नीलू की कलम से: पट्टे की पूछ

पट्टे की पूछ
पट्टे की पूछ
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बिना पट्टे वाले को न कोई गीत में गाए है न रोज में रोए। पट्टा कब गले से सिर पर जा बैठा कोई नहीं जानता। जिसके पास पट्टा है उसका रौब है।

इतने खूबसूरत जीव को कोई गिंडक कैसे कह सकता है? खैर यह समय 'गिंडक-विमर्श' का नहीं है। पुरखा जल्दी में है और मुझे कई बातें और पूछनी है।

कुत्ता कहने की इजाज़त तो उनके लिए भी नहीं जो थुलथुल मालिकों के साथ सड़क पर इधर-उधर नाक घुसेड़ते हुए और जिस किसी के घर के आगे खाली होते हुए चलते हैं 

पट्टा पहनने वाले जीवों का स्वेग भाईसाब! अलग ही होता है। बिना पट्टे वाले जीव उनसे दो पग दूर ही चलते हैं, उनकी पर्सनेलिटी के कारण नहीं, पट्टे के कारण।

आज हमने एक श्वान देखा। वैसे कुत्ते तो रोज ही देखते हैं पर यह कुत्ता इतना अलहदा था कि कुत्ता कहने का मन नहीं कर रहा।

कुत्ता कहने की इजाज़त तो उन प्राणियों के लिए भी नहीं जो गले में पट्टा डाले अपने थुलथुल मालिकों के साथ सड़क पर इधर-उधर नाक घुसेड़ते हुए और जिस किसी के घर के आगे खाली होते हुए चलते हैं । इन्हें आप 'डॉगी' अलबत्ता कह सकते हैं पर कुत्ता कत्तई नहीं।

सच पूछिए तो ये पट्टे वाले प्राणी कुत्ते जैसे लगते भी नहीं। कुत्तों की अपनी एक बिरादरी है पूरी ठसकदार और खानदानी। ठसक देखनी है तो अपने शेरे की देखो, मजाल है कि उसके रहते खेत में चिड़िया भी फटक जाए, रोजडे़ तो दूर की बात और खानदानीपन तो अपने मोती और कालू के नीचे नीचे।

इज्जत की रोटी खाकर जीवन भर मालिक का घर रुखाळते हैं। इनकी बराबरी में कहां पट्टे वाले खरगोश टाइप चेरी,ब्रूनो और ओली आयेंगे जो बिस्किट-बटर खाकर पूरे दिन दरवाजे पर ल्याऊ-झ्याऊ करते हैं और एक पटाखा फूटते ही गर्भगृह में दुबक जाते हैं।

लेब्राडोर भी मुस्तैद जवानों के पास रहे तब तक तो ठीक,घरेलू सेठ-सेठानियों के पास रहने पर शेपर्ड कम, तुड़ी की ओवरलोड 'झाल' शेप ज्यादा लगते हैं। ऐसे जीव जब मालिक के संग घूमने निकलते हैं तो हमारे कालू-मोती भ्याईजी समझकर रामा-श्यामा करने आते हैं पर अमीरी और खुराक के नशे में निढाल गेंडे जब कोई रिस्पॉन्स नहीं देते तो वे इनके कुत्तेपन पर थू थू करके मुड़ लेते हैं।

खैर कहां हमने श्वान से बात शुरू की और कुत्तेपन पर अटक गए। तो हां वह श्वान! ऐसा पतले सांचे में ढला हुआ मानो श्वानों का 'दीपिका पादुकोण' हो। एकदम स्लिम ट्रिम।सड़क पर ऐसे टमरके मारकर चल रहा मानो मिस फेमिना की कैटवॉक में आया हो।

तेलिए की तरह चुस्त लंबी गर्दन, बटवे जैसा छोटा-सा मुंह और महीन कागज जैसे पतले पर सतर्क कान। चारों पतली-पतली टांगों पर तनकर खड़ा होता है तो पीठ पर आकर्षक कर्व पड़ता है। इतना स्पेशल श्वान लोकल नहीं हो सकता,जरूर बाहर से आया है।

एक तो कमबख्त यह इंफिरियोरिटी कॉम्लेक्स पता नहीं हममें किसने भर दिया कि जो स्पेशल होगा वो बाहर से ही होगा फिर चाहे अंग्रेजी वाले लाटसाब हो या हिंदी वाले पिरफेसर साब। अपने लोगों की औकात हम माटसाब से ऊपर जाने ही नहीं देते।

जरूर किसी बड़े आदमी का होगा। पर 'बड़ा' होने की अपेक्षा 'बड़े का' होने के 'चाळे' अलग ही है। देखते नहीं गले से पट्टा गायब है। पट्टा पहनने वाले जीवों का स्वेग भाईसाब! अलग ही होता है। बिना पट्टे वाले जीव उनसे दो पग दूर ही चलते हैं, उनकी पर्सनेलिटी के कारण नहीं, पट्टे के कारण।

