नीलू की कलम से: तिंवार

छोटी-छोटी डावड़ियां व सुहाग-भाग की चाहने वाली नारियों के शृंगार का त्योहार गणगौर होलिका-दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण एकम् से शुरू होता है और चैत्र शुक्ल तीज के दिन गणगौर की बोळावणी के साथ ही संपूर्ण होता है।

शृंगार का त्योहार गणगौर

भारत की जनपद संस्कृति त्योहारों के आस-पास ही घूमर घालती दिखाई देती है।

ये त्योहार किन्हीं पुराण कथा-प्रसंग, इतिहास-नायक, अवतार के जन्म, ब्याव-उच्छाव और लोक देवता के अलौकिक परचों व जनता-जनार्दन के लिए जूझने वालों को याद रखने के लिए लंबे अरसे से मनाए जाते रहे हैं।

ये त्योहार लोकमानस के तन- मन में सुख की सौरभ, कर्तव्य की किरण, अमरत्व और उल्लास का आदित्य उगाते हैं।

गणगौर त्योहार भी ऐसी ही एक लोक कथा
होलिका का के सरजीवन(पुनर्जीवन) के आख्यान को युग- युग से जीता- जगाता आया है।

विष को ही अमृत मानकर पीना इस संस्कृति की मूल भावना रही है।

शिव और सती के दक्ष प्रजापति के यज्ञ के विध्वंस व सती के पार्वती रूप में फिर से जन्म धारण करने के कथानक में ही गणगौर का अवतरण माना जाता है।

गणगौर गोरड़ियों के त्योहारों का सिरमौर है। गण और गवरी, शिव और पार्वती को पूजने वाला त्योहार गणगौर कहलाया।

छोटी-छोटी डावड़ियां व सुहाग-भाग की चाहने वाली नारियों के शृंगार का त्योहार गणगौर होलिका-दहन के दूसरे दिन चैत्र कृष्ण एकम् से शुरू होता है और चैत्र शुक्ल तीज के दिन गणगौर की बोळावणी के साथ ही संपूर्ण होता है।

अठारह दिनों का यह त्योहार खूब लाड-कोड व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

गणगौर का यह त्योहार भारत के रजवाड़ी भाग शेखावाटी, ढूंढाड़, मेवात, मारवाड़, मेवात, बिकाणा, भाटीपा व हाड़ौती आदि समूचे क्षेत्र में ठसक और ठरके के साथ मनाया जाता है।

सियाळे की सर-सर चलती सेळी, काया को थर- थर कंपाता शीत पवन, प्रचंड देह वाले पुरखों के पिंड को भी धुजाने वाली पवन से पिंड छूटता है और ऋतुराज वसंत का आसन जमता है। उसके जीवन रस की धार से वनदेवी नवोढा की भांति बणी-ठणी लगने लगती है।

सीत का सफाया होता है और वन-विटपों में नवीन रस का संचार होता है। मुरझाए पेड़ों में कोंपल चलती है। अपने पत्ते रूपी कानों को टमटमाते, कोंपल रूपी तुर्रे को हिलाते खेजड़ी, नीम, फोग, बबूल सभी पर मिंझर, फूल, फल लहलहाते है।

संपूर्ण वातावरण सौरभ की सुहानी, मनभावनी महक से नहा उठता है। धरती पर इंद्र के नंदन- कानन-सी छवि उभर आती है। इस ऋतु में नर-नारी तो क्या, देव और नागकन्याएं भी इस धरा-धाम में जन्म लेने को ललचाती है।

गणगौर पूजा की लौकिक मान्यता है कि भक्तराज प्रह्लाद का  पिता दैत्यराज  हिरण्यकश्यिपु बड़ा अभिमानी धाड़फाड़ जोमराड़ राजा हुआ। वह दैत्यवंश का टणका रक्षक भगवान विष्णु को तृण समान भी नहीं गिनता था।

