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दो- ढाई कमरों वाली उस जगह में सोफे होंगे, कालीन बिछी होगी, दीवार पर कुछ मेडल होंगे, कंहरती हुई कोई दीवाल घड़ी होगी, कोई स्त्री स्वर होगा- खांसता हुआ। नवेंदु उसे घर कहता है। हमारे लिए ऐसी जगहें घर नहीं होतीं।
प्रेम किरण के घर जो बैठकी चली और जिसका जिक्र हम पहले के एपिसोड में कर चुके हैं, वह बेहद लंबी थी। लेकिन उसमें उकताहट, बेचैनी या खीझ की जगह आपको- हमको ताजादम रखने के तमाम ज़रूरी एलीमेंट थे।
हम कोई पागल या बेवड़ा तो हैं नहीं जो कहीं भी मुंह उठाये चल दें और लौटें तो कीचड़- कादों में सने हुए। लेकिन ऐसा होना पड़ता है। घर ऐसी ही शै का नाम है जो (बकौल विनोद कुमार शुक्ल) जाने के लिए उतना नहीं होता जितना आने के लिए होता है।
इस शहर में हम दशकों रहे। इस शहर की तमाम गलियां किसी न किसी रूप में और किसी न किसी घटना- परिघटना के बहाने हमसे वाबस्ता रहीं या हम उनके राज़दार रहे।
गलियां कभी नहीं बोलेंगी, सड़कें कभी नहीं बोलेंगी, घर कभी नहीं बोलेगा, कभी नहीं बोलेगी कोई नदी। उन्हें सुनना हो तो बेवड़ा बनना ही होगा, लोटना ही होगा कादों- कीचड़ में।
शुक्र है कि हम बच गये। शुक्र है कि बिहार में बैन है वह जिसे हमारे पत्रकार दोस्त कन्हैया भेलारी 'नूरी' कहते हैं और जिस बैन को हटाने के लिए वह सरकार बहादुर से दर्जनों बार लिखित- अलिखित गुहार लगा चुके हैं।
लेकिन बैन है तो है। बैन अपनी जगह, हम अपनी जगह। बिना पिये हम टल्ली हैं। बेजान जैसी लगने वाली और समझ के दायरे से बार बार फिसल जाने वाली चीजें जब आपकी जुबान में बोलने लगें तो समझिये कि नशा दो बोतल से कुछ ज्यादा का ही है और यह नशा मोहब्बत का है।
उस आशनाई का जो गूंगे को भी बोलना सिखा सकती है। किस्सा कोताह कि बगैर 'नूरी' हमारी गाड़ी सरपट भागी जा रही है। शाम के करीब साढ़े छह बज रहे हैं। जाम नहीं मिला तो चालीस मिनट में हम नवेंदु के सामने होंगे।
दो- ढाई कमरों वाली उस जगह में सोफे होंगे, कालीन बिछी होगी, दीवार पर कुछ मेडल होंगे, कंहरती हुई कोई दीवाल घड़ी होगी, कोई स्त्री स्वर होगा- खांसता हुआ। नवेंदु उसे घर कहता है। हमारे लिए ऐसी जगहें घर नहीं होतीं।
हमारे लिए घर उस जगह का नाम है जहां आप अलफ गा सकें या बेखौफ उदास हो सकें या बाज ज़रूरत फूट फूट कर रो सकें। नवेंदु के पैमाने अलग हैं क्योंकि उसने तोड़फोड़ हमारे मुकाबले कुछ ज्यादा ही देखी है।
बरसों बरस की सघन बेरोजगारी, हारी- बीमारी, निहायत अपने लोगों की कुटिल चालें, लगातार तन्हा होते जाने के हाल- अहवाल उसके साथ कुछ ज्यादा ही रहे हैं। लेकिन इसका कहीं से यह मतलब नहीं कि हम उसे दया पात्र बनायें या उसकी पात्रता तय करने के लिए जनमत संग्रह जैसी कोई मुहिम छेड़ें।
उसका संघर्ष, उसका आत्मसंघर्ष, उसकी लड़ाइयां, उसके सरोकार कितने खांटी और असली रहे- यह काम वक्त को करने दीजिए न।
गाड़ी हर सौ मीटर के बाद जाम में फंस जा रही है। लेकिन जाना तो है ही। पहुंच ही जाएंगे आठ बजे तक। यह दीगर है कि ऐसा हुआ नहीं। जाम ने दिल तोड़ दिया। बज गये करीब साढ़े आठ। अब 'का खाऊं, का पीऊं, का ले परदेस जाऊं' की चिंता हलाकान कर रही है।
शैलेश! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम नवेंदु के यहां जाने का प्रोग्राम रात भर तक के लिए मुल्तवी कर दें? बस, रात भर तक के लिए..। 'नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। कल को हम दौरे पर होंगे। फिर उसके बाद आप दिल्ली की राह पकड़ लेंगे। जो होगा, आज ही होगा और और अभी ही होगा- नाऊ ऐंड नेवर।'
गुजिश्ता सत्तर- अस्सी की दहाई में बिहार की हिंदी पत्रकारिता जब अपने पुराने और दकियानूस चोले से आजाद हो रही थी, जब नक्सलबाड़ी की ठहरी हुई आग और रचनात्मक चेतना का समूचे सूबे में अनहद विस्तार हो रहा था, जब भूमि संघर्ष और गैर बराबरी के मसाइल हमसे अपना हिसाब मांग रहे थे, जब बेलछी और पिपरिया और पारसबीघा जैसे नरसंहार हो रहे थे, जब निजी सेनाओं का अभ्युदय हो रहा था, जब अरुण रंजन और हेमेंद्र नारायण और अरुण सिन्हा पत्रकारिता की नयी इबारत लिख रहे थे, जब आकाश बदल चुका था, जब एसपी सिंह ' रविवार' निकाल रहे थे और आनंद स्वरूप वर्मा ' शाने सहारा'- तो आरा की संस्था ' युवा नीति' से जुड़े दो नौजवानों ने बिहार की पत्रकारिता में साथ साथ इंट्री मारी- नवेंदु और श्रीकांत।
बाद में एसपी सिंह ने इस जोड़ी को यह कहते हुए तोड़ डाला कि यह सिनेमा नहीं है। यह पत्रकारिता है पत्रकारिता.. और यहां लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल जैसी जोड़ी बनाये रखने का कोई तुक नहीं है। वह चल भी नहीं सकती। पहले दोनों 'पाटलिपुत्र टाइम्स' में रहे। नवेंदु 'आज' में भी रहा। बाद में वह नवभारत टाइम्स, पटना का हिस्सा बना और श्रीकांत ' हिन्दुस्तान' का। किन राहों से गुजर कर उस मुकाम तक दोनों का पहुंचना हुआ, इस पर कभी बाद में। फिलहाल इतना जान लीजिए कि हम ' पुष्पांजलि अपार्टमेंट' पहुंच चुके हैं जहां नवेंदु रहता है। ( क्रमश:)