Highlights
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बेनिवाल टीम की हार और खींवसर की पहली जीत
- हनुमान बेनिवाल की पार्टी आरएलपी को खींवसर में पहली बार हार का सामना करना पड़ा, जहां बीजेपी ने बिना बेनिवाल के खाता खोला। हनुमान की पत्नी कनिका बेनिवाल 14,000 वोटों से हार गईं। पूर्व सहयोगी रेवंतराम डांगा ने बीजेपी से अलग होकर यहां जीत दर्ज की।
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झुंझुनूं में कांग्रेस का किला ध्वस्त
- झुंझुनूं सीट पर 21 साल बाद बीजेपी ने जीत हासिल की। राजपूत वोटों के अलग होने से ओळा परिवार की पकड़ कमजोर पड़ी। राजेन्द्र गुढ़ा की रणनीति ने यहां कांग्रेस को हारने में अहम भूमिका निभाई।
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दौसा में किरोड़ी मीणा की हार और पायलट की जीत
- दौसा में किरोड़ी बाबा के भाई जगमोहन मीणा हार गए, जिससे बाबा की राजनीति पर सवाल उठे। इस सीट पर सचिन पायलट और मुरारी मीणा ने बड़ी जीत दर्ज की, जिससे कांग्रेस को राहत मिली।
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भारत आदिवासी पार्टी का उदय
- चौरासी में भारत आदिवासी पार्टी (BTP) ने लगातार अपना वर्चस्व बनाए रखा। यह पार्टी कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए चुनौती बनकर उभरी है, जिसमें तीन विधायक और एक सांसद का चुनाव जीतना उल्लेखनीय है।
Jaipur | उप चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। राजस्थान में चाहे वो मंत्री का भाई हो, सांसद का बेटा हो, सांसद की पत्नी हों लगभर चुनाव हार गए। हालांकि बीजेपी की सरकार होने, सरकारी तंत्र होने के चलते जीत का मंत्र सलूंबर में चला।
खिंवसर सीट पर पहली बार बीजेपी का खाता बिना बेनिवाल के खुला और टीम बेनिवाल की हार। देवली उनियारा सीट पर करीब ग्यारह साल भाजपा लौटी राजेन्द्र गुर्जर के नेतत्व में ही। दौसा में किरोड़ी बाबा के भाई जगमोहन सलट गए।
झुंझुनूं में बीजेपी 21 साल बाद चुनाव जीत सकी हैं। कांग्रेस के गढ़ को ढहाने में गुढ़ा भाजपा के बहुत काम आए।
राजपूत वोटों के सेपरेट होने से ओळा परिवार की उम्मीदों पर ओळे ही गिर गए। इसी तरह लगातार तीन बार से भाजपा की विजयी सीट सलूम्बर पर बीजेपी बड़ी मुश्किल से जीतीं।
यहां दिवंगत विधायक की पत्नी को टिकट देकर बीजेपी ने सिंपेथी कार्ड खेला, लेकिन यहां का यूथ भारत आदिवासी पार्टी के साथ गया है। परन्तु लास्ट में बाजी बीजेपी के पक्ष में गई।
बात भारत आदिवासी पार्टी की भी करेंगे। जो वागड़ में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर रही है और भाजपा के लिए चुनौती बन रही है।
चौरासी में भारत आदिवासी पार्टी लगातार अपना वर्चस्व बनाए हुए है ही। राजकुमार रोत अब वागड़ में एक बड़े नेता के तौर पर पहचान बना चुके हैं। रामगढ़ में सिंपेथी वाला कांग्रेस का कार्ड ऐसा फटा कि आर्यन जुबेर अब पिता की विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे। सुखवंत सिंह एक कड़ी टक्कर में चुनाव जीते हैं। यही सुखवंत बीते दो चुनाव से हार रहे थे।
सबसे पहले बात करते हैं हॉट सीट खिंवसर की। हनुमान बेनिवाल की बोतल यानि कि आरएलपी पार्टी अब राजस्थान विधानसभा में खाली यानि कि शून्य सीट पर है।
दूसरी ओर नागौर की राजनीति में मिर्धाओं की धमक अभी भी बची रह गई। सवाल हम जनता पर छोड़ते हैं कि क्या रिछपाल मिर्धा और ज्योति मिर्धा को एक पारी का मौका मिल सकता है, किसी अन्य रूप में।
यदि बीजेपी यह सीट हार जाती तो राजाजी यानि कि Lohawat के विधायक और भजनलाल सरकार के मंत्री मुंडन करवाते। परन्तु रेवंतराम डांगा ने इससे बचा लिया।
खींवसर सीट से हनुमान बेनिवाल की पत्नी कनिका चुनाव हार गईं, लेकिन कांग्रेसियों ने भी कनिका को ही सपोर्ट किया।
भाजपा नेता की पत्नी डॉ. रतन चौधरी को कांग्रेस ने टिकट दिया था, जो साढ़े पांच हजार वोट भी नहीं पा सकीं। हालांकि कांग्रेस ने यहां गठबंधन नहीं किया था।