ईश्वर के बजाय स्वयं को ही करतार मानता था। प्रह्लाद अपने पिता के इस मत को व्यर्थ का अहंकार मानता था। वह ईश्वर का भक्त और भक्ति की शक्ति से ओतप्रोत। प्रह्लाद विष्णु की पूजा करे और दूसरे भक्तों को भी भक्ति की भागीरथी में अवगाहन करवाए।

हिरण्यकशिपु के कहन-कथन को नकारे। हिरण्यकशिपु उसे राजविरोधी माने। अपनी अकल के लोप से हिरण्यकशिपु प्रह्लाद पर नाराज हुआ तो ऐसा कि अपनी बहिन होलिका जिसे महादेव भूतनाथ का यह वरदान था कि वह कभी भी अग्नि में जलेगी नहीं, उसे बुलाकर कहा-"होलिका! यह संतान दैत्यकुल-कलंक है।

तू इस पितृद्रोही को गोद में लेकर आग्नि में बैठ ताकि इस बुद्धिभ्रष्ट दुष्ट का नाश हो सके। होलिका दैत्यराज की आज्ञा मान प्रह्लाद को गोद में ले अग्नि में प्रविष्ट हुई पर नारायण की लीला निराली है!

जलाने वाली जल गई और जलने वाले का बाल बांका न हुआ। होलिका जलकर राख हो गई और प्रह्लाद अग्नि से मुळकता- पुलकता, हंसता-हंसाता, जीता- जागता 'हरे राम' के बोल उच्चारता अग्नि से बाहर निकला।

फूल की छड़ी छुआने जितना भी घाव न हुआ। आग की गर्म लपट तक न लगी।

यह देख हिरण्यकशिपु हतप्रभ। होलिका के मरण का भय ही उसके पेट के पानी को पतला करने लगा। उसका आराम हवा हो गया। नींद नाट गई, चिंता से चित्त चकरी की तरह फिरने लगा और जी तिरूं-डुबूं होने लगा।

आखिर बेकळखाते हुए हिरण्यकशिपु ने देश- परदेश के बड़े जोशी, पुजारी, पंडों व भोपों को बुलाकर अपनी मनोदशा बताई और होलिका को पुनर्जीवित करने की विधि पूछी। तब ज्योतिषी बोले- होलिका की भस्मी का पिंड बनाकर कुंवारी कन्याएं और सुहागनें उन पिंडों की पूजा करे तो होलिका राख से पुनर्जीवित हो सकती है।

तब होलिका की राख लाकर कुंवारी डावड़ियों ने पूजा की और सातवें दिन होलिका पुनर्जीवित हो गई जो लोक में गणगौर नाम से पूजी जाने लगी। गोरड़ियों के घरों में धीणा-धापा, नाज-पात और सुख-समृद्धि से अखार-बखार भरने लगे। धन- धीणे के ठाठ जुड़ गए। किसी तरह की कोई उणारथ नहीं रही।

बाल गोपाल आनंद उल्लास से रमने लगे। पंद्रहवें दिन गोरजा ने एक डावड़ी को दरसाव देकर कहा-" तुम मेरी काठ या माटी की मूरत बनाकर, कपड़े लत्ते ओढ़ा, पहरा, सजाकर मेरी सवारी निकालो जिससे तुम सब पूजने वालियों को चित चाहा, मन मांगा भरतार मिलेगा और सुख, शील, सुहाग भाग की भागी होओगी। कहते हैं तभी से गणगौर पूजा चली आ रही है।

गणगौर पूजने के लिए कन्याएं अठारह दिन नित्य बिना अन्न जल लिए निरणी कुआं, बावड़ी या तालाब पर झूलरा बनाकर गोरी के गीत गाती हुई जाती है और वहां से दूब, फूल पत्ते तोड़कर व निर्मल जल से लोटा भरकर उसपर फूल पत्ते और दूब सजाकर गीत गाती हुई घर आती हैं।

