नीलू की कलम से: दिवाली की खुश्बू

दिवाली की खुश्बू
दिवाली की खुश्बू
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उसके जाने के समय मैं फिर उसके आस पास मंडराती ताकि एक शीशी और मिल जाए

मिल जाती तो ठीक वरना उसी एक को मुग्ध होकर देखती हुई अगली दिवाली तक प्रतीक्षा के दिन काटती

घर का एकमात्र बच्चा होने के कारण मेरी भूमिका 'हाजरिया' की थी सो मुझे आदेश मिलता कि जब तक गांधण मां खाना खाए मैं उसी के पास बैठूं

उसे किसी चीज की जरूरत हो तो आवाज न देनी पड़े

बचपन में जब हमें कैलेंडर देखना नहीं आता था और घर के बड़े हमें बताना जरूरी नहीं समझते थे तब भी हमें सिक्स्थ सेंस से पता चल जाता था कि दिवाली आने वाली है।

थापना (प्रथम नवरात्रि) के दिन से ही घर में घी और मीठे से मिश्रित धुंए की सौरभ महकने लगती थी जो दिवाली आने का अलार्म था।शरद की शुभ्र चांदनी इस आभास को बल देती और खेतों से आने वाली अन्न की खुश्बू इसे और प्रगाढ़ कर देती।

जिस दिन मेरे नाना दूसिंगी,चोगनी और छगनी को अपने कंधे पर रखकर पौ फटने से पहले खेत को निकल जाते, मैं अपने बाल सहचरों में घोषणा कर देती कि दिवाली अपने गांव में आ चुकी है मगर कुछ दिन खेतों में ठहरेगी और धान (अनाज)के साथ ही घर आएगी।

खारी भर भरकर धान घर आता तो साथ आते नए कपड़े,खूब सारा किराने का सामान और साथ ही साथ एक खुशबू की बीबड़ी जिसे हम गांधण मां कहते थे।

कद बमुश्किल पांच फीट और उसी बीएमआई (BMI) के फिगर वाली एक सांवली आकृति,झुर्रीदार गोलमटोल चेहरा,गोल गोल आंखें,कानों में बड़े बड़े बाळे और नाक में सुंघनी सूंघते हुए चूड़ीदार पायजामे व घेरदार जामे के साथ  जुहारे लगी चुनड़ी में जब ठणमण ठणमण करती घर के चौक में रुकती उस दिन पूरी दिवाली आ जाती थी।

पूरा घर तरह तरह की सम्मिलित खुशबुओं से महकने लगता। मुझे सामने पाते ही झट से एक छोटी मगर खूबसूरत सी शीशी खुलती और रूई में भिगोकर कंधे कलाई से होते हुए अन्तर (इत्र) का फाहा मेरे कानों में टांग दिया जाता।

कई बार उस शीशी की बक्शीश मुझे ही कर दी जाती जो उसे मेरे नाना द्वारा दी जाने वाली बक्शीश के आगे रंचमात्र भी ना होगी पर मुझे तो कृतकृत्य कर देती।धनतेरस से लेकर अगले दो तीन दिनों के लिए गांधण मां रात में हमारे घर के ही एक कोने में ठहरती और दिन भर पूरे गांव में घूम घमकर तिंवारी एकत्र करती।

पहले  दिन की रिश्वत काम करती थी या उसकी अन्तर की एक से एक आकर्षक शीशियों से भरी पेटी का आकर्षण, नहीं जानती, मगर गांधण मां की हर फरमाइश-"भाणू बन्ना पाणी,भाणू बन्ना रोटी,भानु बन्ना बिछावणा.." को मैं दौड़ दौड़कर पूरा करती और वो भी इतने स्नेह से बुलाती कि मैं खुद को रोक नहीं पाती।

घर का एकमात्र बच्चा होने के कारण मेरी भूमिका 'हाजरिया' की थी सो मुझे आदेश मिलता कि जब तक गांधण मां खाना खाए मैं उसीके पास बैठूं ताकि उसे किसी चीज की जरूरत हो तो आवाज न देनी पड़े।

इस दौरान मैं उससे वो जादू की पिटारी सी कांच की नक्काशीदार पेटी खुलवाकर नैनी नैनी शीशियों को स्पर्श करके आनंदित होती।उन्हें हाथ लगाने की अनुभूति ठीक वैसी ही होती जैसे  किसी सद्य प्रसवित चिड़िया के बच्चे को छूने से होती है_रोमांच,भय,गुदगुदी, सब एक साथ।

गांधण मां गजब की स्टोरी टेलर थी।घटनाओं का ऐसा सजीव चित्रण करती कि मैं उसका चेहरा देखती रह जाती।किसी छोटू नाम के शख्स को आंखों में ताकळे डाल कर खाटू के डूंगर से गिरा देने और सांप के रूप में शंकर भगवान के प्रकट होने की कहानी जब वो बटन जैसी  आंखें को फैलाकर सुनाती तो मैं रोमांचित हो उठती।

गांधण मां हर बार अपने साथ किसी नाती पोते को जरूर लेकर आती जो ढेर सारे कांचळी लूगड़ों की पोटळी और अनाज की पोटळियां उठाने में उसकी मदद करते। जो पोटळियां दोनों से भी नहीं चलती उन्हें यह कहकर रख जाती कि वापस आकर ले जायेगी।

(इसी क्रम में एक बार साथ आई उसकी पोती जाफरानी, जिसके साथ मेरी मैत्री पर कभी पृथक से लिखूंगी)

कई बार अनाज की पोटळी किसीको बेचकर पैसे ले जाती।

उसके जाने के समय मैं फिर उसके आस पास मंडराती ताकि एक शीशी और मिल जाए।मिल जाती तो ठीक वरना उसी एक को मुग्ध होकर देखती हुई अगली दिवाली तक प्रतीक्षा के दिन काटती।

आशानुरूप वो फिर आती,खूब कहानियां सुनाती और सौगात में आधे अंगुल इत्र की शीशी दे जाती। अंतिम बार मैंने उसे अपनी मौसी की शादी में देखा,भूरे रंग का चमकीली धारीदार कोट पेंट पहने गांधी बाबा(गांधण मां का पति) भी साथ था। गांधण मां भी सजधज कर आई थी। दोनों बारातियों को अन्तर लगा रहे थे।

कुछ दिनों बाद मैं अपने घर आ गई और फिर कभी कोई दिवाली ननिहाल में मनाने का मौका न मिला मगर हर दिवाली की महक गांधण मां की याद ताजा कर देती है।

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-नीलू शेखावत

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