पट्टे भी बड़े से छोटे सभी प्रकार के होते हैं। बड़े पट्टे वाले छोटे पट्टे वाले को मौका लगते ही 'फंफेड़' डालते हैं और छोटे पट्टे वाले बिना पट्टे वाले को।

पट्टे अफसरों के ही नहीं, कवि,लेखक और साहित्यकारों के भी होते हैं। पट्टे दुकानों के भी होते हैं, संस्थाओं के भी होते हैं, यहां तक कि भाषाओं के भी। जिनके पट्टे हैं उनकी तूती बोलती है, बिना पट्टे के सगा भाई भी कहता है- "ल्या थारो पट्टो दिखा।"

बिना पट्टे वाले को न कोई गीत में गाए है न रोज में रोए। पट्टा कब गले से सिर पर जा बैठा कोई नहीं जानता। जिसके पास पट्टा है उसका रौब है।

हमारे नीम और आम के पट्टे अमरीका के नाम बन गए हैं , हमारी जमीन के पट्टे जंवाई जी के नाम बन गए और भाषा के पट्टे संसद भवन में बंट गए। हमारे 'भोळे भगवान्या' लोग देखते रह गए। अब हम चूं भी करें तो पट्टाधारी ठग हमें बड़ी-बड़ी आंखों के साथ पट्टा भी दिखा रहे हैं। लाओ पट्टा!पट्टे की बलिहारी है।

तो जी हमने कही- "इतना सुंदर श्वान देसी नहीं हो सकता और गले में पट्टा नहीं तो परदेसी नहीं हो सकता। आखिर यह पारलौकिक जीव इस गांव में पहुंचा कैसे?"

पास बैठे लोगों से पूछताछ की तो पता चला कुत्ता पुरखे बावरिए का है।पुरखा खानदानी शिकारी है,उसका निशाना अचूक है और कुत्तों का पारखी है।

हमने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो पुरखा वहीं बैठा एसाल्डी ( बचपन में देखी एसआरडी रेल जो धुंआ खूब फेंकती थी,अभी उसकी स्थिति कैसी है, पता नहीं) की तरह चिलम से धुंआ धुंआ हो रहा था।

हमने श्वान की तरफ इशारा करते हुए उससे पूछा-"कहां से लाए?"

" कांई ओ गिंडक?"
वह अपने लीर-लीर हुए साफे से आर-पार सिर खुजलाते हुए बोला। इतनी देर जो इमेज बनाई बैठकर, 'गिंडक' बोलकर पूरी की पूरी धराशयी कर दी राम के पूरे ने।

"छीं तो अंडा स्यूं ही ल्यायोड़ो पण यो आल-माल गिंडक कोन'! यांकि चाल छीं चीता झसी, निंजर छीं कांवळा झसी अर कान छीं मोर्या झस्या। शकार देखताणी म्हारो बेटो गोळी हू ज्याय छीं गोळी।"
( है तो यहीं से लाया हुआ पर एरा गेरा नहीं,इसकी चाल चीते की,नजर गिद्ध सी और कान मोर जैसे हैं।)

सारा विवरण अपेक्षानुरूप था सिवाय 'गिंडक' शब्द के। इतने खूबसूरत जीव को कोई गिंडक कैसे कह सकता है? खैर यह समय 'गिंडक-विमर्श' का नहीं है। पुरखा जल्दी में है और मुझे कई बातें और पूछनी है।

 मैंने कहा- "तुम्हारा श्वान साधारण नहीं,इसे सेना या पुलिस में होना चाहिए।"
"थाणा ळा लेर जाय छीं इन' केई बार"
(थाने वाले लेकर जाते हैं इसे कई बार)

"और तुम्हें?"
"मन बी बुलाय छीं निसाणां की टर्निंग में"
(मुझे भी बुलाते हैं निशाने की ट्रेनिंग में)

"तो तुम और तुम्हारा गिंडक पुलिस में भर्ती क्यों नहीं हो जाते?"
"भर्ती होबा ताई जेब पर काली पट्टी चाइजे छीं"
(भर्ती होने के लिए जेब पर काली पट्टी चाहिए)

"तो ले लो पट्टी उनसे जिनको टरनिंग देने जाते हो"
"म्हाने पट्टी दे देला तो काम में कैयां ले ला।"
"पर तुम्हें पट्टी की क्या जरूरत, बिना पट्टी के भी खूब पूछ हो रही तुम्हारी!"
"पट्टी गेल खुराक मिले छीं। पूछ का पलोथण को कांई अचार घालां?
(गुजारा तो पट्टी से ही चलता है,खाली पूछने भर से क्या होगा।)

बात लाख रुपए की थी और 'पट्टे' से चली तो खतम 'पट्टी' पर ही होनी थी।
पट्टी से याद आया हिन्दी पट्टी वाले भी तो हमें पूंछ-पूंछ कर ही काम लेते हैं,पट्टी कहां लेने देते हैं ? पूछिए कि पट्टी क्यों चाहिए?
 तो भाई! पट्टी गेल खुराक मिले छीं।पूछ का पलोथण को कांई अचार घालां?

- नीलू शेखावत

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