मीरांबाई जयंती विशेष: मीरां एक ऐसा शरद चन्द्र जो जगत को कृष्णभक्ति से आलोकित कर गया, आगे भी करता रहेगा

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Highlights

मीरां के पद व्याकरण के नियमों में नहीं आते, वे तो मन से निकले भाव हैं, सहज काव्य हैं। इसी कारण मीरां के गीत, भजन, काव्य, दोहे आज भी सीधे मन से संवाद करते हैं।

जब भी हम सुनते हैं कि ‘मीरां के प्रभु गिरिधर नागर’ या ‘मैं तो प्रेमदीवानी’ तो आज भी ये शब्द दिल को गहराई तक छू लेते हैं।

कृष्ण से असीमित प्रेम करने वाली मीरां की आकृति अपने आप नजर के सामने उभरने लगती है। मन में प्रश्न उठता है कैसी होगी मीरां ? सुंदर, शांत, सुध-बुध खोई, कृष्णा में रमीं मीरां का व्यक्तित्व कैसे होगा?

गंगा के किनारे कैलाश खेर हजारों लोगों के बीच गा रहे हैं "पांच बरस की मीरां लाड़ली...!" लोग झूम रहे हैं. चार साल पुराने इस वीडियो को सवा करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं। किसने उन्हें कहा कि आप मीरां को गाइए...!

बीते दशकों में हिन्दी ही नहीं सभी भाषाओं के गीतकारों ने सैकड़ों गीतों के अंशों को कापी किया और अपनी संगीत की दुनिया बना ली। उन्हें किसने कहा कि आप #मीरांबाई को पढ़िए और उस कंटेंट को संगीत में जगह दीजिए?

राजस्थान के एक लेखक है जिन्होंने लिखा बताया कि मीरां के गीत किसी अन्य ने रचे हैं। किसी अन्य में इ​तनी सौरभ है क्या जनाब! यदि होती तो वह तथाकथित लिखने वाला छिपा कैसे रह गया, जैसे आप छिपे हुए हो? इस देश का दुर्भाग्य! कैसे—कैसे लोग लेखक बन गए! मैं भी मानता हूं कि वह कोई 'और' ही है।

वह कृष्ण ही है जो मीरां के रूप में उनके मुख से यह रचनाएं करवाता रहा। परन्तु वह कोई और कहां है? मीरां कब अलग हुई उनसे। खैर! अन्य के लिखे गीत कैसे सदियों तक अपनी ​मिठास बनाए रखते? यह गीत बैठकर नहीं लिखे गए हैं।

जो बैठकर लिखे जाते हैं वे गीत बचते ही कहां है? यह ईश्वर से संवाद है जो कृष्ण की गीता को जीवन में ढालने का रास्ता बताती है। जी हां! युद्ध वाली गीता का प्रेममयी आचरण! युद्ध करके हक छीनने का भाव नहीं बल्कि प्रेम करके सब कुछ सौंप देने की तन्मयता! तन्मयता ऐसी जो विष का प्रभाव मिटा देती है और विषधर का भी!

इन दिनों लोग बहुत सारे यौद्धाओं की जयंतियां मना रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि किसी का ध्यान मीरांबाई पर नहीं जाता। मनाते हैं तो उनके साहित्य और उनके कहे हुए पर कौन ध्यान देता है? मीरांबाई के गीत भारत की प्रत्येक भाषा में गाए जाते हैं, सदियों से और न जाने कब तक गाए जाते रहेंगे?

मीरां के अधिकांश गीत भजन रूप में गाए जाते हैं और दार्शनिक रूप से सभी एक ही जगह पहुंचते हैं? एक ही बात कहते हैं। आश्चर्य है कि बावजूद इसके सर्वाधिक गाए जाते हैं। क्या अलग—अलग लोगों द्वारा लिखे जाते तो यह संभव था? मीरां की शैली भावपूर्ण मनोदशा, अवज्ञा, लालसा, प्रत्याशा, आनंद और मिलन के परमानंद को जोड़ती है, जो हमेशा कृष्ण पर केंद्रित होती है।

वह भी उस जमाने में जब तीर—तलवार, भालों और युद्धों का ही दौर था। वही इतिहास और वर्तमान था। भविष्य इन्हीं घातक शस्त्रों की नोक पर उकेरा जा रहा था। यौद्धाओं के भौतिक हृदय विदीर्ण कर देने वाले नुकीले अस्त्रों की धार अब नहीं बची। उस दौर में मीरां के गीत सबकुछ ठहराते नहीं, तैरने को नहीं कहते, बहने को कहते हैं। प्रेम में डूबो मत बहो... साथ—साथ बहो बिना किसी प्रयास के सांवरा तुम्हे पार ले जाएगा। 

