नीलू की कलम से: फिल्म समीक्षा : उड़ता तीर

फेसबुक स्क्रोल करते हुए यूं ही फिल्म की प्रमोशनल पोस्ट पर नज़र पड़ गई।फिल्म पैड थी मगर पोस्ट में फिल्म के कंटेंट को लेकर एक ठसक झलक रही थी जिसने बरबस ध्यान खींचा और हमने हाथों हाथ मेंबरशिप लेकर देख डाला।

फिल्म समीक्षा : उड़ता तीर

"रिप्यांकी कीं बात कोनी रे, रिप्यो हाथ को मैल ह पण तू मन जामुड़ो मत किया कर "-फिल्म का डायलॉग सुनकर आज मैं खिलखिला पड़ी पर बचपन में एक मास्टर के ऐसे ही शब्द ऐसे चुभे कि कई वर्षों तक सालते रहे।

 दरअस्ल मैं अपने मौसेरे भाई विष्णु को पोलियो ड्रॉप पिलवाने स्कूल में लगे कैंप में लेकर गई तो वहां हमारे माटसाब बैठे थे प्रेम जी चौधरी। रिकॉर्ड दुरुस्त करने के लिए छूटते ही पूछ बैठे-"बाप का क्या नाम है?"

मुझे सुनाई दिया "आपका क्या नाम है?"

उस समय मैं अपने लिए एक शिक्षक से यही शब्द एक्सपेक्ट कर रही थी। उन्होंने आंखें निकालते हुए कहा-"थारो नहीं, ई छोरा क बाप को नाम पूछ रियो हूं!" मैं हतप्रभ! इतने बड़े माटसाब इतने ओछे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं?

खैर भुगानगढ़ का नन्हा जामुड़ा किसीकी बात दिल पर न लेकर अपने तरीके से लाइफ 'झिंगा ला ला' करके जीने वाला ज़िंदादिल है।

यहां चर्चा हो रही है फिल्म 'विशेष' की जिसमें पहली बार 'शेष' लोगों की बात की गई है।

फेसबुक स्क्रोल करते हुए यूं ही फिल्म की प्रमोशनल पोस्ट पर नज़र पड़ गई। फिल्म पैड थी मगर पोस्ट में फिल्म के कंटेंट को लेकर एक ठसक झलक रही थी जिसने बरबस ध्यान खींचा और हमने हाथों हाथ मेंबरशिप लेकर देख डाला।

सबसे पहले तो फिल्म की भाषा ने ही प्रभावित किया। अब तक जो गिनी चुनी राजस्थानी फिल्में मैंने देखी थी उनमें शेखाटी या हरियाणवी पुट ही अधिक  था किंतु यहां ठेठ नागौरी टोन वाली मारवाड़ी ने दिल खुश कर दिया।

कहानी की बैलगाड़ी सरकारी स्कूल के खस्ता खंडहर के हंसी फुंहारो से गुजरती हुई सरकारी सिस्टम के बेदर्द बंगलों तक की सैर कराती है।

इसमें आप 'सो कॉल्ड' बड़े लोगों की झूठी शान को बबूल में उलझी कटी पतंग की तरह फड़फड़ाते हुए, तो सिस्टम से हारे लोगों को मूक दम तोड़ते,तड़फड़ाते हुए भी देखेंगे।

छोटी सी पृष्ठभूमि से बड़ा मुद्दा उठाने वाली यह अपनी तरह की पहली राजस्थानी फिल्म है जो ट्रेंड और टीआरपी को धत्ता बताकर इसके फ्लिप साइड को उजागर करती है। जिस विषय पर दिग्गज बोलने से कतराते हैं उस विषय पर 'उड़ता तीर' लेने के लिए सवा हाथ के काळजे वाले फिल्मकार को सैल्यूट।

कुल मिलाकर कोशिश बेहतरीन है। फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक की कमी खलती है पर जितना है उतना एक नंबर,एक्टिंग अच्छी रही पर बंगले वाला सीन बिल्कुल नाटकीय लग रहा है।

गानों के लिरिक्स और म्यूजिक फिल्म का दमदार पक्ष है। Raja hassan और kapil jangir का नाम ही काफी है।

टीम 'विशेष' को बधाई!

- नीलू शेखावत