मां ही करती।
मेरे प्रति उसका स्नेह अगाध था। मैं उसके जुजमान ठाकुर की परदौहिती थी और उस परिवार का पहला बच्चा भी। मेरी परनानी जिन्हें मैं दा'सा बुलाती थी,आदेश देते- ढोलण जी म्हारी राजू (वे मुझे प्यार से राजकंवर या राजू कहते) की बनड़्यां गावो। वह तत्क्षण उगेरती-
म्हारी भाणेज कंवर रा पगल्या में रूणझुंणिया बाजे सा
म्हारी सेखाणी कंवर रा पगल्या में रूणझुंणिया बाजे सा...
गीतों की जो लड़ियां टूटने लगती उनके लिए शब्द विरल हैं। वह गाती और मैं नाचती। मेरे घुंघरू बंधे पैरों की बेतरतीब ठुमकों को भी वह अपनी ढफड़ी की थाप से मिलाती और गर्दन के लटके कर-करके उत्साहित करती जाती।
बनड़ी के बाद आता है 'बीरा'। बीरे की चूंनड़ बिना बाई का ब्याह ही अधूरा है।
उसके साथ मैं भी गाती-
लकड़ी (रखड़ी) ल्याजे रे बीरा लकड़ी ल्याजे रे
म्हारे मायरे री टेम तू जरूर आज्ये रे
म्हारे जुटणा ल्याजे रे बीरा जुट ल्याजे रे
म्हारे मायरे री टेम तू जरूर आज्ये रे
विवाह की रस्मों के सारे गीत गाने के बाद वह कोयलड़ी (विदाई गीत) गाती। मैं तब भी नाचती। वह हंसती और दा'सा टळक-टळक रोते।
"एक दिन मेरी राजू मुझे छोड़कर ससुराल चली जायेगी।"
वह हंसती हुई कहती- "जीव दोरो मत करो भाभुसा! भाणी बाईसा ने आपणे नेड़े ही परणावां।"
वाकपटुता में उसका कोई सानी न था। 'हां सा-मैं सा' 'हुकम' 'खम्मा' कर करके विवाह की महफिलों में सगे-गिनायतियों को गालियां गाकर ( समधियों को प्रेम पूर्वक बुली करना) कब उनकी जेबें खाली करवा लेती , उन्हें खुद पता न चलता।
भाटां ऊपर भरी तळाई हां के हां रे लाल
भ्याइसा ने कूट्या सगी लुगाई हां के हां रे लाल
मांगे पापड़ देवे पड़ापड़ हां के हां रे लाल
राबड़ी ने रात्यूं रोया हां के हां रे लाल
रोता ठुंणकता म्हांके आया हां के हां रे लाल
म्हांका ठाकर ले बुचकार्या हां के हां रे लाल
कु़ंण थाने कूट्या कूंण थाने मार्या हां के हां रे लाल
केबा सुणबा की बात नहीं है हां के हां रे लाल
घर की भगतण लार पड़ी है हां के हां रे लाल
सब एक साथ ठहाका देकर हंसते। उसके कंठों का सुर और गीतों के बोल उन्हें इतने आकर्षक लगते कि उसे वे नेग तो देते ही देते, अपने यहां होने वाले आगामी विवाहों की 'आगूंच साई' (प्री बुकिंग) या आश्वासन भी दे जाते।
ऐसी ही साई पर मेरे बाबोसा की बेटियों के विवाह में उसे मेरे पितृ पक्ष के घर में बुलाया गया था। शेखाटी में सम्मानजनक शब्दावली का उपयोग करने वाली, रजवाड़ी रीत की जानकार ढोलण जी अब दुर्लभ ही है।
राजपूत के 'रेंकारे' (ओछी भाषा) की गाळ। ओछी भाषा और बुजदिल बच्चे रावळों में नहीं चलते।
यह बात शायद वह भलीभांति जानती थी इसलिए अपनी शाब्दिक शालीनता के बल पर ही सब पावणियों (स्त्री मेहमान) की 'हरी बंधाकर' अपने डफ को उल्टा करके नोटों से भर लेती। (नाई, ढोली आदि जाति की स्त्री द्वारा आग्रहपूर्वक अपने यजमान के घर में आए मेहमानों के पैर के अंगूठे को हरी दूब और पानी से गीला करना और उनसे पैसे और उपहार लेने का रिवाज 'हरी बंधाना' कहलाता है।)
विवाह में मेरे नाना आए तो बाबोसा बोले- "ढोलण जी इनके यहां जितने प्रेम भाव से हमें गालियां गाते हो, उससे भी अधिक प्रेम से अब इन्हें गालियां गाओ। आपका नेग दुगना कर देंगे।"
"अन्नदाता! नेग दुगना क्या दस गुना कर देंगे तब भी अपने धणी-जुजमान को गाली न गाऊंगी । आप से सब लेकर भी गाली तो आप ही को गाऊंगी।"
वह दुगुने उत्साह से मेहमानों से भरे चौक में डफ पर थाप देकर ऊंचे सुर में गाने लगी-
भ्याइसा ने काळी कुती परणाद्यो सा नारायण जी परमेसर जी
आंको जोड़ो किण विध जोड़ां सा नारायण जी परमेसर जी
भ्याइसा की मूंछ कुत्ति जी पूंछ
इण विध जोड़ो गठजोड़ो नारायण जी परमेसर जी
ए फेरा किण विध खासी सा नारायण जी परमेसर जी
आगे भ्याइसा लारे कुत्ति जी
फद फद फेरा खासी सा नारायण जी परमेसर जी
ए बातां किण विध करसी सा नारायण जी परमेसर जी
भ्याइसा बतळावे कुत्ति जी गुर्रावे
बातां इण विध करसी सा नारायण जी परमेसर जी
विवाह में आए सभी भ्याई-सगे मेरे पितृ पक्ष के लोगों से हंसते हुए कहते- "काई सल्ला भ्याई? घरां बैठ्या गाळ्यां सुणा दी, अब जीव सोरो हैक?"