परन्तु यहां हालत गठबंधन से भी अधिक बुरी रही है। 79 हजार 492 वोट लाकर हनुमान बेनिवाल विधायक बन गए थे, लेकिन कनिका 94 हजार 727 लाकर भी करीब चौदह हजार वोटों से चुनाव हार गईं।
डांगा ने कम बैक गजब किया। बताया जाता है कि तेजाजी मंदिर वाले घटना के बाद जाट समाज में अलगाव और राजपूत वोटों का इस बार ध्रुवीकरण नहीं हुआ।
हनुमान बेनिवाल को दुर्ग सिंह की जरूर याद आई होगी, जिन्होंने पिछले यानि कि 2023 के चुनाव में 15 हजार 872 वोट लेकर 22 वोट से चुनाव जीतने में अहम भूमिका निभाई थी।
यहां रेवंतराम डांगा जो कभी हनुमान के ही हनुमान थे यानि कि शागिर्द हुआ करते थे। अब विधायक बन गए हैं। बीते छह माह में गुरुजी को गुड़ करते हुए चेला शक्कर वाली कहावत को आरएलपी में कई नेताओं ने चरितार्थ किया है।
विधायक दल के नेता रहे पुखराज गर्ग के भाजपा में जाने से शुरूआत हुई। इसके बाद बाड़मेर की बायतु सीट से नम्बर दो रहे उम्मेदाराम हनुमान बेनिवाल की बिना कंसेंट के कांग्रेस में चले गए और सांसद बन गए।
अब हनुमान बेनिवाल की टीम के सदस्य रहे डांगा भी चुनाव जीत गए हैं। डांगा को 2018 में लगा था कि उप चुनाव में बीजेपी से गठबंधन के साथ लड़ रही आरएलपी उन्हें मौका देगी। परन्तु हनुमान बेनिवाल ने अपने भाई नारायण को अवसर दिया। डांगा की राहें जुदा हो गई। जुदा राह पर चलकर डांगा विधानसभा पहुंचे हैं।
दूसरी हॉट सीट थी झुंझुनूं
शीशराम ओळा का यह विधानसभा क्षेत्र भाजपा के कब्जे में भाजपा के नेताओं द्वारा कम ही रहा। 1996 में शीशराम ओळा इसी सीट से सांसद बने थे और उन्होंने अपने बेटे ब्रजेन्द्र को उसी तरह उतारा जैसे ब्रजेन्द्र ओळा ने अपने बेटे अमित ओळा को मौका दिया। परन्तु यहां ब्रजेन्द्र चुनाव नहीं जीत सके।
वे उसी तरह लगभग उतने ही वोटों से हारे, जितने से उनके बेटे उस घटनाक्रम के 37—38 साल बाद हारे हैं। तो इस सीट पर 1996 में बीजेपी का खाता खोलते हैं डॉ. मूल सिंह शेखावत। डॉ. शेखावत पूर्व सीएम रहे भैरोंसिंह शेखावत के खास थे।
ब्रजेन्द्र ओळा को उनके पिता शीशराम ओळा उस वक्त 43 साल की उम्र में लांच करते हैं, लेकिन फिर ब्रजेन्द्र ओळा की लांचिंग अगले 12 साल नहीं हो पाई। अब ब्रजेन्द्र ओळा ने अपने बेटे अमित को 48 की उम्र में चुनावी लांचपैड पर उतारा, लेकिन जनता ने नकार दिया।
हालांकि पिता शीशराम ओळा ब्रजेन्द्र ओळा को लगातार 1998 में भी चुनाव में उतारते हैं, लेकिन उनकी हार जारी रहती है।
सुमित्रा सिंह से। सुमित्रा 1998 में उनको करीब नौ सौ वोट से हरा देती हैं, जबकि कांग्रेस से बागी होकर लड़ी थी।
वहीं 2003 में वे बीजेपी में शामिल हुईं और झुंझुनूं सीट को उन्होंने 1585 वोट से ब्रजेन्द्र ओळा से फिर दूर किया।
ब्रजेन्द्र तीन चुनाव हारकर 2008 में विधायक बनते हैं तो बनते चले जाते हैं। अब वे पिता ही की तरह संसद पहुंचे। लेकिन फिर एक शेखावत यानि कि राजेन्द्र गुढ़ा उनकी राह में आ गए। राजेन्द्र गुढ़ा आए या लाए गए, ये तो वे ही जानते हैं।
गुढ़ा चुनाव का प्रबंधन गजब करते हैं। उन्होंने भाजपा के लिए जीत की राह उसी तरह आसान की, जैसे देवली उनियारा ने नरेश मीणा ने राजेन्द्र गुर्जर के लिए की।
तीसरी हॉट सीट की बात करें तो वह निश्चित तौर पर दौसा जहां पर बाबा किरोड़ी के भाई जगमोहन मीणा चुनाव हारे हैं।
बाबा का अंदाज, स्टाइल और स्टंट लोकसभा चुनाव के पहले से ही जारी था। परन्तु बाबा ने इस्तीफा दिया और बाद में भाई जगमोहन को टिकट भी दिला दिया। बाबा वोकल रहे और वोटर साइलेंट।
बीते चुनाव में हारे शंकरलाल शर्मा यानि कि ब्राहमण वोटों पर असर भजनलाल शर्मा की अपील का भी नहीं हुआ और किरोड़ी मीणा काभी।
कहने को साथ थे, लेकिन वोट जिस तरह से आए हैंं उन्होंने बाबा की पॉलिटिक्स पर एक ब्रेक जरूर लगाया है। अब किरोड़ी मीणा का कद क्या अगले मंत्रिमंडल विस्तार में बढ़ेगा। यदि बढ़ेगा तो कितना?