फिर भस्मी के ईसर-गणगौर की फूल-पत्तों से पूजा करती हैं। ये सब एक ही स्थान पर एकत्र हो दो- दो जोड़ों में पूजा करती हैं। पूजा दूब के हरे तिनके, फोग के ल्हासूं या जौ के जंवारे किन्हीं से भी हो सकती है। ईसर गणगौर के पिंडों पर जल चढ़ाने से लगता है कि यह शिव-पार्वती के पूजन का त्योहार है।

प्रभात से शुरू होकर संध्या को घूघरी, चूरमा, लापसी आदि से ईसर गणगौर को जीमाया जाता है। अठारह दिन तक शाम को स्त्रियां इकट्ठी होकर गणगौर के गीत गाती हैं। तीज के दिन खूब उछाव के संग काठ की प्रतिमा को सजाकर, पालकी में बैठाकर गांव में सवारी निकाली जाती है।

मुख्य बाजारों, गुवाड़ों में घुमाने के बाद किसी नियत स्थान पर सवारी को दर्शनार्थ रखा जाता है। वहीं पर ऊंट, घोड़े, बैलगाड़ियों की दौड़ व बंदूकों के धमाकों के साथ कई तरह के खेल आयोजित होते हैं।

स्त्रियां रंग बिरंगी पोशाकें, गहने गांठों से लड़ालूम, नेह के प्यालों से छकी, हंस से भी मंथर गति से मल्हारती ऐसी शोभा पाती है मानो इंद्र की अप्सराएं ही गणगौर के बधावे गा रही हैं, घूमर घाल रही हैं और लूर लेते हुए तो ऐसी लगती हैं मानो इंद्राणी की सखियां ही चलकर धरती पर आई हों।

शोभा की सागर, गुणों की गागर, रूप की रास, चंद्र किरण-सी खास, किरणों का उजास बिखेरती कोडिली कामणियां गीत गाती हुई ऐसी लगती है मानो उर्वशी की ऐवजी हों। ऐसी उर्वशी अर्धांगिनियां किनके उर में न बसेंगी? नागकन्याएं कहां उनके आस पास ठहरेगी?

इनका परियों को भी परे बैठाने वाला स्वरूप ऐसा मानो तिलोत्तमा की ताई है कि उर्वशी की भोजाई!गणगौर के दिन इनकी सेजों का सिंगार आलीजा भंवर यदि घर नहीं आए तो ये पंख लगा कर उनकी ओर उड़ना चाहती हैं।

गवर तिंवार गजब रो, मिलन उमेद कराह
आलीजा सू उड़ मिलू, दे ब्रजराज पराह
सलोने सांई, सुहाग-भाग-अनुराग के धनी से मिलने के लिए ब्रजराज से अभिलाषा की जा रही है-
अभलाख नार बीजी न कोय। दरसन हूवा आणद होय।
रूक्मणी किरसन रो दरस चाह। इन विध उर में उमंग अथाह।
पपीया जीम पिव पिव पुकार। अर्धंग्या तनी सुनज्यो उदार।

वीर-वाणियों के अधिकतर त्योहार चूड़ा-चूनड़ी की अमरता की कामना के त्योहार माने जाते हैं। क्या विवाहिता, क्या कुंवारी सभी नारियां अच्छे घर-वर के लिए, कुटुंब-कड़ुमे की सील-सोम के लिए, सुख, स्नेह और शांति के लिए बरत-बड़ूले करती हैं।

परिवार की मंगलकामना को ही दिन- रात मन में धरती हैं। बालिकाओं के गणगौर  गीतों में परिवार के साख-संबंध, रिश्तों-नातों व समाज हित के बोल गुंजायमान है।

गौर ऐ गणगौरमाता खोलदै किंवाड़ी,
बाहिर ऊभी थांरी पूजण वारी।
आवौ ऐ पुजारण बायां कांई कांई मांगौ।
जळवळ जामी बाबी मांगा रातादेई माय।
कान कंवर सो वीरो मांगा राई सी भोजाई।
पीळी मुरक्यां मामो मांगा, चुड़ला वाली मामी।
ऊंट चढ्यो बहनोई मांगा, सहोदरा सी बहैण।
वडे दूमालै काको मांगा, संझ्यावाळी काकी।
फूस बुहारण फूफी मांगा, हाडां धोवण भूवा।
जोड़ी को म्हैं राईवर मांगा, सारां में सरदार।
ओ वर मांगा ऐ गवरळ माय। ।