कहते हैं दादोसा वीरमदेवजी की की लाड़ली थी मीरां। उन्होंने ही मिहीरा नाम दिया था। अर्थात सूर्य के जैसी! नाम को सार्थक किया, जब तक सूर्य रहेगा तब तक मीरांबाई का नाम रहेगा! इसमें कोई दो राय नहीं है।

परन्तु मीरां में सूर्य सी उष्णता नहीं है, चन्द्र आलोक सी शीतलता है। शरद पूर्णिमा को जन्मीं मिहीरा को शायद यह धवल, आलोकित शीतलता पूर्ण चन्द्र से ही मिली है।

वह जिस राठौड़ कुल में जन्मीं वे शक्ति अर्थात मां नागणेच्चिया के उपासक हैं।

परन्तु बाद में वैष्णव अर्थात कृष्ण की पूजा करने लगे। यहां तक कि उनके वंश वाले मेड़तिया अन्य राठौड़ों की तरह "जय माताजी की" नहीं बल्कि "जय चारभुजा नाथ" का अभिवादन करते हैं।

मीरांबाई का विवाह मेवाड़ के युवराज के साथ हुआ था जो शैव अर्थात भगवान एकलिंगनाथ के उपासक कुल से हैं। बचपन में योगी निवृत्तिनाथ से उन्होंने योग की शिक्षा ली थी। उनके गुरू संत रविदास तो उस जाति से आते थे जिन्हें लोगों ने अछूत करार दे रखा था।

नाथ सम्प्रदाय, पतंजलि योग के साथ शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय का अनूठा समन्वय आपको कहीं नजर आएगा? आगे चलिए! सिख गुरु गोविंदसिंहजी साहब ने तो जब प्रेम अम्बोध पोथी लिखी तो मीरांबाई को महान संतों में स्थान दिया। तो क्या वह सिर्फ साधक मात्र थीं।

वह पूरे भारत में गायी जाती हैं। सदियों बाद भी उसी रूप में, जिस रूप में सबसे पहले गायी गई थीं।
मीरा कृष्णमय थीं यह कोई नए सिरे से बताने वाली बात नहीं है। कभी भी, कहीं भी ना दिखने वाले परमात्मा पर स्वयं को भुला कर प्रेम करना, खुद को उसके हवाले कर देना बहुत कठिन है। इसलिए मीरां का कृष्ण के लिए समर्पण अनमोल है।

उन्हेंं पढ़िए, महसूस कीजिए। मीरां के पद व्याकरण के नियमों में नहीं आते, वे तो मन से निकले भाव हैं, सहज काव्य हैं। इसी कारण मीरां के गीत, भजन, काव्य, दोहे आज भी सीधे मन से संवाद करते हैं।

जब भी हम सुनते हैं कि ‘मीरां के प्रभु गिरिधर नागर’ या ‘मैं तो प्रेमदीवानी’ तो आज भी ये शब्द दिल को गहराई तक छू लेते हैं। कृष्ण से असीमित प्रेम करने वाली मीरां की आकृति अपने आप नजर के सामने उभरने लगती है। मन में प्रश्न उठता है कैसी होगी मीरां ? सुंदर, शांत, सुध-बुध खोई, कृष्णा में रमीं मीरां का व्यक्तित्व कैसे होगा?

प्रेम के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान है मीरां का कृष्ण प्रेम। उसके बाद प्रेम की कोई ऊंचाई नहीं। मीरां का कृष्ण प्रेम जितना ऊंचा है, उतना ही गहरा भी है।

माधुर्य के सभी इंद्रधनुषी रंग उसकी कृष्ण भक्ति में प्रकट होते हैं। मीरां के किसी भी पद की कोई भी पंक्ति गुनगुनाए, हमारे मन में झंकार होने लगती है।

जब स्वयं मीरां ने इस पदों को गाया होगा तो सोचो उसकी क्या स्थिति होगी।

मीरां के पद आज भी इतने ताजा-तरीन लगते है कि आप उन्हें सुनकर दीवाने हुए बिना रह नहीं रहा जा सकता। मीरां के पद सीधे-साधे हैं। वह कोई कवियत्री नहीं है। कृष्ण के विरह में, कृष्ण की आस में और कृष्ण की प्यास में मीरां ने वे पद गाए हैं।

ऐसा क्या किया है मीरां ने कि इतने सालों बाद भी वह लोगों के हृदय में समाई है? इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं उत्तर मिलता है कि मीरा का सब कुछ कृष्ण समर्पित है। उसकी भक्ति का मूल वहीं है, कुंजी वहीं है। मीरां ने अपनी पदों को जिस तन्मयता से रचा है, जैसे कृष्ण भक्ति में तल्लीन होकर वह नाची है, वैसा कौन तपस्वी कर पाया है।

