सामाजिक पिछड़ापन: लोकसभा चुनावों के बीच एक पिछड़ी कौम कालबेलियाओं की व्यथा गाता नारायणनाथ

यदि किसी की मौत हो जाती है तो लोग गांव में दफनाने नहीं देते, जहां रहते हैं, वहीं अंतिम क्रिया करनी पड़ती है। यह तो एक छोटी पीड़ा है। शिक्षा, रोजगार और अन्य मूलभूत बिंदुओं को सरकार ने कभी छूने की सोची तक नहीं।

Jaipur | चुनावी आपाधापी के बीच वायदों, घोषणा पत्रों और गारंटियों के शोर में हमारे बीच एक पीड़ा या कह दें कि करुण आह पहुंची है। इस पीड़ा को स्वर दे रहे हैं नारायणनाथ कालबेलिया...। अपने कुटुम्ब में पहले पढ़े —लिखे। पहला व्यक्ति जो कानून पढ़ रहा है।

नारायण का कहना है कि उनका समाज जिसकी आबादी बहुतायत में है, लेकिन चुनावी घोषणा पत्रों, वादों और गारंटियों में कहीं कुछ भी नहीं पाता। इस घुमंतू समाज के पास रहने या खेती करने को तो छोड़िए दफन होने के लिए भी जमीन नहीं है।

यदि किसी की मौत हो जाती है तो लोग गांव में दफनाने नहीं देते, जहां रहते हैं, वहीं अंतिम क्रिया करनी पड़ती है। यह तो एक छोटी पीड़ा है। शिक्षा, रोजगार और अन्य मूलभूत बिंदुओं को सरकार ने कभी छूने की सोची तक नहीं।

नारायणनाथ से बात करते हैं तो लगता है कि इस समाज की मांगें किसी तरह की भीख नहीं है, यह इनका हक है जो लोकतांत्रिक सरकारों को आईना भी दिखाती है।

नारायण कहते हैं कि वह वकील बनना चाहते हैं। पिता की मौत के बाद महज बाईस साल की उम्र वाले इस युवा की आंखों में चमक नजर आती है। यही नहीं वे कहते हैं कि बड़ी संख्या होने के बावजूद कोई सरकार या सरकारी तंत्र उनकी ओर नजरें इनायत नहीं करता।