मिथिलेश के मन से: कचौड़ी गली सून कइलs बलमू - पांचवीं किश्त

कचौड़ी गली सून कइलs बलमू - पांचवीं किश्त
kachori
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Highlights

तो हुआ यूं कि जहां का वैभव एक ज़माने में आम अवाम को ललचाता था

जो एक ज़माने तक तहज़ीबो तमद्दुन का गहवारा रहा

जहां पहुंचते पहुंचते लिखतंत इतिहास को झपकी आने लगने लगती थी

उस रंगमहल पलट नाचघर में अब वे काम भी होने लगे जिनकी राह रुसवाई की गली में खुलती थी

(गतांक से आगे। लेकिन थोड़ा संभल कर। यह नाक छिदवाने की शर्त पर गुड़ खिलाने की उस कल्चर का अफसाना है जिसके प्रकट होने में दुश्वारियां भी हैं, खतरे भी।)

पहले कचहरी गली, फिर कचौड़ी गली। पहले रंगमहल, फिर नाचघर। इस इलाके को, इस गली को, यहां की जिंदगानी को अभी और भी रंग देखने हैं।

शेड्स बहुरंगी हैं, लिहाजा विषयांतर भी संभव है क्योंकि कंठ स्वरों में फूटे किस्से एक दिन में खतम नहीं होते। यह वह इतिहास है जो शताब्दियों चलता है और जिसकी लपटें लिखतंत इतिहास को हर बार मुंह बिरा कर उसका रास्ता काट जाती हैं।  

कल का रंगमहल जब नाचघर के नाम से मशहूर हुआ तो कितना कुछ गुजरा होगा इस गली पर, कितना कुछ टूटा होगा, कितना कुछ नया शामिल हुआ होगा, कितने नये समीकरण बने- बिगड़े होंगे, अदाएं कितनी बदली होंगी, कितनी बार कलपी होगी यह गली- लिखतंत इतिहास के पास इसकी कोई तफसील नहीं है।

तफसील हो भी नहीं सकती। गली को आदमी मानो, तब समझोगे कि समझना किसे कहते हैं।

तो हुआ यूं कि जहां का वैभव एक ज़माने में आम अवाम को ललचाता था और जो एक ज़माने तक तहज़ीबो तमद्दुन का गहवारा रहा, जहां पहुंचते पहुंचते लिखतंत इतिहास को झपकी आने लगने लगती थी, उस रंगमहल पलट नाचघर में अब वे काम भी होने लगे जिनकी राह रुसवाई की गली में खुलती थी।

रंगमहल रोता रहा। जारोकतार। उसे बहुत याद आये राजा बनवारी लाल और छोटी बहू।  लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

कचौड़ी गली के इस रंग महल यानी  नाच घर को शहर के एक उद्यमी ने बाद के दिनों में खरीद लिया।  रंग महल के पास ही इस उद्यमी का अपना पुराना मकान भी था।

उसने अपने पुराने मकान को तुड़वा कर नये मकान की तामीर करायी और रंगमहल की छतों को अपने नये मकान की छतों से जुड़वा दिया।

कहते हैं कि दोनों मकानों के पहले तल्ले पर जब ढलाई हुई और जब दोनों मकानों का कनेक्शन जोड़ा जा रहा था तो नये मालिक मकान के यहां दुश्वारियों का दौर शुरू हुआ।

उस परिवार के दो लोगों की हत्या हो गयी और हालात यहां तक बन गये कि कारोबारी को ये दोनों प्लाट बेच देने पड़े। अब इन दोनों एकीकृत भूखंडों पर माल बनना शुरू हुआ लेकिन अड़चन ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा।

अड़चन दर अड़चन। अब लौटिए बकतंत इतिहास की तरफ। क्या कहता है यह इतिहास? क्यों हुआ होगा ऐसा? बकतंत इतिहास कहता है कि रंगमहल तक तो सब ठीक था। जब रंगमहल नाचघर बना तो इतनी गड़बड़ हुई, इतने अनैतिक काम यहां हुए कि पूछिए मत। यह अनैतिकता आह बन गयी। यह वही आह है जो रंगमहल से उठी थी।

उस आह ने ही यहां की धरती को श्रीहीन कर डाला । विज्ञान क्या कहता है, हम इस पचड़े में नहीं जाएंगे। लोक क्या कहता है, हम सिर्फ वह लिपिबद्ध कर रहे हैं। अविकल, बिना किसी काट- छांट के.. और लोक कहता है कि वहां की ज़मीन 'धार' नहीं रही, उस जमीन में आह और आंसू का सैलाब है और सैलाब में घर नहीं बना करते।

लेकिन बात यहीं तक महदूद नहीं है। निकली है तो मीलों दूर तक जाएगी भी। यह रेशम की वह गांठ है जो जितनी नाज़ुक दिखती है, उसके कई गुना सख्तजान भी है। थोड़ा आगे बढ़ें। कचहरी गली के नुक्कड़ पर ही किसी ज़माने में एक और जलवाफरोश इमारत हुआ करती थी। राजा बनवारी लाल ने यह इमारत बनवाई थी।

चाहें तो आप इसे ' रागरंग' भी कह सकते हैं।  इमारत में शाम ढले महफिल सजती जो देर रात तक और अक्सरहां पौ फटने तक चलती।  गुलाबजल और केवड़ा और खस से नहायी इस तारीख़साज़ इमारत में लोग सुनने आते थे अल्लाजिलाही बाई को।

अपने ज़माने की नायाब ठुमरी गायिका। जितनी पकी- पकायी और सधी आवाज़, उतने ही दिलकश हुस्न की भी मलिका।

बनवारी लाल ने यह पूरी इमारत उसके नाम कर दी। उस जादू की ताकत का अंदाजा लगाइए जो अल्लाजिलाही बाई के पास रहा होगा। बाद में यह इमारत बिकनी शुरू हुई तो फिर बिकती ही चली गयी। एक हाथ से दूसरे हाथ।

अंतत: यह तख्त हरमिंदर साहेब गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पास आयी। कमेटी ने इमारत को मिसमार करा दिया। अब वह भूखंड मंदिर परिसर में बने कारसेवा क्षेत्र का हिस्सा है। और अल्लाजिलाही बाई? वह सो रही है बंकाघाट में। वहां एक मजार है। वह मजार उसका घर है।

क्रमश:
अल्लाजिलाही कौन थी? कहां की थी?इलाहाबाद से उसका रिश्ता क्या था? पढ़ें अगली किश्त में।

Must Read: रुक जा रात, ठहर जा रे चंदा ( बरस्ता कचौड़ी गली) दूसरी किश्त

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