जिसने सिद्ध किया था स्वयं को सर्वश्रेष्ठ
आचार्य कुल का योग्यतम अंतेवासी
अनाघ्राता सुजाता का वरेण्य
कैसे सहन करता गर्भस्थ का दुस्साहस
मगर विषैले शब्द बाणों से विद्ध
विरूप देह-यष्टि वह
भरकर लाया था वक्रांगों में
अकूत जिजीविषा
जन्मना ब्रह्मविद् को अवकाश ही कहां
जागतिक प्रपंच से क्रुद्ध हो
महाकाश घटाकाश में भला क्यों अवरुद्ध हो
उद्घोष कर मिथिलेश के दरबार में
आत्मा नहीं पाताल या आकाश में
न गिरी गह्वर तम या प्रकाश में
हां हां मैं समर्थ हूं निस्संदेह
स्वानुभूति का आस्वादन करवाने में
दिवस मास वर्ष नहीं, क्षण भर में
कोलाहल तो होना ही था,परिहास भी
संदेह की रेखाएं इस पार से उस पार
द्वादश वय, तिस पर निर्भय
उसने जग मिथ्या माना,जग ने उसे नहीं
विद्वद् सभा! चर्म पारखी?
धवल केशों की कांति मटमैली हो गई
मुख म्लान हतप्रभ नत नयन
राजर्षि नतमुख हो शरण
अर्पित किया धन गेह मन
तत्क्षण स्थैर्य संकल्प और विकल्प में
तत्वमसि कह मुड़ गया कृश वपु वन की तरफ
देह से विदेह की
अष्ट वक्र से अष्ट चक्र की यात्रा
अश्रुतपूर्व बन गई।
- नीलू शेखावत