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अगर मौसम बरसात का हुआ तो वह बोलता और हम लिखते जाते: लिखो.. कि यहां सब ठीक है लेकिन हमारा जी नहीं लगता। मचान पर अकेले सोते हैं हम और रात भर अगोरिया करते हैं। उम्मीद रखते हैं कि तुम आओगे लेकिन आ जाता है साला सियार। फिर भागते फिरो।
पटना में होंगे ढेर सारे परसादी लाल। इन तीन- चार महीनों में हम इतना तो जान गये हैं कि निश्चित तौर पर होंगे। अलग- अलग रूपों में। अलग- अलग धज में। अलग - अलग ढब के साथ। लेकिन हम उस्ताद को यह बतायें तो कैसे बतायें। समझायें तो कैसे समझायें। ऐसा करते हैं, उसे चिट्ठी लिखते हैं।
नाम, पता, साकिम, मुकाम ... और भीतर लिख मारो हाल हवाल। लेकिन चिट्ठी उसे सकुशल मिल ही जाएगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं। उसकी चिट्ठी खोल कर पढ़ी भी तो जा सकती है। ज्यादा उम्मीद है, पढ़ी ही जाएगी, भले ही उसमें सब कुछ ठीक ठीक और गैरखटकाऊ हो।
उसने खुद पढ़ाई भले ही न की हो मन लगा कर या बदकिस्मती ने भले ही उसे फेल कर दिया हो मिडिल स्कूल में। लेकिन वह आदतन उस्ताद है। उसने हम जैसे जाने कितने मिडिलचियों को मौसम के हिसाब से चिट्ठी लिखना सिखाया।
अगर मौसम बरसात का हुआ तो वह बोलता और हम लिखते जाते: लिखो.. कि यहां सब ठीक है लेकिन हमारा जी नहीं लगता। मचान पर अकेले सोते हैं हम और रात भर अगोरिया करते हैं। उम्मीद रखते हैं कि तुम आओगे लेकिन आ जाता है साला सियार। फिर भागते फिरो।
सियार आगे- आगे, हम पीछे पीछे। भारी चहेटा। 'हुलेलेले' करते फिरो। अगर ठंड के दिन होते तो चिट्ठी का मजमून बदल जाता: लिखो कि हाड़ थरथरा रहा है और हम अकेले सोते हैं। सोते क्या हैं, जागते रहते हैं कि तुम आओगे लेकिन तुम नहीं आते। सोचते हैं, हमीं आ जाएं। अपने सोने की माकूल जगह बताओ।
ये तमाम चिट्ठियां एक- एक कर पकड़ ली गयीं बहुत जल्दी ही और फिर यह भी मालूम हो गया कि इन्हें लिखवाता कौन है। मालूम यह भी हुआ कि यह चिट्ठियां असलतन लड़कियों के लिए लिखवाई गयी थीं लेकिन पढ़ कर आप भांप ही नहीं सकते थे कि ऐसी किसी भी चिट्ठी का किसी लड़की से कोई लेनादेना भी हो सकता है। संबोधन ही ऐसा था। बुलाया जा रहा है लड़के को और आना है लड़की को।
अब आप समझते रहिए कि खेला क्या है। भेद तब खुला जब गुलेल जैसे किसी अमोघ अस्त्र का निशाना चूक गया और चिट्ठी जा गिरी आंगन में, या लड़की के भाग कर पहुंचने से पहले चिट्ठी किसी और के हाथ लग गयी, या लड़की के स्कूली बस्ते में किसी मोर पंख से चिपकी यह चिट्ठी किसी सयाने ने देख ली, या किसी ताखे पर ढिबरी के पीछे छिपा कर रखी ऐसी किसी खतरनाक चिट्ठी पर नजर पड़ गयी किसी सयाने की।
सलवार के नाड़े भी ऐसी चिट्ठियों का घर हुआ करते थे उस जमाने में और धोबी के पाट हुआ करते थे ऐसे खतूत के वधस्थल। धुलाई के ऐन पहले जामातलाशी में जो कड़कड़ दिखा किसी सलवार में तो समझो वह चिट्ठी है।
किसने लिखी, किसको लिखवाई- सब बेमानी। जानने वाले जान गये, बताने वालों ने बता दिया। बहुत जल्दी। फिर तो महीनों धुनते रहे मजनूं और शीरीं- फरहाद। हमारे उस्ताद तो रोज ही कूटे जाते। लेकिन उस्ताद ने आदत नहीं बदली। काटो तो काट डालो। मारो तो मार डालो। गुरु चूंकि खुद ही बदनाम थे, लिहाजा यह तय था कि उनके नाम से आयी चिट्ठी बगैर पढ़े तो उनके पास
नहीं ही पहुंचती। पढ़ी भी जाती और उसके बीस मतलब भी निकाले जाते। हो सकता है कोई नयी चाल चली हो गुरुवा ने।
गांव जाना ही होगा। देखना ही होगा कि उस्ताद कैसे हैं। संस्कृत स्कूल में दाखिला ले कर उनका मन मिजाज कैसा है? कैसे हैं उस स्कूल के गुरु जी? मनमाफिक हुए, तब तो ठीक वरना उस्ताद उनकी भी बैंड बजाएंगे, यह तय है।
वह बारात निकालेंगे उनकी। इतनी भारी बारात कि नदी- पोखर खोजना पड़ेगा उन्हें डूब मरने के लिए। महीनों की छुट्टी लेनी पड़ेगी वह लाज धोने के लिए, उस पाप से आज़ाद होने के लिए जिसके सिरजनहार हमारे उस्ताद रहे या हो सकते थे।
उस्ताद के काटे ऐसे ढेरों उस्ताद अब भी जीवित हैं गांव में उन तल्ख और हरामजदगी भरे दिनों का किस्सा सुनाने के लिए। जीवित है गांव की वह पगडंडी भी जो दो तरफ से नागफनी की जंगलनुमा झाड़ियों और पत्तों से लदी- फदी रहती थी उन दिनों और हर पत्ते पर लिखी मिलती कोई न कोई प्रेमकथा: फलां का फलानी से...।
जगहें तक लिखी होतीं जहां यह खेल चला होगा। हमारे गुरु खुद ही सूचनाएं लिखते, खुद ही मुंहामुंही प्रचार करते, खुद ही लोगों को जुटाते, खुद ही वह पत्ते दिखाते जिनमें दर्ज होता था कोई न कोई मानीखेज कथानक।
जिसने बैर लिया, उसकी कथा दूसरे दिन से ही गांव में गर्दिश करने लगती। नागफनी की ये झाड़ियां हमारे उस्ताद का पोस्टमैन भी थीं, पोस्ट आफिस भी। हम बहुत जल्दी गांव जाएंगे। उस्ताद को लिख दे रहे हैं चिट्ठी।
उस्ताद से भेंट बहुत जरूरी है। गांव छूटे जमाना बीत गया। उस्ताद जब सुनेगा पटनहिया किस्से तो कितना खुश होगा? उसे क्या पता कि हम सिनेमा भी देखने लगे हैं। राजेश खन्ना.. आय हाय। क्या ऐक्टिंग करता है।
आंख मटकाया नहीं कि हीरोइन नाचती चली आये नागिन की तरह। हम उससे कहेंगे कि उस्ताद तो हो तुम जरूर हमारे लेकिन तुमसे भी बीहड़ उस्ताद है वह। मान गया तो ठीक, न माने तो उसकी मर्जी।
( क्रमश:)