मिथिलेश के मन से: अबकी बार परसादी लाल

अबकी बार परसादी लाल
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Highlights

- आयेगा न। काशी तीन लोक से न्यारी। वहां अयोध्या नहीं है लेकिन लंका है। लंका में एक बड़ा भारी स्कूल है। दुनिया भर के बच्चे पढ़ने आते हैं और जब लौटते हैं तो पूरी दुनिया को पढ़ाते हैं: पढ़ो लइका क, लांग लांग ए गो, गोल गोल दू गो...।

गतांक से आगे

-तुम बनारस गये हो कभी?

-हां,  लेकिन जंगल के किस्सा - कहनी के बीच यह बनारस कहां से आ गया?

- आयेगा न। काशी तीन लोक से न्यारी। वहां अयोध्या नहीं है लेकिन लंका है। लंका में एक बड़ा भारी स्कूल है। दुनिया भर के बच्चे पढ़ने आते हैं और जब लौटते हैं तो पूरी दुनिया को पढ़ाते हैं: पढ़ो लइका क, लांग लांग ए गो, गोल गोल दू गो...।

- जिसने यह स्कूल बनवाया, उसने भीख मांगी थी। खाते- पीते घर का था, बड़का नेता था कांग्रेस का। गांधी उसका गोड़ दबाते थे। कहां कहां नहीं गया वह? जिसका पिछाड़ नहीं देखना, उसकी मनुहार करता फिरा वह। चंदा के वास्ते। तब जा कर खुला था वह स्कूल। आज भी है। 

- फिर

- हर्रौल चल रहा है उसका स्कूल। गेट पर लगी है उसकी मूर्ति। जो भी जाता है, सलाम बजाता है ।‌

- लेकिन वह जंगल जहां वह देवता मरा था? नन्ही बच्ची को गोद में लिए। असीसते हुए उस लड़की को। अपने गांव वाला जंगल..

- वह जंगल अब नहीं है। पहले उस देवता का थान हुआ करता था वहां जहां उसे सांप ने काटा था। जंगल के बीचोंबीच। बाकी की सारी जंगलाती ज़मीन देवता की। फिर दिक्कत होने लगी।

फिर आबादी बढ़ने लगी। फिर जोत घटने लगी। फिर रकबा घटने लगा। फिर जिसमें जितना जोर था, उतनी जमीन  उसने कब्जा ली। उजड़ गया जंगल। उड़ गये चिरई चुरुंग। जंगली भैंसे, रीछ भालू- एक एक कर भगा डाले गये वहां से। तभी आयी थी बुढ़वा आंधी। देवता को नाराज़ कर के कोई गांव चला है क्या कभी? फिर तय हुआ कि देवता का अच्छा भला पिंड बनवा दिया जाए।

देवता तो देवता, कहीं भी रह लेंगे। थोड़ी ज़मीन भी उनके लिए छोड़ दी जाए जहां पूजा- पाठ का टटरम होता रहे। शादी- विवाह के लिए देखाई होती रहे लड़कियों की। देवता असीसते रहें। ज़मीन छोड़ दी गयी उनके लिए। ढाई- तीन बीघा।

- बाकी की ज़मीन?

- पेट में गयी उन लोगों के जो चलता- पुरजा थे। थाना, पुलिस, चोरी, चकारी, डकैती, पंचैती, सरपंची- हर खेल में धुरंधर।

- फिर?

- फिर प्रधान आते गये। नये नये। नये नये रुतबों वाले। जिसे जो मिला, निगलता गया। 

- फिर?

- फिर आये परसादी लाल। नये परधान। पूरा नाम परसादी लाल पांड़े। कई बार से लड़ रहे थे और हार रहे थे चुनाव।  सो, गांव वालों ने तय किया: अबकी बार परसादी लाल। उन्हीं परसादी लाल का सपना था यह स्कूल खुलवाने का जिसमें हम- तुम पढ़े थे।

तुम पास होने के लिए, हम फेल होने के लिए। हूबहू बनारस के लंका जैसा स्कूल उनके सपने में चौबीसों घंटे तैरता रहता।

और, एक बात और जान लो। परसादी पांड़े जब चुनाव जीते और जब गाजेबाजे के साथ उनका जुलूस निकला तो लौंडा नाच भी हुआ था। भेखरिया से आये थे नचनिये और गांव में जो जगरमगर रहा कि बरात का जनवासा फेल। लेकिन एक काम और हुआ उस दौरान।

एक साथ चार मुहरें बनवायी गयीं। दो बेटों के पास, एक परसादी लाल के लिए। एक उनकी जनाना के पास। लो, हो गये एक के बदले चार प्रधान। किसी ने मुहर मरवाने के लिए किसी से मुर्गे मंगा लिए तो किसी का काम कुर्ता पजामा पा कर ही चल निकला।

किसी को पाजेब की दरकार होती तो कोई मान जाता जवाहिर जैकेट पर। जहां मन में आया, गड़वा दिये चापाकल। जिस ज़मीन पर नजर पड़ी, उसे करा लिया अपने नाम।  जिसे चाहा, दिला दिया कोटा परमिट।

होत न आज्ञा बिन पैसा रे। अब लक्ष्मी दासी थी परसादी की। बरसों की हार का बदला सूदमूल के साथ चुका लेना है अबकी बार, परसादी लाल सोचते और मगन हो लेते। परधान का पद सचमुच बहुत बड़ा होता है बाबू।

- कितना बड़ा?

- परसादी लाल जितना। तुम्हारे पटना में है क्या कोई परसादी लाल?  

( क्रमश:)

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