नीलू की कलम से: जाफरानी 

जाफरानी 
जाफरानी 
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Highlights

'जाना' सचमुच हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है

 "जा पानी ला,जा बाजार जा,जा स्कूल जा,जा सो जा।"

जाफरानी' नाम पहली बार सुना, जिसका सींग-पूंछ कुछ जानती न थी

मैंने उसके जैसी सुंदर लड़की अब तक न देखी थी

जाफरानी 
('दिवाली की खुशबू' से आगे)

दिवाली के दिन जब भी आते हैं,अपने साथ एक खुशबू लेकर आते हैं और उस खुशबू में जड़ी है मेरे बचपन की यादें। बड़ी होने के साथ त्योहारों का चाव कम होता गया,लिहाजा मेरे स्मृति कोष ने भी अपने द्वार जड़ लिये पर संचित स्मृतियां जस की तस संरक्षित हैं।

दिवाली के पंद्रह दिन पहले से ही कुछ लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती,कोटड़ी का घास निकाला जाता,मेहतरानी मां सिलार (सरकंडे की मोटी तीलियों से बनी लंबी झाड़ू) देने आती.

गाने- बजाने वाले आते,ढोलण मां की डपड़ी शुरू हो जाती और गांधण मां अंतर (इत्र) की खुश्बू बिखेरती चली आती। काती का मास शुरू होने से कभी गंगा गुरु तो कभी पुष्कर गुरु भी कृतार्थ करने आ जाते।

हर बार की तरह इस बार गांधण मां लकड़ी का ठेका देते हुए (उसे हमारी अल्शेशियन रूबी से भयंकर डर लगता था) अकेली नहीं आई बल्कि एक 'पाखरी' साथ लाई।

सिर पर छोटी-सी धान की पोटली लिए लहराती हुई मेरी हमउम्र लड़की। "भांणी बाईसा के सहेली ल्यायी हूं"- वह अंतर की पेटी रखती हुई बोली।

करीब घंटे भर हम दोनों के मध्य 'नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण' चलता रहा।

उसकी दादी और मेरी भाभू एक दूसरे से बतळा रहीं थीं और हम दोनों अपनी-अपनी दादी-नानी के गोडों (घुटनों) से चिपके बस एक दूसरे को देख रहे थे। दीया-बत्ती और दूध-धार का टेम हो चला। सभा विसर्जित हुई। चूंकि माताजी के थान पर दीया करने की ड्यूटी मेरी थी सो मैं दीया लेने गई। पीछे-पीछे वह भी आ गई।

"यह क्या है ? मजार?"

मैंने एहतियात से चारों ओर देखा और फिर धीरे से पूछा- "थारो नाम कांई है?"

वह अपने दुपट्टे के दोनों छोरों को भरसक नीचे खींचती हुई बांकी-टेढ़ी होकर मुझसे भी धीमी आवाज में बोली- जाफरानी।

जाफरानी जिसे उसकी दादी 'जाफूड़ी' कहती थी,अगले चार-पांच दिनों के लिए मेरी पक्की सहेली बनने जा रही थी।

थान पर माताजी की आरती बोलने के बाद मैंने उसे थान और उसने मुझे मजार समझाई।

मुझे उसके नाम का अर्थ समझ न आया। 'जाफरानी' नाम पहली बार सुना, जिसका सींग-पूंछ कुछ जानती न थी।

इस नाम का एक गुटखा जरूर आया करता था,सोचा इसीके नाम पर उसका नाम रखा गया होगा पर गुटखे से लड़की के नाम का क्या लेना-देना?

जाफरानी इस पर ज्यादा दिमाग न लगाना चाहती थी, बस नाम ही तो है, घर वालों ने जो रख दिया,रख दिया! पर मैं तो स्कूल की नाम विश्लेषण सभा की प्रमुख रह चुकी थी,इतनी आसानी से उसके नाम का पीछा कैसे छोड़ती?