कृष्ण के बहुत सारे रुप हैं। यशोदा का कृष्ण, देवकी का कृष्ण, मथुरा का कृष्ण, वृंदावन का कृष्ण, द्रौपदी का कृष्ण, सुदामा का मित्र कृष्ण, अर्जुन का सखा कृष्ण, गोपियों का प्राण प्रिय कृष्ण। इतने सारे रूप? इन सभी रूपों में कृष्ण प्रकट हुए हैं। लेकिन मीरां को जो कृष्ण का रूप भाया, वह है गिरधर गोपाल। 

उन्होंने तो वृंदावन की गलियों में रास रचाते, वृक्षों के नीचे बांसुरी बजाते कृष्ण के मनमोहक रूप से ही प्रेम किया। मीरां का कृष्ण गीता का कृष्ण नहीं है। मीरां को कृष्ण के पराक्रम में कोई रस नहीं है।

मीरां को कृष्ण की आंखों में रस है, कृष्ण के शब्दों में नहीं। मीरां को कृष्ण की बांसुरी में रस है, उसके सिद्धांतों में नहीं। मीरां को कृष्ण ने क्या कहा, क्या किया उसकी कोई उत्सुकता नहीं है।

अगर कृष्ण ने गीता नहीं कही होती, कौरवों का नाश नहीं किया होता तो भी मीरां कृष्ण के मनमोहक रूप पर ही गुनगुनाती। मीरां का मोह कृष्ण के व्यक्तित्व से है। मीरा का कृष्ण सीधा-साधा है। छोटे बच्चे की तरह, संगी-साथी की तरह, मित्र की तरह। ऐसा कृष्ण मीरा ने जीया है।

मध्यकाल में जब मुगल शासन को यह देश स्वीकार चुका था। जौहर और सती प्रथा के बीच पर्दा और बुरका भारतीय समाज में पैठ चुका। तब इस देश में महिला सशक्तीकरण की शुरूआत करने वाली उनके अलावा कौन थी, मैं नहीं जानता।

उनके विश्वासों की शक्ति ने उस समय मौजूद क्रूर हालातों से तगड़ा मुकाबला किया। वह हमेशा एक विकल्प की तलाश करने वाले लोगों की पीड़ा में सन्निहित है।

आपको एक और आश्चर्यजनक बात बताता हूं ​जहां तक मुझे ज्ञात है। पहला धरना मीरांबाई के खिलाफ हुआ था। मीरांबाई के मेवाड़ छोड़ने के बाद जब मेवाड़ बर्बादी के कगार पर पहुंच गया था।

तब द्वारिका से उन्हें वापस लाने के लिए मेवाड़ से लोग गए थे। मीरांबाई ने इनकार किया तो लोग उनके मेवाड़ चलने की मनुहार के साथ मंदिर  बाहर आमरण अनशन पर बैठ गए थे। मीरांजी कृष्ण प्रतिमा से अनुमति लाने गईं लेकिन लौटी नहीं। कहते हैं वे सशरीर कृष्ण में समा गईं। 

पूरी दुनिया के ज्ञात इतिहास में ऐसा चरित्र आपको नहीं मिलेगा, जो सशरीर नहीं होने के सदियों बाद भी इतना प्रासांगिक है। जबकि उनका वंश आगे नहीं बढ़ा, उनका कोई शिष्य नहीं हुआ, उन्होंने कोई पुस्तक प्रचारित नहीं की, उन्होंने कोई पंथ नहीं चलाया। उनका तो जबरदस्त विरोध हुआ था।

वंश में आज भी लोग बेटी का नाम मीरां नहीं रखते। खैर! उनकी प्रतिष्ठा वैसे भी जातियों, धर्मों, पंथों, जयंतियों, श्रद्धांजलियों, गोष्ठियों, मंचों, सभाओं से बहुत आगे हैं। वे कभी किसी राजनीतिक मूर्खता से भरी भीड़ का प्रतिनिधित्व नहीं करने वालीं, इसलिए उन्हें इनसे दूर ही रखा जाना चाहिए।

आज शरद पूर्णिमा पर उनकी जयंती है। उन्हें बड़े भावों के साथ नमन करता हूं...।

और हां!
मीरांबाई का मंदिर चित्तौड़ किले पर है। जो राणाजी ने उनके लिए बनवाया था। कभी देखकर आइए।

मीरांबाई को महानिर्वाण द्वारिका में हुआ था। कभी हो आइए।

मीरांबाई ने बचपन से जिस मूर्ति को पूजा वह आमेर किले में जगत शिरोमणि मंदिर में विराजित हैं। कभी दर्शन कीजिए!

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