Highlights
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कुछ तिथियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। इन्हें 'अबूझ मुहूर्त' या 'स्वयं सिद्ध मुहूर्त' कहते हैं, जिनमें विजयादशमी (दशहरा) एक महत्वपूर्ण तिथि है। इस दिन शस्त्र पूजा का विधान होता है, जिसमें योद्धा वर्ग अपने शस्त्रों को शक्ति का स्वरूप मानकर उनका पूजन करते हैं।
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राजस्थान की योद्धा जातियाँ नवरात्र के दिनों में अपने आयुधों का रख-रखाव, युद्ध सामग्री की मरम्मत और युद्ध कौशलों का अभ्यास करती हैं। अंतिम दिन शमी पूजन और नीलकंठ दर्शन के साथ विजय की कामना की जाती है।
किसी भी कार्य को करने का श्रेष्ठतम समय ‘मुहूर्त’ कहलाता है।
कहते हैं- मास श्रेष्ठ होने पर वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का एवं मुहूर्त श्रेष्ठ होने पर लग्न सहित समस्त दोष दूर हो जाते हैं।
इसलिए शुभ मुहूर्त्त का विशेष महत्त्व है किन्तु कुछ तिथियां ऐसी होती हैं जिनके लिए मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं रहती, ऐसी तिथियों को अबूझ मुहूर्त या 'स्वयं सिद्ध मुहूर्त' कहते हैं।
ऐसे 'स्वयं सिद्ध मुहूर्तों' में एक है- विजयादशमी (दशहरा)। इस दिन हमारे यहाँ शस्त्र पूजा का विधान है।
दशमी पूर्व के नवरात्र शक्ति की उपासना व अनुष्ठान का समयकाल है।
शक्ति का प्रयोग करने से पहले इसका समुचित अर्जन भी करना होता है इसलिए शस्त्रधारी वर्ग अपने शस्त्रों को शक्ति का स्वरूप मानकर उनकी विधि-विधान से पूजा अर्चना करते हैं।
हमारे यहाँ की योद्धा जातियाँ विश्व की अन्य युद्धजीवी जातियों की तरह 'ऑल इज फैअर इन लव एंड वॉर' पर विश्वास रखने वाली नहीं।
उनके लिए युद्ध और प्रेम के भी नियम रहे। यही कारण है कि वे चर्म या रक्त पिपासु कभी न बने। वे शत्रु का भी सम्मान करना जानते थे।
रावण की मृत्यु पर श्रीराम के विभीषण के प्रति वचन द्रष्टव्य हैं -
मरणान्तानि वैराणि निवॄत्तं न: प्रयोजनम्।
क्रीयतामस्य संस्कारो ममापेष्य यथा तव॥
"शत्रुता का अंत मृत्यु से होता है। हमारा उद्देश्य पूरा हो गया है। उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाए। वह मेरे लिए भी उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हारा।"
युद्ध देश, काल और परिस्थितियों के कारण उनके लिए अपरिहार्य था किंतु यही उनका जीवन नहीं था। वे शस्त्र और शास्त्र में समान रूप से पारंगत थे।
नीति निपुणता, व्यवहारिक कुशलता और धर्मोचित मर्यादा का पालन उन्हें किसी 'कबीलाई' की बजाय 'राजर्षि' बनाता था। उनकी खड़ग में मां भवानी की प्राण प्रतिष्ठा होती थी।
क्षत्रिय संन्यास धारण करके भी शस्त्र और सवारी का त्याग नहीं करते। उनके लिए युद्ध और मरण पर्व था और पर्व का आयोजन मुहूर्त से ही होता है।
बड़ी विचित्र स्थिति है- युद्ध और विपत्ति कहाँ समय बताकर आते हैं। किंतु इससे अधिक शुभ कर्म भी और क्या होगा। मरण तो मंगलकारी है।
स्वयं सिद्धा विजया दशमी ने इसका समाधान किया।
क्षत्रिय-जन नौ दिन के अनुष्ठान उपरांत विजया दशमी को शस्त्र अभिमंत्रित कर चारों दिशा में निर्मित नगर कोटों पर रखवा देते ताकि युद्ध हेतु किसी भी समय प्रयाण किया जाए तो वह शुभ ही हो।
हर समय युद्ध या आशंका में जीने वाले राजस्थान में नवरात्र में पंडाल और नाच गान आदि का आयोजन बहुत नया चलन है।
यहाँ इन दिनों आयुधों का रख रखाव, युद्ध सामग्री की मरम्मत और युद्ध कौशलों का अभ्यास किया जाता। मल्ल युद्ध आयोजित होते।
अश्व और असि-धार की परख इन्हीं दिनों होती। व्रत, अनुष्ठान और शास्त्र-पठन घरों में विशेष रूप से किये जाते।
अंतिम दिन शमी पूजन व नीलकंठ का दर्शन कर जयसिद्धि की कामना की जाती। संध्याकाल में गाँव-गाँव में जलते दशानन के पुतले यहाँ के लोगों को प्रतिवर्ष याद दिलाते- यतो धर्मस्ततो जयः।
- नीलू शेखावत