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मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह 1998, हरियाणा में भूपिन्दर सिंह हुड्डा 2009, गुजरात में दशकों पहले माधव सिंह सोलंकी, असम में तरुण गोगोई, शीला दीक्षित 2009 आदि अब बीते जमाने की बातें हो चुके हैं। परन्तु यदि अशोक गहलोत यह कमाल कर देते हैं तो उनका काडर और भी बड़ा हो जाएगा। हिमाचल प्रदेश में रिपीट का कमाल कई बार हुआ है।
जयपुर | अशोक गहलोत मिशन रिपीट मीटिंग में बरस पड़े बताए। यह बरसना सायास था या अनायास। वहीं इंटरनल मीटिंग की वन टू वन डायलॉग मीडिया में आ जाना, प्रमुखता से छपना यह साबित करता है कि पिक्चर सेट है। जैसा डाइरेक्टर कह रहे हैं, वैसी ही उस मीडिया में आ जाना जो गुलाबी प्रभाव में है कोई मुश्किल काम नहीं है।
ऐसा लगता है कि अपने ही हीरो, अपने ही विलेन का एक प्रहसन था और एक बॉलीवुड मूवी का पॉलिटिकल ऐंगल है कि अपने ही सिपहसालारों को कमजोर दिखाकर जनता में उनको सहानुभूति के लिए भेजा जाए और हीरो का रोल भी दमदार हो जाए। कास्ट वाले इश्यू पर ऐंगल तो देखिए जातिगत जनगणना पर जिस वर्ग में नाराजगी थी, उसे दिखा दिया कि मैं तो आपके साथ हूं यह तो नेशनल स्टैंड है।
वहीं ओबीसी वाली चर्चा आदिवासी समाज में कर देने को भी उन्होंने खुद की मार्केटिंग का हिस्सा बना लिया। यह जादूगरी है। हालांकि रिपीट वाला मामला बहुत मुश्किल है। कांग्रेस ने सत्ता, संगठन और डिजाइनदार बक्सा होने के बावजूद टारगेट 156 का चुना है, मतलब 44 सीट छोड़कर, क्यों और किनके लिए। राजस्थान में दो सौ विधानसभा सीटें हैं और टारगेट पर 156। यह कुछ समझ नहीं आया। क्या कोई जादुई या ज्योतिष का अंक है, लोगों को इस पर पड़ताल करनी चाहिए।
खैर बात रिपीट की करते हैं
राजस्थान में सरकार लास्ट रिपीट 1985 में हुई थी जब हरिदेव जोशी मुख्यमंत्री बनाए गए। सरकार में रहते हुए यहां पर मोहनलाल सुखाड़िया के अलावा कोई भी सीएम रिपीट नहीं हुआ है। सुखाड़िया लगातार चार बार सीएम बने थे।
बीजेपी से भैरोंसिंह शेखावत 1993 में रिपीट हुए थे, लेकिन वह भी एक साल के राष्ट्रपति शासन के बाद। मतलब राजस्थान का मामला ही परांठे को पलटकर सेकने का है। राजस्थान क्यों अपन यदि पड़ोसी राज्यों की भी बात करें तो याद भी नहीं आता कि कांग्रेस कब रिपीट हुई थी। यूपी में 1957 में संपूर्णानंद जरूर सीएम रहते सरकार बना पाए।
बीजेपी की बात करें तो उत्तर प्रदेश, गुजरात, उत्तराखण्ड जैसे राज्य वह रिपीट कर रही है। कांग्रेस के लिए तो यह सब दूर की कौड़ी है। क्या कांग्रेस का वह वक्त जा चुका है। कि वह उसी चेहरे पर रिपीट कर ले।
मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह 1998, हरियाणा में भूपिन्दर सिंह हुड्डा 2009, गुजरात में दशकों पहले माधव सिंह सोलंकी, असम में तरुण गोगोई, शीला दीक्षित 2009 आदि अब बीते जमाने की बातें हो चुके हैं। परन्तु यदि अशोक गहलोत यह कमाल कर देते हैं तो उनका काडर और भी बड़ा हो जाएगा। हिमाचल प्रदेश में रिपीट का कमाल कई बार हुआ है। गोवा, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, बंगाल, उत्तराखंड में कांग्रेस की ऐतिहासिक रिपीट की स्थिति किसी से छिपी नहीं।
अब कांग्रेस रिपीट क्यों नहीं होती जबकि उत्तरप्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड में बीजेपी और दिल्ली में आम आदमी पार्टी लगातार रिपीट हो रही है। कर्नाटक में कांग्रेस ने 2018 में जरूर रिपीट कम बैक किया था, लेकिन बीजेपी ने विधायक तोड़कर सरकार बना ली थी। परन्तु सवाल वहीं है कि अब कांग्रेस के सीएम सरकार क्यों नहीं रिपीट करवा लेते तो इसका जवाब कामराज योजना में छिपा है।
राज का काम या काम का राज से आप इसका अर्थ मत निकालिए भारत रत्न के. कामराज वह शख्स थे जिन्होंने तमिलनाड्डु में कांग्रेस को रिपीट किया था और तीन बार सीएम बने। उन्हें लगा कि संगठन कमजोर हो रहा है तो उन्होंने नेहरू को कामराज सिंडीकेट सिस्टम का सुझाव दिया था। उसमें कांग्रेस के छह केबिनेट मंत्री व छह मुख्यमंत्री ने सता छोड़कर पार्टी के लिए काम किया। कामराज 1963 मैं कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने।
यह वह दौर था तब कांग्रेस की बुजुर्ग पीढ़ी रिटायर हो रही थी और नई पीढ़ी का कांग्रेस से मोह नहीं जुड़ पा रहा था। ऐसे में आज भी एक कामराज सिस्टम हो तो रिपीट मामला हो सकता है अन्यथा यदि पूरी पिक्चर का पटकथा लेखक, एक्टर, निर्माता—निर्देशक, वितरक और दर्शक खुद एक ही व्यक्ति हो तो मामला लम्बा नहीं खिंचता। खासकर के लोकतंत्र में तो बिल्कुल नहीं, जिसके लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही का कथन है कि राजा अब रानी के पेट से पैदा नहीं होता।