मिथिलेश के मन से: कचौड़ी गली सून कइलs बलमू -चौथी किश्त

कचौड़ी गली सून कइलs बलमू -चौथी किश्त
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Highlights

इतर और लोबान से गमकता- दमकता, नोट के कोट पहनता और पैसे के बटन लगाता पटना सिटी

वह कस्बा जो लगभग समूचे उत्तर भारत को जलमार्ग से जोड़ता था और जिसके व्यापारिक ऐश्वर्य के आगे यूरोप और एशिया के अच्छे - अच्छे बिजनेस टाइकून पानी भरें

वह मंदिर आज भी है। छोटी बहू का मंदिर, उन दिनों की गवाही देता। उस खुदमुख्तार औरत के फैसलों में छिपे इंसाफ के जज्बात की तसदीक करता

(गतांक से आगे। फिर उसी धृष्टता, उसी काहिली और उसी जोम के साथ कि किश्त का मिलान आप कर लीजिए। यह जहमत हम नहीं उठाएंगे।)

पहले पटना सिर्फ पटना हुआ करता था और मुद्दतों सिर्फ पटना ही रहा। दानापुर,फुलवारी, मनेर, सिटी, कुम्हरार, फतुहा, बिहटा, कुल्हड़िया, आरा तक उस सिर्फ और एक अदद पटना की ही अलामत हुआ करते थे।

उनकी अलग से कोई पहचान नहीं थी। रही भी होगी तो उन्हें उस रूप में किसी ने खतियाया नहीं। बोली- बानी, खानपान, तीज- त्योहार, सोचने और लड़ने का हुनर सब एक जैसे। कोई कहीं भी रहे, पूछने पर अपना हाल- मुकाम पटना ही बताता था।

मुगलिया दौर की चढ़ती जवानी में इस एका को जो मजबूती मिली, वह औरंगजेब के ज़माने के उत्तरार्द्ध तक पहुंचते पहुंचते लड़खड़ाने लगी।

फिर कुनबे बंटे, मुहल्ले बंटे, मानस बंटा, दिमाग बंटे। सबकी अलग दुनिया, अलग समीकरण, अलग सरोकार। दिलों तक का बंटवारा हो गया। जाहिर है, इस अंधड़ में कचौड़ी गली  भी बंटनी थी।

उसकी भी हद तय होनी थी, सो वह पटना सिटी के खाते में गयी और चौक क्षेत्र उसका ठिकाना बना।

थी वह पहले भी वहीं लेकिन तब अजीमाबाद में थी और पटना सिटी उस वृहत्तर अजीमाबाद ( आज का पटना) का एक बहुत मामूली सा लेकिन बहुत ही जलवाफरोश टुकड़ा था। धन- धान्य से भरपूर।

इतर और लोबान से गमकता- दमकता, नोट के कोट पहनता और पैसे के बटन लगाता पटना सिटी। वह कस्बा जो लगभग समूचे उत्तर भारत को जलमार्ग से जोड़ता था और जिसके व्यापारिक ऐश्वर्य के आगे यूरोप और एशिया के अच्छे - अच्छे बिजनेस टाइकून पानी भरें।

बहरहाल, जिस छोटी बहू का  जिक्र हम पिछले एपिसोड में कर रहे थे और जो ज़मींदार बनवारी लाल की बीवी थी और जो बनवारी लाल की मौत के बाद खुद इजलास लगाती और जो परदे की ओट से अपने फैसले सुनाती, सिर्फ फैसले ही नहीं सुनाती, उन फैसलों पर सख्ती से अमल भी कराती.

उस छोटी बहू ने पहले की इस कचहरी गली  और बाद की इस कचौड़ी गली में एक मंदिर भी बनवाया था ताकि लोग खौफ खायें और उसकी इजलास में झूठी गवाही देने से बचें, ताकि रिआया से इंसाफ हो और बदमली पर रोक लगे। कहते हैं, छोटी बहू के फैसले पलटने का साहस अंग्रेज बहादुर में भी नहीं था।

वह मंदिर आज भी है। छोटी बहू का मंदिर। उन दिनों की गवाही देता। उस खुदमुख्तार औरत के फैसलों में छिपे इंसाफ के जज्बात की तसदीक करता।

जो काम रज़िया सुल्तान ने सल्तनत काल में किया, लगभग वही काम कचौड़ी गली में कर रही थी छोटी बहू, वह भी तब जब उसकी ज़मींदारी कंपनी बहादुर की ठिकानेदार थी।

कचौड़ी गली में ही राजा बनवारी लाल के घोड़ों का अस्तबल हुआ करता था जो बाद के दिनों में बिक गया। घोड़े कितने रहे होंगे इस अस्तबल में, यह ठीक-  ठीक तो बता पाना संभव नहीं है लेकिन अस्तबल का जो इलाका बिका, वह आज की पंजाबी कालोनी के एक बड़े हिस्से को कवर करता है।

गली क्षेत्र में ही हुआ करता था रंगमहल। यह इमारत आज भी है लेकिन खस्ताहाल। इतनी खस्ताहाल कि  अब पास से गुजरते हुए भी डर लगता है। लेकिन  एक ज़माना था इस इमारत का भी और वह ज़माना बहुत लंबा चला। बहुत बाद तक चला।

आपको कुछ खबर है कि इस रंगमहल में कभी यशस्वी साहित्यकार प्रफुल्ल चंद्र ओझा मुक्त रहा करते थे और उनके साथ हुआ करते थे अमिताभ बच्चन यानी बिग बी के पिता हरिवंश राय बच्चन?

आपको पता है कि बिग बी के बिग बी यानी हरिवंश राय बच्चन की कई सदाबहार कविताओं को इस रंगमहल ने आकार लेते देखा था?

( क्रमश: 5वीं किश्त)

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