( क्या हाल समधी जी? घर बैठे गाली सुनकर अच्छा तो लग रहा है न?)
अपने जुजमानों से सीख (नेग) लेने के लिए वह घर की बहन बेटियों की तरह अड़ जाती। इतना और इतना दोगे तो ही सीख लूंगी वरना अपनी सीख 'काठी राखो'। बेटे के
विवाह में रकम (सोने का आभूषण) लिए बिना न टलती।
"बन्ना के सोना को सेवरो बंध्यो है। सुवा हाथ सूरज ऊंचो हुयो है आज! म्हारो मांगण को दिन है, आज तो मन चाह्यो लिया बिना हटूं कोनी।"
यजमान उस हठ को उसका हक मानते। थोड़ी बहुत चिरौरी करते, थोड़ी वो मानती,थोड़ा यजमान। वह सीख स्वीकार करती। यजमान पूछता राजी होकर ले रहे हो ना?
उसके चेहरे की खुशी सब बयां कर देती,रही सही कसर उसकी शुभकामनाएं।
मेरी उसके साथ अंतिम स्मृति भी नाच की ही है। मेरे किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में उसे भी बुलाया गया था। उन दिनों डीजे कहीं दूर दूर तक न था। बड़े स्पीकर भी शायद नहींवत। पांच दिन का बान ( विवाह के कुछ दिन पूर्व से ही गीत-संगीत का आयोजन) बैठता और थाली और नगाड़ों पर नाच होते । डंके की चोट पर घुंघरू बंधे पैरों की थाप और थिरकन। किसी की विशेष फरमाइश पर गीत भी गाया जाता। गीत ढोलण जी गाते।
मैंने अपनी मां के हाथ का सिला और जड़ा हुआ हरा बेस पहना था,शायद नथ टीका भी पहना। शाम को नाच शुरू हुआ तो वह बोली- "पेली म्हांका भाणी बाईसा ने नाचबा द्यो।"
उसने अपने हाथों से मुझे घुंघरू बांधे और लप्पा के बेस का पल्ला संवारा।
पांच दिनों तक उसके गीतों पर खूब घूघरे घमकाए और घूमर घाली। शायद वह हमारी अंतिम मुलाकात थी और मेरा अंतिम नृत्य भी। ननिहाल छूटा तो ढोलण मां, नाच गान और बचपन सब पीछे छूट गए।
कैशोर्य में संकोच ने डोरे डाल दिए जो उम्र बढ़ने के साथ लज्जा जाल के रूप में बढ़ता ही गया। यह भी संभव है कि मेरे पैरों को उसकी डफड़ी के अतिरिक्त कोई और थाप भायी ही न हो।
मैंने सुना कि अपने अंतिम दिनों में उसकी आंखों की रोशनी जाती रही। मोटा सा चश्मा लगाकर वह अपने नाती पोतों का हाथ थामे लकड़ी के ठेगे ठेगे जुजमानी पर जाती। गांव के स्त्री पुरुष ठिठौली करते- "डोकरी! हाडका मुसाणां में जा रिया है, अब तो रावळो छोड़! अब यह काम बेटे-बहुओं को संभला दे,घर बैठकर मौज कर।"
वह हंसकर आगे बढ़ जाती। आगे बढ़ते हुई बुदबुदाती-
"हाथ पोलो बींको जगत गोलो।" ( हाथ में पैसे रहेंगे तो मौज ही मौज है)
"जिस दिन जुजमानी छोड़ दूंगी, कोने में डाल देंगे।"
जब तक उसके गोडे चले, वह अपने कर्मपथ पर अविचल भाव से बढती गई। गोडे जवाब देने के बाद बहुत कम लोगों ने उसे देखा। सुना है उसकी डफड़ी को बड़ी बहू ने संभाल लिया है पर क्या उसके गीतों को भी संभाल पाई होगी?
मुझे अब भी सुनाई देता है-
छोटी छोटी बनड़ी रा लांबा लांबा केस
खेले बाबोसा रे आंगणे सा..
कांई ए बन्नी थाने घड़िया सुनार
कांई थाने संचे उतारिया सा..