एक पदयात्री जिसे भुला दिया गया: पदयात्रा के बहाने पद पाने के दौर में सुनील दत्त की वे नि:स्वार्थ यात्राएं याद की जानी चाहिए जो मानवता की मिसाल हैं

पदयात्रा के बहाने पद पाने के दौर में सुनील दत्त की वे नि:स्वार्थ यात्राएं याद की जानी चाहिए जो मानवता की मिसाल हैं
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Highlights

  • आजादी के बाद में राजनेताओं ने आदि महापुरुषों के नक्शे कदम पर चलकर कुर्सी पाने की जुगत भिड़ाई है
  • सुनील दत्त ने कई पदयात्राएं की थी, लेकिन कांग्रेस में ही उनका जिक्र नहीं होता
  • साम्प्रदायिक सद्भाव और पर्यावरण खासकर परमाणु के संबंध में की गई यात्राओं ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा
  • राजस्थान से भी गुजरी थी सुनील दत्त की सदृभाव यात्रा

जयपुर | पदयात्रा हमारे देश में सदियों से महान पुरुषों की स्थापना में बड़ी भूमिका निभाती रही है। इसी वजह से राम, बुद्ध, महावीर और शंकर जैसे महापुरुष को भारत की आत्मा में बसते हैं। इबन बतूता, पंडित राहुल सांकृत्यायन, ह्वेनसांग, फाह्यान, संघमित्रा, महेन्द्रवर्मन आदि—आदि कई और भी हैं जिनका जिक्र समीचीन है।

आजादी के बाद में राजनेताओं ने भी आदि महापुरुषों के नक्शे कदम पर चलकर कुर्सी पाने की जुगत भिड़ाई है। देश की सियासत में इन दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की लोकप्रियता परवान पर है।

जानकारों के दावे हैं कि इस यात्रा के बाद राहुल राजनीति में परिपक्व होकर उभरने वाले है। राहुल की इस यात्रा के बहाने आजादी के बाद देश की दूसरी राजनीतिक यात्राओं का गुणा भाग भी मीडिया में छाया हुआ है। 

चाहे वह पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पदयात्रा हो या फिर राजीव गांधी की सद्भावना यात्रा। लगे हाथ चर्चा लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा पर भी जिसने आगे की भारत की राजनीति का रुख मोड़कर ही रख दिया।

एक और ऐसा यात्रा है जो मीडिया की चर्चाओं के बीच पूरी तरह से गुमनामी में है। उस यात्रा की ना कही कोई चर्चा है और ना देशवासी इस यात्रा के बारे में कुछ जानते है।

यहां समझने की बात यह भी है की इस तरह की यात्रा करने वाले हर यात्री को उसका कुछ ना कुछ फायदा जरूर मिला है। चंद्रशेखर ने जब यात्रा करी तो वे पूरे देश में लोकप्रिय हो गए। आडवाणी की यात्रा के बाद भाजपा राष्ट्रीय राजनीति में पूरी तरह से स्थापित हो गई लेकिन जिस यात्रा की बात हम करने जा रहे है उसकी गुमनामी यह बताती है की उस यात्रा के यात्री को आखिर क्या हासिल हुआ।

आज इस वीडियो में हम बात एक ऐसे यात्री की करेंगे जिसका पूरा जीवन ही एक यात्रा रहा। हम बात कर रहे है बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता सुनीत दत्त की। सुनील दत्त के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया था।

जब संभलकर जमाने में चलने की कोशिश की तो देश का बंटवारा हो गया और भागकर वे भारत आ गए। देश के विभाजन से साथ शुरू हुई सुनील दत्त की पदयात्रा उनके जीवन भर साथ साथ चली। पदयात्रा करते करते सुनील दत्त बॉलीवुड पहुंचा गए और अपने दौर में बुलंदी के शिखर पर पहुंच गए।