जहां कन्याएं सागर सरीखे रत्न-संपन्न पिता, कृष्ण-रूक्मणी जैसे भाई भौजाई, समृद्ध मामा और सुहागन मामी और सब में सरदार हो ऐसे कांत की कामना करती हैं वहीं विवाहिताएं अपने जोड़ी के जोधार से साथणियों के संग गणगौर रमने की विनती करती हैं-

खेलण दो गणगौर भंवर म्हांनैं पूजण दो गणगौर।
ओजी म्हॉरी सैयां जोवै बाट, बिलाला म्हांनै खेलण दो गणगौर।
भल खेलो गणगौर सुन्दर गौरी भल पूजो गणगौर।
ओजी थांनै देवै लडेतो पूत, प्यारी भल खेलो गणगौर।

फिर गोरी गोरज्या से माथे का मेमद, सुहाग का टीका, रतन जड़ी रखड़ी, हीरा जड़े झूटणे, मुखड़े की बेसर, नाक की नथली, कंठ में कंठसरी, हिवड़े

पर हांस, तिमणिया, कंडियारा, कंडोरा, पगल्या की पायल, बिछिया, हाथ सांकळा, पगपान, बींटियां, भुजबंद, टोडा, टणका, हीरानामी, मादळिया आदि सोना, पन्ना, हीरा, मोती के गहने मांगती है।

चैत में चंचल चंचलाओं का मन उछाव में उछाळे लेता है। कहा भी गया है-

फागण पुरुष चैत लुगाई
काती कुतिया माघ बिलाई।

राजस्थान में जयपुर की तीज, कोटा का दशहरा, जोधपुर की आखातीज और उदयपुर की गणगौर प्रसिद्ध है। उदयपुर में पिछोला सरोवर में गणगौर की सवारी की छवि तो कितने ही छैलों को छल ले। मानव तो क्या महेश्वर भी अपनी गोरां को पहचान नहीं पाते। कवि पद्माकर के मुख से शिवजी इसी भ्रम भुलावे में पूछते हैं-

इन गनगोरन में कौनसी हमारी गणगौर है।

ऐसी नाव की सवारी कैसी शोभा पाती है, एक गीत के बोल में बताते हैं-
हेली, नाव री सवारी सजन राण आवै छै।
पीछोला री पाळ गोर्ययां गोर्ययां लावै छै।
छतर लुळत चंवर दुळत दरसावै छै।
जोख निरख पहप बरख हरख मन छावै छै।
धीमै धीमै नाव चालै जाणै इन्दर धावै छै।
ज्यों जांणलो छटा थे म्हांसू कही न जावै छै।

उदयपुर की नाव की सवारी को निरखने को देवांगनाएं भी ललचाती है़। नायिकाओं का टोळा, गीतों का हबोळा और पिछोळा की छोळां देखने को सुभट समाज हवेलियों के गोखों में बैठे या बारियों में खड़े नजर आते हैं

बैठो गोखां पर जठै, सुभटां तणो समाज।
उदियापुर री गणगवर, अब देखालां आज। ।

उदयपुर का गणगौर मेला अप्सराओं का टोला ही लगता है। ऐसे गणगौर पर्व पर कौन कवि चमत्कृत न होंगे और अपने शब्द रूपी नगीने नहीं जड़ेंगे?

