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किसी भी शहर के साथ ऐसा ही होता है। इतिहास की यह फितरत है
वह किसी का मर्तबा कायम नहीं रहने देता। बस यूं समझिये कि जब तक चली चले..
उन्हें अंग्रेज बहादुर ने राजा की उपाधि दी और लगान वसूल करने के आड़े आने वाली मुश्किलों का हल करने के लिए कचहरी लगाने तक का अधिकार भी
अब वे पहले से ज्यादा सुर्खरू थे
(गतांक से आगे। किश्त कौन सी है या हो सकती है, यह आप अपनी सहूलियत से तय कर लें। हम हिसाब नहीं रखते।)
हां दादा, फिर क्या हुआ?
-होना क्या था? बसना था, सो बस गया। बस गयी कोई बस्ती। बस गया कोई शहर। बस गया अजीमाबाद भी जो आज का पटना है। फिर उस अजीमाबाद ने पाटलिपुत्र का चोला उतार फेंका।
ऐसा क्यों?
- ऐसा इसलिए क्योंकि इतिहास किसी के साथ कोई मुरव्वत थोड़े न करता है। चाहे जितने भी बड़े फन्ने खां हों आप, उसका बुलडोजर जब चलता है तो परखचे उड़ाता चलता है।
उस बुलडोजर की अपनी कोई आवाज़ नहीं होती। कोई भोंपू, कोई मुनादी, कोई डुगडुगी पार्टी नहीं हुआ करती है उसके साथ। तो.. ऐसा ही हुआ यहां भी।मुगल आये। औरंगजेब का दौर आया।
सूबेदार बन कर अजीमुश्शान आया और यह शहर बदल गया। उसने इस शहर का नाम बदल डाला। कल का पाटलिपुत्र अब अजीमाबाद था।
किसी भी शहर के साथ ऐसा ही होता है। इतिहास की यह फितरत है। वह किसी का मर्तबा कायम नहीं रहने देता। बस यूं समझिये कि जब तक चली चले.. ।
-अजीमुश्शान के ही दौर में एक ब्राह्मण परिवार को अजीमाबाद में ज़मींदारी ग्रांट हुई। यह परिवार सारस्वत ब्राह्मणों का परिवार था जो स्थानीय नहीं थे। वे मिथिला के नहीं थे, वे बंगाल के नहीं थे, वे उड़ीसा के नहीं थे। वे पंजाब के थे।
यह जिस दौर की बात है, उस जमाने में पंजाब बहुत बड़ा सूबा हुआ करता था और कश्मीर उसका हिस्सा था। इसे यूं समझिये कि महाराजा रणजीत सिंह की दो राजधानियां हुआ करती थीं- लाहौर और श्रीनगर।
अब राजा तो राजा। जहां मन करे, रहे। जिसे मन करे, बसाये- उजाड़े।
- तो.. इसी सारस्वत ब्राह्मण परिवार के थे बनवारी लाल और नवनीत लाल। दोनों पिता- पुत्र थे।
उन्हें अंग्रेज बहादुर ने राजा की उपाधि दी और लगान वसूल करने के आड़े आने वाली मुश्किलों का हल करने के लिए कचहरी लगाने तक का अधिकार भी। अब वे पहले से ज्यादा सुर्खरू थे।
चंपारण, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, फतुहा का एक बड़ा इलाका उनकी ज़मींदारी के दायरे में था।
अजीमाबाद में बनवारी लाल की इजलास जहां सजती थी, उस इलाके का नाम पहले कचहरी गली हुआ करता था जो बाद में कचौड़ी गली हो गया। जानते हैं, ऐसा क्यों हुआ होगा? घोड़े दौड़ाइए दिमाग के।
ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि मुकदमों का निपटारा कराने की आस में जो किसान मीलों दूर से चल कर कचहरी आते थे, वे कब घर लौटेंगे, कुछ तय तो था नहीं।
जो सतुआ- पिसान वे बांध कर लाते थे अपने साथ, वह बाजदफा प्रवास के बीच में ही खतम हो जाता और फिर उन्हें फाकाकशी करनी पड़ती। कोर्ट- कचहरी का फेरा होता ही ऐसा है।
बहरहाल, इस मुश्किल को ताड़ गये अजीमाबाद के छोटे कारोबारी। उन्होंने कचहरी परिसर के आसपास पक्के खाने के कुछ ठेले लगाये।
पक्का खाना माने पूड़ी, सब्जी जिसे बनाने में भी कम झंझट थी और ग्राहक के जाने के बाद साफ- सफाई भी बहुत मेहनत नहीं लेती थी। पहले एक, फिर दो, फिर कई दुकानें देखते ही देखते आबाद हो गयीं।
कंपटीशन बढ़ा तो भीड़ बढ़ाने को रेट गिराने और क्वालिटी सुधारने की भी आंधी चलने लगी। मुकदमेबाजों की तो समझिए चांदी हो गयी। यह सतुआ- पिसान बांध कर लाने की समाप्ति के दिन थे।
- बनवारी लाल के ज़माने में इस कचहरी की अपनी हनक थी जिसे उनकी पत्नी ने भी उम्र भर बरकरार रखा। छोटी बहू यानी बनवारी लाल की पत्नी भी पति की मौत के बाद बाकायदा इजलास लगाती थीं, मामले देखती थीं, फैसले सुनाती थीं।
लेकिन परदे की ओट से। ज़माना ही ऐसा था। औरत अदालत लगाये, यह बात उस दौर की मर्दाना जेह्नियत को कुबूल थी क्या? नहीं न।
दादा बोले जा रहे हैं और हम खामोश। हम सुन रहे हैं और देख भी रहे हैं इतिहास को रंग बदलते। 'फिर क्या हुआ' की रट अब बंद हो गयी है। हम सोच रहे हैं- फिर क्या हुआ होगा? (क्रमश: तीसरी किश्त)
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नोट: कचौड़ी गली के पटना चैप्टर वाले इस इतिहास में हम कहीं नहीं हैं दोस्तो! हम सिर्फ श्रोता हैं जिसे थोड़ा- बहुत लिखना और लिपिबद्ध करना आता है। यह पूरा अफसाना नवीन रस्तोगी से सुना- सुनाया है जिन्हें हम पटना के इतिहास- भूगोल से जुड़े एक लंबे कालखंड का इनसाइक्लोपीडिया मानते हैं। नवीन रस्तोगी पेशे से पत्रकार हैं और दिमाग से चौबीसों घंटे बेदार रहने वाले विलुप्तप्राय प्राणी। उन्हें सुनना भी उस इतिहास को देखने जैसा है जो जाने कब गुजर गया हमारे ऐन सिरहाने से और हमें खबर तक नहीं हुई।