सिनेमाई दुनिया की बुलंदी पर पहुंचने के बाद दत्त साहब राजनीति के अभिनय में आ गए और 1984 में उत्तर - पश्चिमी मुंबई से सांसद का चुनाव अपने नाम कर लिया। दत्त साहब जब सांसद थे तो पंजाब उग्रवाद की चपेट में जल रहा था। पंजाब को जलता देख दत्त साहब का दिल पसीज गया और उन्होंने मुंबई से अमृतसर तक पदयात्रा की। 

पूरे दो हजार किलोमीटर पैदल चलने के बाद दत्त साहब शांति और भाईचारे का पैगाम लेकर अमृतसर पहुंचे। जब दत्त साहब ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अरदास करी तो पूरा अमृतसर उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा। दत्त साहब का शांति और भाईचारे का पैगाम पंजाब में असर करने लगा और वहां काफी हद तक शांति कायम हो गई। 

सुनील दत्त की यह यात्रा राजस्थान होकर भी निकाली।जब राजस्थान की सड़को से दत्त साहब का काफिला गुजरता तो गांव के लोग उनकी एक झलक देखने के लिए टूट पड़ते। बहुत से ग्रामीण तो दत्त साहब की उस यात्रा में उनके साथ हो लिए और अमृतसर तक उनके सात कदमताल करते हुए यात्रा को सफल बनाया।

दत्त साहब की पदयात्राएं यही नही रुकी। 1988 में दत्त साहब एक ओर पदयात्रा पर निकल पड़े। उनकी यह यात्रा भारत नही बल्कि विदेशी जमीन पर निकल रही थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हमले के शिकार हुए जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी तक दत्त साहब ने पांच सौ किलोमीटर तक की पदयात्रा निकाल कर विश्व शांति और परमाणु हथियारों को नष्ट करने का संदेश दिया।

अब ये यात्राएं दत्त साहब  के जीवन का एक हिस्सा बन गई थी। जहां भी हिंसा और दंगो की खबर सुनते दत्त साहब वहां सबसे पहले पहुंचते। जब 1990 में बिहार के भागलपुर में दंगे भड़क उठे तो दत्त साहब वहां पहुंच गए और सांप्रदायिक शांति कायम करने के लिए उन्होंने फैजाबाद से अयोध्या तक की एक और पदयात्रा करी।

दत्त साहब सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ लड़ने वाले एक ऐसे अग्रदूत थे जो देश के हर कौन अमन का पैगाम लेकर सबसे पहले पहुंचते।दत्त साहब के इस तरह के प्रयासों से कांग्रेस में उनके नेतृत्व में एक विंग चलती थी जो सद्भावना के सिपाही नाम से पहचानी जाती थी।

हर एक राजनीतिक यात्रा का एक सियासी टारगेट होता है। किसी को कुर्सी मिली तो किसी को लोकप्रियता लेकिन दत्त साहब की ये सभी पदयात्राएं पूरी तरह से शांति और सद्भावना का पैगाम थी जिनकी आज देश में चर्चा तक नही है। 25 मई को सुनील दत्त का निधन हो गया। वजह हार्ट अटैक बताई गई, लेकिन यह भी सामने आया कि तेज धूप में चुनावी रैलियों में यात्राओं के चलते ही वे ज्यादा अस्वस्थ हो गए थे।

बहरहाल राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जब समाप्त होगी तो वह भी देश की ऐतिहासिक यात्राओं के इतिहास में दर्ज हो जायेगी। इसकी सफलता और सफलता पर बड़ी बड़ी बहसें भी होंगी लेकिन देश को यह जानना भी जरूरी है की बिना किसी सफलता और असफलता की परवाह किए बगैर वे दत्त साहब ही थे जिन्होंने शांति और भाईचारे का संदेश देने के लिए अपने वतन ही नही बल्कि विदेशी जमीन भी माप दी।

स्टोरी हमारे लिए लिखी है लोकेन्द्रसिंह किलाणौत ने...।

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