बरस आद दिन चौत रै मास चत्र बरणं,
ध्यान जग मात निज रूप ध्यावै।
देव बीसर अवर पूज जगदम्ब का,
गवर ईसर तणा गीत गावै। । 1। ।
चहूं पुर सहर गांवां पुरां चहुं तरफ,
नाग देवां नरां भाव भजनेव।
नवरता सकत नवधा भगत हुवै नित,
दूलही देवी अर वर महादेव। 2। ।
पूज जगमात नव रात सेवा परम,
प्रगट त्रहूं लोक जन मन वचन प्रीत।
इसा नह देव किण ही दखै अवर रा,
गवर रा त्रिपुर रा उछरंग उमंग गीत। । 3। ।

लोकवेद सब वेदों से न्यारा है। लोक में अजन्मा अनादि शिव को ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है। गणगौर ईसर जी को प्याला देती, मुजरा करती, झाला देती आती है-

देखो म्हांरी सैयां थे बिरमाजी रै छावै री गणगोर।
ईसरदास ल्याया छै गणगोर, राना बाई रै बीरा री गणगोर।
झाला देती आवै छै गणगोर, मुजरो करती आवै छै गणगोर।
आगै ईसर व्हैैर्यया छै गणगोर, प्याला पीता आवै राज राठौड़।
कानां में कुंडल पैर्यया छै गणगोर, झूठणा घड़ावै राव राठौड़। ।
घुड़ला री घमरोळा आवै छै गणगोर, मनड़ो उमावै छै गणगोर। ।

राजस्थान की धरा पर प्रकृति मनचाही मोहित हुई है। कहीं बालू की लहरें, कहीं भाखर की चोटी पर सवारी करते टीले, कहीं नदी-नाले, खाळे-बाळे और कल-कल नाद करते झरने, ऊंचे पर्वत तो कहीं सपाट साफ मैदान और हरे चिरम बीहड़। ऐसी भांत-भंतिली धरती की प्रकृति और संस्कृति ही निराली है। पर राजस्थान में चाहे मेवाड़, माड़, मारवाड़, जांगलू, शेखावाटी, मेवात, हाड़ौती कहीं भी जाइए, सभी भागों में त्योहार संस्कृति समान है।

राजस्थान की भूमि में अनेकता में सांस्कृतिक एकरूपता साफ नजर आती है। दूसरे परगणों की तरह मेवात में भी गणगौर का उत्सव उमंग- उल्लास के साथ मनाया जाता है। अलवर की गणगौर का उछाव नीचे की ओळयों में देखिए-

मास चैत उछब महा, हुवै गणगोर हंगाम।
हुवै मंगल घमल हरख, तिणवर सहर तमाम। ।
तिणवर सहर तमाम, पारबती पूजवै।
गावै गिरजा गीत, गहर सुर गूंजवै। ।
सजि सोलह सिंणगार, नारि नव नागरी।
बण ठण अेम बहार, विलौके बागरी। ।

गणगौर के उत्सव पर नवयुवतियों के बणाव- ठणाव व सरस-कंठ-सुरयुक्त गीतों की धुन सुनकर बागों की कोयल टहूका देना भूल जाती है।

रहै चूकि सुण राग सुर, कोयल यों कूकंत।
छटा इसी छंदगारियां, फुलबाड़ियां, फबंत। ।
फुलबाड़ियां, फबंत चमन गुल चूंटवै।
अेक अेक संू अगै, लगै हठ लूटवै। ।
लता बीच ल्हुक जात, विगर कंटकि वड़ै।
मिल गुल चसमां मांहि, पिछांणी नह पड़ै। ।

इन कामणगारियों के मीठे सुरों के आगे कलकंठी कोयल भी पानी भरती है।

लताओं जैसे लचीले गात, पुहुप जैसे कोमल अंग लताओं के झुरमुट में छिप जाए तो खोजना मुश्किल हो। फिर अमरावती का आवास अलवर की बराबरी कैसे करे।

कंचन भर लावै कलस, दूब कुसम इण दाय।
पती पारबती पूजवै, इम निज निज प्रह आाय। ।
इम निज निज ग्रह आय, क अंब अराधवै।
दिन प्रत सोडस दिवस, सबै सह साधवै। ।
सित गिरजा सतूठ, धरै सुख दै घणै।
मिलै वास जग मांय, तिकां अलवर तणै। ।