नहीं बढ़ा तो बाबा टोलरेट करेंगे या नहीं? नरेश मीणा को एक नए नेता के तौर पर अचानक उभार मिलना एक थप्पड़ की वजह से तो नहीं हो सकता।
उप चुनावों में अक्सर तीसरे लोग बागी नहीं हुआ करते। बिना स्थापित सरकारों की मदद—इशारे या भरोसे के।
जैसे राजेन्द्र गुढ़ा उदयपुरवाटी के बजाय अपने जातिगत वोटों के लिए झुंझुनूं में जाकर होते हैं और नरेश मीणा हाड़ौती से मुख्य चुनाव लड़ने के बाद इधर आ जाते हैं।
चुनाव में पैसा और तामझाम बहुत खर्च होता है। सरकारों के लिए बड़ी बात नहीं है। परन्तु इस सीट पर अशोक गहलोत की मैच फिक्स वाली वाणी जरूर फेल हुई।
यह सचिन पायलट और मुरारी मीणा की बड़ी जीत है। गहलोत महाराष्ट भी जीत का दावा कर रहे थे, लेकिन वहां भी कुछ हाथ नहीं लगा है।
अब देखना है कि दौसा के परिणाम के बाद पूर्व के एसटी वोटर्स का रहनुमा भाजपा सरकार में बाबा किरोड़ी ही होंगे या भाजपा किसी विकल्प पर विचार करेगी, जो फिलहाल तो उनके पास है नहीं?
कांग्रेस में यह दीनदयाल बैरवा की नहीं बल्कि मुरारीलाल मीणा की जीत है और सचिन पायलट की भी।
चौथी सीट हॉट बनी एक थप्पड़ के कारण, नाम है देवली उनियारा वह भी चुनाव निपटने के बाद। चुनाव भले ही यहां भाजपा के राजेन्द्र गुर्जर जीते हैं।
बीजेपी इस सीट पर 2018 और 2023 में हरीश मीणा से हारी। लेकिन हरीश मीणा से पहले से कांग्रेस की राजनीति में रहे उनके बड़े भाई नमो नारायण मीणा की बेरुखी भाई हरीश पर सीधे तौर पर भारी पड़ी।
नरेश और किस्तूर मीणा में समाज ही के वोट बंट गए और कांग्रेस के प्रत्याशी किस्तूर मीणा तीसरे नम्बर पर चले गए। कांग्रेस इन सात सीटों में नरेश मीणा का यह थप्पड़ राजस्थान के चुनावी इतिहास में दर्ज हुआ है।
अब नरेश मीणा एक स्थापित युवा नेता है, जिस तरह रविन्द्रसिंह भाटी या राजकुमार रोत भी हैं।
वे यदि सधे हुए कदम रखते हैं तो...। हालांकि अब ब्यूरोक्रेसी उनके खिलाफ है और वह मोर्चा खोले रखेगी। हालांकि पहले मैं बता चुका कि उप चुनावों में हर कोई यूं ही हर कहीं जाकर बागी नहीं हुआ करता। नरेश मीणा भी यहां आए।
यहां नमोनारायण मीणा का आशीर्वाद! बाबा किरोड़ी का स्नेह या बीजेपी का इशारा।
तमाम बातें खामोशी में है, लेकिन जनता सब जानती है। यहां अब गुर्जर मीणा गठबंधन कांग्र्रेस के लिए हमेशा मौजूं नहीं रहेगा और सचिन पायलट को सीएम बनाने के जिस सपने में गुर्जर अपने वोट कांग्रेस केा दिए जा रहे थे, वह अब ठण्डे बस्ते में है।
इस सीट से सवाल यही है कि नरेश मीणा दौसा से भी टिकट मांग रहे थे और देवली से भी...।
वे हाड़ौती की छबड़ा सीट से करीब 43 हजार वोट एक साल पहले ही चुनाव लड़कर लाए थे। ऐसे में अब वे कहां से टिकट मांगेंगे?