मैंने एक गाना सुन रखा था 'काली तेरी चोटी है फराना तेरा नाम है।'(काली तेरी चोटी है परांदा तेरा लाल नी) जाफरानी को लंबी चोटी थी,चूंकि वो लड़की थी तो 'फराना' न होकर 'फरानी' थी।बाकी 'जा' शब्द तो हर बच्चे के नाम से जुड़ा ही रहता है।

 "जा पानी ला,जा बाजार जा,जा स्कूल जा,जा सो जा।"

इस तरह मैंने उस शाम जाफरानी के जीवन की बहुत बड़ी गुत्थी सुलझाई ।

मैंने उसके जैसी सुंदर लड़की अब तक न देखी थी।दूध से धुली देह में दो बड़ी-बड़ी आंखें,मोती जैसे दांत जो गुलाबी होंठों की हंसी के बीच खिल खिल पड़ते थे।

लंबे,भूरे बाल  इतने सीधे मानो प्रेस करके सलवटें निकाली गई हों और कानों में छोटी-छोटी झुमकियां!सबसे बड़ी बात कि वह दुपट्टे वाले सलवार कमीज पहनती थी जो मुझे अगले छः सात साल भी मयस्सर नहीं होने थे।

जिस दुपट्टे से जाफरानी परेशान थी , मैं उसीकी कायल।आखिर उसने वह दुपट्टा मेरे गले में डाल दिया। उस वक्त मैंने शायद बंडी बांह (स्लीव लेस) और घुटनों से ऊपर का फ्रॉक पहना था. मगर दुपट्टा लगाने के बाद बकरियां घेरते हुए मैंने अपने अंतः चक्षुओं से स्वयं को बिल्कुल पारी मैडम (हमारी खूबसूरत मैडम जो कमाल के दुपट्टे  लगाया करती थी) जैसा देखा।

जाफरानी नाचने की शौकीन थी उसके घर में टीवी रहा होगा।'मुझको राणा जी माफ करना' गाने पे वह नागिन की तरह लहराती। घर के सब लोगों के सामने बातें नहीं कर पाने कारण हमने एक निरापद  स्थान चुना था- चारे का कमरा।

गाय भैंसों को 'नीरने' के बाद वहां एक मिन्नि के अलावा कोई नहीं जाता। वहीं पड़ी ऊंट की पुरानी 'जीण' पर बैठकर मैं राणाजी बनती और वह 'गुपचुप गुपचुप' गाती हुई ठुमकती।

गांधण मां अलसुबह कलेवा करके घर से निकलती तो अंधेरा होने पर  ही लौटती। मैं जाफरानी का इंतजार करते-करते सो जाती।दीपावली की शाम दोनों दादी-पोती जल्दी आ गईं।  

जाफरानी ने न जाने कितने किस्मों का अंतर मुझे लगाया और टिकड़ी,फुलछड़ी की भेंट मेरी ओर से रही। मैंने घेरदार फ्रॉक पहनी और उसने केसरिया जालीदार सलवार कमीज। हाथों में कांच का गुलाबी मुठ्या।

आज वह वाकई 'जाफरानी' बन गई थी। मैं लिछमी जी का प्रसाद देने गई तो देखा गांधण मां ने भी गोटे से लपाझप करती चुनरी ओढ़ी है। उस रात जाफरानी ने मुझसे वादा किया कि वो मुझे मेरी मासी की शादी में नाचने के लिए एक 'डांस' सिखायेगी।

सुबह उठी तो देखती हूं गांधण मां अपने धान के कट्टों को जमाती हुई 'उन्हें कब और कैसे आकर ले जायेगी'- की भोळावणी भाभू को दे रही है,जाफरानी ने बेस कांचळियों की पोटली सिर पर रख ली है।

मैं उदास थी पर उन्हें जाना था क्योंकि अगली दिवाली वे फिर आएंगी। अगली सुबह मुझे भी जाना था बस्ते के तंगड़-पटिये बांधकर स्कूल वर्ना घर वाले कहेंगे-"जा,स्कूल जा!"

'जाना' सचमुच हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।

नीलू की कलम से: दिवाली की खुश्बू

- नीलू शेखावत

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