गोरल की सवारी की छवि और हंसमणियों के टोले तो राजहंसों के टोले की उपमा पाते हैं-

होवै अत अनुपम हरख, रोज संझारां दीह।
वणै जिकी छवि बेखियां, जाय न वरणी जीह।
जाय न वरणी जीह, छटा छत्रधार री।
असवारी अंबा तणी, बणी बजार री। ।
टोळी हंसी तेम क, दौळी दासियां।
जेवर रतनां जड़ी क, अमर उजाणियां।

गणगौर की सवारी के लिए चौगिड़दे भाला, बरछा, बंदूखें लिए वहीं कमनोत, भालाबरदार, गुर्जबरदार और तरवारिया घोड़े चढ़ साथ चलते हैं। नगाड़े, निशान, छड़ी, झंडा लिए सिपाही ऐसे लगते हैं जैसे फौज पलटन का लवाजमा दुश्मन देश पर धावा बोलने वाला हो।

कभी-कभी गणगौर का अपहरण भी कर लिया जाता, इसीलिए रुखाळी का पूरा बंदोबस्त किया जाता। ऐसा ही एक उदाहरण सिंहपुरी (जोबनेर) के रामसिंह खंगारोत मेड़ता की गणगौर उठा लाए जिसकी साख एक वीर गीत में मिलती है-

मरद तूझ आसंग दूसरा माधवा, अभंग दूदाण ऊभां अथागां।
मेड़ता तणी गणगोर मांटी पणै, खांगड़ो लियायो पांण खागां। ।
बराराकोट नरहरां रा बहादर, जस गल्लां धरा रा धणी जाणै।
खांगड़ा पागड़ा घणा ऊभा खगां, अरधंग्या ईसर तणी आणै। ।
कूरमांछाल अखियात कीनी कहर, सुणी आ बात सारां सरायो।
हेक असवार दै उराणै हैमरां, लाख असवार विच गोर लायो। ।
तवां रंग राम रै जोत घोड़ी तनै, सांम रै काम दौड़ी सलूधी।
मुरधरा बिरोलै लियायो महाभड़, सिव तणी नार सिंणगार सूधी। ।

राजस्थान में गणगौर का पर्व एक ओर जहां होड़ा-होड़ व उत्साह के साथ मनाया जाता है वहीं बूंदी में महाराज जोधसिंह के गणगौर सवारी समेत बूंदी के तालाब में डूब जाने के कारण ओख मानी जाती, जिससे बूंदी में गणगौर की सवारी नहीं निकलती।

कहावत- 'हाडो ले डूब्यो गणगौर' जोधसिंह की मृत्यु को लेकर ही चली है। एक पंद्राड़ी और तीन दिन (अठारह दिन) तक गणगौर के लाड लडाने के बाद बेस-बागा व दात-दायजा देकर सीख (विदाई)दी जाती है जिसे गणगौर बोळावणी कहते हैं।

इस तरह माटी के पिंडों को तो कुआं-बावड़ी में पधरा दिया जाता है और काठ के ईसर-गणगौर के चेहरों को एक दूसरे की ओर उल्टा-सीधा कर घर ले आते हैं। गणगौर के बाद चौमासे में तीज का त्योहार ही आता है। लोक में इसीलिए  'तीज त्यूंहारां बाहुड़ी ले डूबी गणगौर'- की कहावत प्रचलित है।

गणगौर का त्योहार गिरिजापति-गोरी की आराधना का त्योहार है। इसमें होलिका के पुनर्जीवित होने के पीछे तंत्र-मंत्र विद्या के देव शिव की महानता व योगबल के बीजांकुर शामिल हैं। वैष्णव और शैव भक्ति का अनोखा मेल गणगौर त्योहार के पीछे घुला-मिला जान पड़ता है।

(जागती जोत में १९९० में प्रकाशित राजस्थानी आलेख का अनुवाद। )
लेखक:  सौभाग्य सिंह शेखावत 
अनुवादक: नीलू शेखावत