किससे मांगेंगे या निर्दलीय राजनीति करेंगे। क्या उन्हें हनुमान बेनिवाल सपोर्ट करेंगे जो आरएलपी का विस्तार एसटी वर्ग में करना चाहते हैं?
पांचवीं सीट चौरासी! कहावत है कि चूके तो चौरासी! कांग्रेस की चौरासी ऐसी चूकी है कि उसका धुर वोटबैंक वागड़ उसके हाथ से लगभग फिसल गया है।
हालांकि यहां बीते दो चुनाव राजकुमार रोत जीते, लेकिन भारत आदिवासी पार्टी उप चुनाव भी जीत गइ और वह भी बीजेपी के तमाम प्रयासों के बावजूद।
राजकुमार रोत और उनकी टीम ने नई तरह की राजनीति शुरू की है जो जनता को पसंद आ रही है।
हालांकि 2023 में राजकुमार रोत 70 हजार वोट से जीते थे, लेकिन एक साल में ही अंतर खासा घट गया और बीजेपी ने कारीलाल को टिकट दिया तो कांग्रेस ने भी बदलते हुए महेश रोत को दे डाला।
परन्तु महेश रोत तो उतने वोट भी नहीं ला सके, जितने ताराचंद भगोरा 2023 में लाए थे। अब भारत आदिवासी पार्टी का उदय और सुनहरा हुआ है।
2023 से पहले विधानसभा में दो विधायक थे और अब तीन हैं।तीनों युवा हैं और उनका एक सांसद भी है। राजस्थान में तीसरी पार्टियां ऐसा कर नहीं पाई है।
परन्तु भारत आदिवासी पार्टी ने यह कर दिया है। चौरासी में अब राजकुमार रोत शायद ही नेशनल पार्टियों को पांव धरने दे। यह कब तक होगा और परिसीमन में बीजेपी क्या करेगी, उसके बाद ही चीजें तय हो सकेंगी।
अब दो सीटें वे हैं जो सिंपेथी वाली थी। सिंपेथी वाली सीटों पर अक्सर पार्टियां दिवंगत विधायकों के परिजनों को ही टिकट देती है। कांग्रेस ने रामगढ़ में आर्यन जुबेर को दिया।
परन्तु वे अपने पिता की विरासत आगे नहीं बढ़ा सके। यहां कांग्रेसियों को बीजेपी यह अहसास कराने में सफल रही कि एक और युवा नेता आ गया और अब यह तीस साल की राजनीति करेगा।
रामगढ़ में बंटेगे तो कटेंगे वाला मामला भी खूब टरेंड किया और हिन्दू वोटर एकजुट आया। यहां जय आहूजा को उनके थोड़े रुदन के बाद मना लेना बीजेपी के लिए फायदेमंद रहा। हरियाणा के नूंह में आए परिणामों ने यहां भगवा वोटर को एकजुट भी किया और फिर नारे ने तो काम किया ही है।
यही फार्मूला यानि कि सहानुभूति वाला बीजेपी ने सलूंबर में अपनाया, लेकिन वहां पर बीजेपी जीत गई। वहां दिवंगत विधायक अमतलाल मीणा की पत्नी बड़ी मुश्किल से यह सीट निकाल पाई हैं।
अब ये जो सात सीटें थीं उनमें से कांगेस के पास तीन थी, जिनमें से सिर्फ दौसा उनके हिस्से आई। झुंझुनूं, देवली उनियारा, रामगढ़ वह हार गई। चौरासी जीतकर बीटीपी ने अपना रुतबा कायम रखा है।
बीजेपी के नेताओं की बात करें तो यह किरोड़ीलाल मीणा की राजनीति के लिए बीजेपी में घातक रही है और भजनलाल शर्मा अब चैन की सांस ले रहे होंगे।
वहीं आरएलपी से भी बीजेपी ने एक सीट छीन ली। यानि अब विधायकों की संख्या 118 हो गई है। इन सबका फायदा जिन नेताओं को हुआ है। वे मदन राठौड़, भूपेन्द्र यादव और भजनलाल शर्मा हैं। देखना है कि अब सत्ता में जिलाध्यक्षों की नियुक्ति, बीजेपी सरकार में मंत्रि पदों पर नियुक्तियों वाले मामलों में किसकी कितनी और कब चलेगी। नजर बनी रहेगी। आप देखिए थिंक 360